अंधड़ तूफान की थी वह रात। हम फिर भी उस पुरानी जर्जर कोठी के बरामदे में बैठे ही रहे। हिले तक नहीं। नीम के घने बड़े पेड़ देखते हुए। तेज हवाओं के साथ पेड़ों की टहनियां और पत्ते तेजी से सरसराते हुए हिल-डुल रहे थे। हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि खानदानी लोगों को कितना भरोसा था चिकित्सा के लिहाज से नीम पर। मेरे रिश्तेदारों में कई का तो हाल यह था कि अपने नामों के पहले ‘हकीम’ जोड़ लेते थे। वे नीम की छाल, निमौनी, पत्तियों और फूल आदि के चिकित्सकीय उपयोग के बारे में पढ़ते-लिखते और सोचा करते। उनकी सूची में नीम दीमकों से लकड़ी बचाने, मधुमेह से इंसानों को बचाने, दांतों को गिरने से रोकने इन्फेक्शन से बचाव तक यानी हर परेशानी में रामबाण थी।
अचानक हुआ एक हादसा। नीम का एक पेड़ गिर गया। एकदम धम सा। कुछ खास मजबूत नहीं था। यह गिरा तो झाडिय़ों पर। फिर भी इसकी इतनी तेज आवाज़ थी मानो मेरी नानी आमना हुसैन साहिबा की चीखी हो। उनकी फिर चीख निकलती उसके पहले ही नीम का दूसरा पेड़ भी लहराता हुआ गिर गया। गिरे हुए पेड़ों का मुआयना करती हुई वे हमें और खुद को ढांढस बंधाती हुई कहतीं, ‘ये अपने आप गिर गए। हमने न तो इनकी टहनियां काटीं और न पेड़ ही। शाह हुसैन ने एक बार ऐसा किया… क्या मंजर था दोजख का।’
अहाते में नीम के बढ़ रहे तने से निकली फुनगियों से बनी पतली डालों को उनके छोटे भाई ने काट डाला था, ‘वह उन्हें काट इसलिए रहे थे क्योंकि पेड़ से उनके घर में सूरज की रोशनी के आने में खासी बाधा थी। नाराज़गी में उन्होंने पास की ही ऊंची शाखाओं को काटना शुरू किया। कुल्हाड़ी पेड़ के तने पर पड़ी, दिखा कुल्हाड़ी पर खून… जी हां, खून टपकने लगा। यहां रह रहे माली और चौकीदार अचानक चीखे, इस पेड़ पर जिन्न रहते थे।’
‘क्या नीम के पेड़ पर जिन्न रहा करते हैं?’
‘उन शाखाओं पर जिन्न रहते थे लेकिन वे बदला नहीं लेते थे। जिन्न कोई जल्लाद थोड़े होते हैं। वे मेरे भाई की जल्दबाजी भी समझते थे। हैं…. लेकिन फिर भी हमने हरजाना भरने की राह निकाली। अपनी ओर से, जितना ज्य़ादा से ज्य़ादा संभव होता प्यार से नीम का ही पौधा लगाते। कभी नीम को सताओ मत, उसमें बदला लेने की क्षमता है।’
‘बदला लेने की क्षमता?’
‘काबिलियत के साथ!’
उस रात नीम का दूसरा पेड़ भी गिरा। तमाम कोशिशें की गई कि उम्रदराज हकीम हैदर हुसैन साहिब को उनकी हवेली से बुलवा लिया जाए। सामूहिक तौर पर शोक जताने के लिए। एक रिक्शे की व्यवस्था की गई उन्हें लाने के लिए। आखिर उस खानदान में वे अकेले बचे बुजुर्ग थे। वे एक टार्च और लालटेन लेकर आए। वे कुछ थक से गए थे। सबसे पहला काम उन्होंने किया कि वे तीन गिरे हुए पेड़ों तक गए। उन्हें देखा। फातिहा बुद बुदा रहे थे या शोक जता रहे थे या फिर दोनों ही। जैसे जैसे अंधेरा बढ़ता गया हम भोर होने तक उनसे जिन्न की कहानियां सुनते रहे।
उन्होंने हमारी खानदानी कोठी मे महज कुछ घंटे गुजारे। कोई भी उन्हें जाने नहीं देना चाहता था। वे खासे उतावले हो गए थे और तनाव में भी थे क्योंकि उनकी पत्नी ने एक पेज की चिट्ठी एक बेरोज़गार नौजवान जेब के हाथों भेजी थी। जेब उनकी हवेली के बाहरी कमरों में से किसी एक में रहता था। इस जोड़े के पास न तो कार थी और न टेलिफोन। एक दूसरे से बातचीत का और कोई जरिया भी नहीं था। इसीलिए यह चिट्ठी पहले ही भिजवा दी गई थी।
फिर वे आई एक दूसरे रिक्शे से। नाराज़ निगाहों से उसे देखते हुए वे फूट पड़ी, ‘आपने मुझे पीछे छोड़ दिया। जबकि मैं आपका इंतज़ार करती रही। आप यहां आराम फर्मा रहे हैं। बहुत हुआ। पौधे, पेड़ और लताएं सभी आपका इंतज़ार कर रही हैं।’
हम सब ओठों पर मुस्कुराहट लिए से रह गए। लेकिन वे तनिक भी खुश नहीं दिखे। तत्काल वे उठे और पत्नी के साथ लौटने के लिए खड़े हो गए। हमने कुछ जिद भी की, उनकी पत्नी और वे रूक जाएं। पर उन्होंने तब अपने पौधों के बारे में ऐसे बताया जैसे वे उनके अपने बच्चे हों।
बाहर कदम रखने से पहले उन्होंने पूछा कि क्या मेरी बहनें और मैं उनकी हवेली में चंद दिन गुजारना चाहेंगी। आओ… साथ ही चलते हैं। वहां तरकारियां जो भी उगी हुई हैं उनकी सब्जी बनाएंगे। हमारी हवेली में रौनक भी हो जाएगी… हमारे बच्चे नहीं हैं तो इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि हम हंसी पसंद ही नहीं करते।
राहत सी हुई जब रिक्शा हवेली के फाटक पर पहुंचा। बाहर भी हरियाली खासी थी सुबह की चाय के समय से पहले तक यह जोड़ा अपने पौधों के झाडिय़ों, लताओ और पेड़ों के इर्द-गिर्द लगभग घूमता रहता। रबर के पाइप से उन्हें पानी देता रहता। कई जगह से जो टूटता सा दिखता।
रसोई घर से बाहर आई कमज़ोर मेज पर रखे प्यालों में भरी हुई थी चाय और प्लेट में थे बिस्किट जिन्हें चाय में डुबो कर कर खाते। हम सभी साथ बैठ कर बड़े ध्यान से सुनते पेड़ों की पत्तियों की खासियत। ‘जामुन की ये पत्तियां ब्लड शुगर का लेवल दुरूस्त रखती हैं। पान का पत्ता पाचन के लिए बहुत अच्छा होता है। बेल पत्थर से आंते साफ होती हैं। अमरूद के पत्तों से गले की तमाम समस्याओं का निदान होता है।’
हम सभी हर पेड़े-पौधे की पत्तियों के उपयोग से होने वाले लाभ की लंबी सूची सुनते रहते जब तक और भी लोग आ जाते। मोहल्ले के हताश-परेशान लोग भी इस सुबह-ए-महफिल में आ जुटते। इनमें किसी को दर्द है, चमड़ी का कोई रोग है, फोड़े-फुंसियां हैं। वह महिला और हकीम साहब इस उस पौधे से उन्हें पत्ते और फूल तोड़ कर,इस-उस इलाज के लिए देते साथ में उनकी कमेंटरी चलती रहती। ‘प्रकृति की गोद में हर रोज की अनियमितताओं के निदान की क्षमता हैं।’ आस-पास देखते हुए वे कहते, ‘एक ज़माना था जब इन मोहल्लों में क्या रईसी थी लेकिन आज तो सिर्फ $गरीबी है।’
उस रात अहाते में हम चारपाइयों पर सोए। एक अजीब सी खामोशी हर कहीं। कहीं आसपास से ही आ रही थीं। रह-रह कर कराहटे और चीखे। इस बुजुर्ग जोड़े ने भरोसा दिया, ‘जब की बेगम की डिलीवरी का समय बेहद करीब है… चिंता की कोई बात नहीं… एक नई जि़ंदगी को आने में समय और कुछ कोशिशें तो ज़रूरी हैं।’
उन्होंने हवेली के बाहर बने कमरों की ओर देखते हुए कहा। जहां जेब, अपनी बीवी के साथ रहता था। मिनट भर में ही यह जोड़ा एक जवान महिला को अंदर ले आया। वह पूरे पेट से थी। उसे एक चारपाई पर लिटा कर वे उसके हाथों और तलवों को सहलाते रहे। फिर उसकी सलवार-कमीज उस पर ही डाल दी।
हम लोगों को दिलचस्पी लेते देख कर उन्होंने हमें फौरन अंदर जाने और बैठकखाने में जाकर सोने की हिदायत दी।
‘हम अंदर क्यों सोएंगे?’
‘क्योंकि बच्चा आने को है… जिसे तुम सुबह ही देख सकोगे। हम लोग तो उसी काम में फंसे रहेगे।’
‘आपकी मदद क्या हम नहीं कर सकते?’
हमारे सवालों का जवाब वे दे पाते इसके पहले ही उस युवती की चीखें बढ़ती जा रही थीं। उसके बाद तो न जाने कितनी बार घर में इन दोनों ने अंदर-बाहर के कमरों तक आना-जाना किया। हम सभी अंदर आ गए थे। जेब वहीं था। उसे भी बगीचे में कभी इधर कभी उधर जाना पड़ता। कभी नीम और कभी अमरूद की पत्तियां वह लाता फिर उन्हें खौलाया जाता। इस सारे बंदोबस्त के दौरान न जाने कितनी बार हमें अंदर जाने को कहा जाता रहा। हम अंदर चले भी जाते लेकिन हम एक बड़ी खिड़की से देखते रहते उस औरत को तकलीफ में तड़पते हुए। यह जोड़ा उस औरत के उभरे हुए पेट पर तरह-तरह की जड़ी-बूटियों का लेप लगाते रहते और उसके पांवों की मालिश लेप से करते रहते। यह सब करते हुए वह जोड़ा थक जाता। वे ठहर जाते। थके हुए ये लंबी सांस लेते रहते। अकेला जेब अपनी पत्नी की मालिश करने लगता।
अचानक ज़ोरों की एक चीख फिर तनाव भरी शांति। सुनाई देता है नवजात शिशु का रोना। इसके बाद तो हम सब दौड़े बाहर की ओर। उस चारपाई की और जहां इस बुजुर्ग जोड़े ने शिशु को हाथ में ले रखा था। जबकि जेब अपनी पत्नी के पेट और टांगों के भीतरी हिस्सों पर इमली का लेप लगा कर मालिश कर रहा था। खून के धब्बे उछल कर उसके कपड़ों पर पड़े थे लेकिन उसे उसकी परवाह नहीं थी। उस माहौल में हर कहीं अस्तव्यस्त बिखरे कपड़े और साज-सामान भी उसने संभाल रखा था। और पत्नी की हल्की हो रही कराहट पर भी ध्यान दे रहा था। हर तरह से उसका वह ध्यान रखने की कोशिश कर रहा था। यह कहना मुश्किल है कि बच्चे के पैदा होने की समय की भयंकर तकलीफें नवजात शिशु को देखने के बाद खत्म सी हो गईं। जो हो, वह उसकी अच्छी देखभाल कर रहा था। उसकी पीठ पर मालिश कर रहा था। उसके बालों को सहला रहा था। तभी पास के ही मोहल्ले से एक बुजुर्ग महिला आई उसे नीम की पत्तियां और इमली की जड़ों की ही नहीं, बल्कि अपनी बिटिया के प्रसव में सहयोग की ज़रूरत थी और किसी दाई का बंदोबस्त नहीं हो सका था।
हकीम साहब और उनकी पत्नी ने अपनी ‘बुरी तरह थके’ होने की बात बताई। लेकिन अचानक उन्होंने जेब को साथ ले जाने की सलाह दे दी। ‘लेकिन वह तो मर्द है… क्या मेरी बेटी को इस हालत में पूरी तौर पर नंगा देखना उसके लिए उचित होगा?’
‘वह उसकी आंखें ढांप देगा… लेकिन वह एक नई जि़ंदगी इस दुनिया में लाने में तुम्हारी मदद करेगा।’
शायद यह बात जंच गई।
उस दिन के बाद से बेरोज़गार जेब किसी रोज़गारी की तुलना में ज्य़ादा कामयाब था।
उसकी पूरे शहर में चर्चा होने लगी। बच्चे का जन्म कराने वाला मर्द नौजवान!