शिक्षा इंसान को समझदार ही नहीं बनाती, बल्कि पैसा कमाने लायक बनाने के अलावा उसे ज़िन्दगी जीने का तरीक़ा भी सिखाती है। लेकिन आज जब पूरी दुनिया विज्ञान में हैरान कर देने वाले चमत्कारिक प्रयोग कर रही है, तब दुनिया के पहले शिक्षित देश और विश्व गुरु कहलाने वाले हिंदुस्तान में शिक्षा का स्तर बेहद गिरता जा रहा है। सवाल यह है कि शिक्षा के इस गिरते स्तर के लिए ज़िम्मेदार कौन है? मेरे ख़याल से इसके लिए किसी एक को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि इसके लिए कोई एक व्यक्ति या एक समाज ज़िम्मेदार है भी नहीं। मसलन, शिक्षा के गिरते स्तर के लिए न सिर्फ़ शिक्षक ज़िम्मेदार हैं, न सिर्फ़ विद्यार्थी ज़िम्मेदार हैं, न सिर्फ़ समाज ज़िम्मेदार है, न सिर्फ़ शिक्षा पद्धति ज़िम्मेदार है और न सिर्फ़ सरकारें ज़िम्मेदार हैं, बल्कि ये सब इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। और इनके अलावा मोबाइल, नशा, अपराध, क़ानून व्यवस्था, ख़ासतौर पर शिक्षा के लिए बनी क़ानून व्यवस्था भी ज़िम्मेदार हैं। लेकिन फिर भी अगर यह तय किया जाए कि शिक्षा के गिरते स्तर के लिए सबसे बड़ा ज़िम्मेदार कौन है? तो इसमें पाँच बड़े ज़िम्मेदार नज़र आएँगे। पहले नंबर पर सरकारें, दूसरे नंबर पर शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा के लिए बना क़ानून, तीसरे नंबर पर शिक्षक, चौथे नंबर पर पैरेंट्स और पाँचवें नंबर पर विद्यार्थी। बाक़ी सब चीज़ें इनकी वजह से ही शिक्षा में अड़चन और हानिकारक बनती नज़र आती हैं।

बहरहाल, अभी हाल ही में पूरे देश में बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट घोषित हुए हैं। सबसे पहले सरकारी नौकरी के लिए सबसे प्रमुख परीक्षा यूपीएससी का रिजल्ट घोषित हुआ और उसके बाद 10वीं और 12वीं बोर्ड की परीक्षाओं के रिजल्ट घोषित हुए। लेकिन जिस प्रकार से हरियाणा बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन के 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों का इस बार का रिजल्ट ख़राब रहा है, वो बेहद चौंकाने वाला और शर्मनाक है। हरियाणा बोर्ड में 12वीं में कुल 85.66 फ़ीसदी विद्यार्थी ही पास हुए हैं, जबकि कई स्कूलों का रिजल्ट काफ़ी निराशाजनक रहा है।
इससे भी हैरत की बात ये है कि हरियाणा के 18 स्कूल ऐसे हैं, जहाँ 12वीं का एक भी विद्यार्थी पास नहीं हो सका है। हरियाणा बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन ने इसे देखते हुए राज्य के इंटरमीडिएट स्कूलों का आकलन किया है, जिसमें 100 ऐसे स्कूल पाये गये हैं, जहाँ विद्यार्थियों का परीक्षा रिजल्ट बेहद ख़राब औसतन महज़ 35 फ़ीसदी ही रहा है। और जिस प्रकार से हरियाणा बोर्ड के 18 स्कूलों में एक भी 12वीं का विद्यार्थी पास नहीं हुआ है, उनकी स्थिति तो हरियाणा बोर्ड ही नहीं, हरियाणा सरकार को बताने में भी शर्म आ रही है। हरियाणा बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन के अध्यक्ष डॉ. पवन कुमार कह रहे हैं कि अधिकांश ऐसे स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या भी बहुत कम थी, कुछ जगहों पर केवल एक या दो विद्यार्थी ही थे। लेकिन जहाँ कम विद्यार्थी थे, वहाँ का तो रिजल्ट और अच्छा आना चाहिए; क्योंकि ऐसे में विद्यार्थियों को पढ़ने में आसानी रहती है और अपने अध्यापक से सवाल पूछने या अच्छी तरह पढ़ाई करने का मौक़ा भी ख़ूब रहता है। हालाँकि उन्होंने ये स्वीकार किया है कि परिणाम निराशाजनक रहे। उन्होंने कुल 13 विद्यार्थियों वाले एक स्कूल का उदाहरण भी दिया, जहाँ सभी विद्यार्थी फेल हो गये। इसके साथ ही बोर्ड ने इस प्रकार के ख़राब रिजल्ट आने पर चिन्ता व्यक्त करते हुए सुझाव दिया है कि ख़राब रिजल्ट वाले स्कूलों के अध्यापकों के ख़िलाफ़ कड़े क़दम उठाये जाने चाहिए और सम्बन्धित शिक्षा निदेशालय को इन स्कूलों और अध्यापकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए एक रिपोर्ट भी सौंप दी है।
बहरहाल, स्कूलों के ख़िलाफ़ और पढ़ाने वाले अध्यापकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी ही चाहिए; लेकिन क्या इसके लिए विद्यार्थी ज़िम्मेदार नहीं हैं? क्या उन विद्यार्थियों के माँ-बाप ज़िम्मेदार नहीं हैं? और क्या सरकार इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं है? क्या इसके लिए लचर क़ानून व्यवस्था ज़िम्मेदार नहीं है? मेरे कहने का मतलब यह है कि शिक्षा के गिरते स्तर और विद्यार्थियों की अवारागर्दी, माँ-बाप की लापरवाही, अध्यापकों की लापरवाही और क़ानूनी मजबूरी भी, स्कूल प्रबंधन की ढिलाई, शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा बजट को लेकर सरकार की कमी और विद्यार्थियों के पक्ष में बने लचर क़ानून की भी कमी ही है, जिसके चलते इतना ख़राब रिजल्ट हरियाणा बोर्ड में 12वीं के विद्यार्थियों का आया, जो इससे पहले कभी नहीं आया होगा। अध्यापकों की मजबूरी यह है कि वे विद्यार्थियों को क्लास में न आने या न पढ़ने पर पीट नहीं सकते। उन पर बहुत सख़्ती नहीं कर सकते। साल 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने साल 2015 में ही किशोर न्याय अधिनियम-2015 लागू किया, जिसके तहत अध्यापक यदि बच्चों को न पढ़ने या शैतानी करने पर मारपीट नहीं सकता और न पढ़ने के लिए ज़्यादा दबाव बना सकता है।
अगर कोई अध्यापक ऐसा करता है, तो विद्यार्थी के पैरेंट्स उस अध्यापक के ख़िलाफ़ इस क़ानून की धारा-82 के तहत थाने में एफआईआर दर्ज करा सकते हैं, जिससे अध्यापक के ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी। इसके पहले कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए की केंद्र सरकार राइट टू एजुकेशन एक्ट-2009 लेकर आयी थी, जिसकी धारा-17 के मुताबिक, कोई भी शिक्षक किसी भी विद्यार्थी को शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं कर सकता। इन क़ानूनों के अलावा भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 भी विद्यार्थियों की गरिमा और सुरक्षा के पक्ष में है, जिसके तहत हर व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है। ऐसे में विद्यार्थियों को किसी भी तरह से प्रताड़ित करने पर अध्यापकों के लिए धारा-82 के तहत सज़ा का प्रावधान तो है ही। धारा-82(1) के तहत विद्यार्थियों को शारीरिक दंड देने पर अध्यापक को 10,000 रुपये ज़ुर्माना भरना पड़ सकता है और तीन साल की जेल हो सकती है या दोनों ही हो सकते हैं। इसके अलावा धारा-82(2) के तहत अध्यापक को बर्ख़ास्त कर दिया जाएगा, जो कि अनिवार्य है। इसके साथ ही धारा-82(3) के तहत अगर अध्यापक / अध्यपाकों के जाँच में सहयोग न करने पर उन्हें तीन महीने की जेल और संस्था / स्कूल पर एक लाख रुपये का ज़ुर्माना लगाये जाने का प्रावधान है। ऐसे क़ानून बने होने पर कोई अध्यापक या स्कूल विद्यार्थियों को जबरन कैसे पढ़ा सकता है? बल्कि वे तो विद्यार्थियों की कमियाँ या ग़लतियाँ होने पर भी उन्हें मारने और सज़ा देने से बचना ही चाहेंगे।
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिनमें विद्यार्थियों को मारने-पीटने पर पैरेंट्स ही स्कूल जाकर अध्यापकों से लड़ने लगे हैं और कइयों ने तो अध्यापकों के ख़िलाफ़ एफआईआर तक दर्ज करायी है। एक वो ज़माना था कि जब बच्चा नहीं पढ़ता था या शैतानी करता था, तो स्कूल में जमकर पिटाई होती थी और जब यह बात घर वालों को पता चलती थी, तो घर में और पिटाई होती थी। यहाँ तक कि स्कूल में बिना ग़लती के भी पिटाई हो जाती थी; लेकिन कोई पैरेंट्स कभी अध्यापक से लड़ने नहीं जाते थे। उलटा और अगर कहीं कोई अध्यापक या क्लास टीचर रास्ते में पिता या दादा को मिल जाते थे, तो यह पूछते थे कि हमारा बच्चा ठीक से पढ़ रहा है कि नहीं? ऊपर से यह और कह देते थे कि उसे सुधारकर रखना। अगर नहीं पढ़े, तो मारना। तब न घर में बहस करने की हिम्मत होती थी और न स्कूल-कॉलेज में, चाहे ग़लती हो या न हो। आत्महत्या तो उस समय विद्यार्थियों के लिए बहुत दूर की बात होती थी। लेकिन अब तो अध्यापकों के ज़रा-सी बात कह देने भर से विद्यार्थी उन्हें पीटने को तैयार हो जाते हैं। कई जगह ऐसे मामले सामने आ भी चुके हैं। स्कूल जाना या नहीं जाना, क्लास रूम में बैठना या नहीं बैठना, ये सब विद्यार्थियों की मर्ज़ी पर निर्भर हो चुका है। अध्यापक अपनी इज़्ज़त और जान बचाने के लिए विद्यार्थियों से कुछ नहीं कह पाते या उन्हीं विद्यार्थियों से कहते हैं, जो पढ़ना चाहते हैं। माँ-बाप भी अब बच्चों से कुछ पूछना उचित नहीं समझते, वे सिर्फ़ रिजल्ट देखने के लिए साल भर इंतज़ार करते हैं।
लेकिन समस्या यह भी है कि जो माँ-बाप अपने बच्चों पर पढ़ने का ज़्यादा दबाव बनाते हैं, उनमें से कई विद्यार्थी आत्महत्या जैसा आपराधिक क़दम उठा लेते हैं। इसके चलते पैरेंट्स भी डरे-सहमे रहते हैं कि कहीं उनका बच्चा या बच्ची कोई ग़लत क़दम न उठा ले। आँकड़ों के मुताबिक, साल 2021 में 1,64,033 विद्यार्थियों (छात्र-छात्राओं) ने देश में आत्महत्या की थी, तो साल 2022 में आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़कर 1,70,924 पहुँच गयी। साल 2022 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते एक दशक में छात्रों में आत्महत्याओं के मामलों में 50 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई, जबकि छात्राओं की आत्महत्याओं के मामलों में 61 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई।
बहरहाल, अगर ठीक से शिक्षा के गिरते स्तर और विद्यार्थियों में बढ़ते आत्महत्या के मामलों पर ग़ौर किया जाए, तो कई कमियाँ दिखायी देंगी, जिन्हें ठीक करने की ज़रूरत है। इस मामले में किसी एक को पूरी तरह ज़िम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि अगर सरकारें चाहें, तो इन कमियों को बड़ी आसानी से दूर कर सकती हैं। लेकिन कई राज्यों में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा, शिक्षा के बजट की कमी और बंद हो रहे स्कूलों जैसे मुद्दों पर अगर ध्यान दिया जाए, तो शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो सकता है। इसके अलावा देश में एक शिक्षा नीति, एक पाठ्यक्रम भी लागू होना चाहिए, जिससे ग़रीब और अमीर सबके बच्चे न सिर्फ़ एक जैसी शिक्षा हासिल कर सकें, बल्कि उनमें भेदभाव और हीन भावना पैदा न हो और शिक्षा का स्तर सुधर सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)