सुकरात का जन्म 469 ईसापूर्व माना जाता है और महात्मा गांधी का जन्म सन् 1869 में हुआ। दोनों के समय में 2200 वर्षों से ज्यादा का अंतर है, लेकिन उपरोक्त कथन पर दोनों का एक जैसा मत और विश्वास रहा है। सुकरात जहां एक हद तक सैद्धान्तिक प्रतिपादन पर अटक जाते हैं वहीं गांधी उपरोक्त कथन को न सिर्फ स्वयं पर चरितार्थ करते हंै बल्कि पूरे भारतीय समाज को इसके लिए तैयार भी करते हैं। वे अपने औपनिवेशिक शासन जिसने पिछले 150 वर्षों से भारत को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक तौर पर विखंडित कर देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी को हानि तो नहीं पहुंचाते हंै बल्कि उसके प्रति पे्रम भाव रखने की पैरवी भी करते है। वे भारत के विभाजन के बावजूद अंग्रेजों से घृणा नहीं करते। वे सुकरात को चरितार्थ तो करते हैं परन्तु वे यह भी कहते हैं कि मेरे पास अपना मौलिक कुछ भी नहीं है।
मैंने जो कुछ भी लिया है, वह भारतीय संस्कृति में पहले से मौजूद था।
वे आज के गैर निवासी भारतीय (एन आर आई) नहीं थे, जो अधिक विदेशी होकर भारत लौटता है और नख से शिख तक किसी नए ढांचे में ढला मालूम पड़ता है, हास्यास्पद होने की हद तक। वे जब अंतिम रूप से भारत लौटते हैं तो एक परिपूर्ण भारतीय के रूप में प्रकट होते है। उन्हें विदेश छोडऩे का कोई पछतावा नहीं है और भारत लौटने का कोई अभिमान भी नहीं है। वे भारत पर कृपा करने नहीं लौटते हैं, जैसा कि वर्तमान अधिकांश एनआरआई करते हैं, बल्कि वे अपने देश को और भी बेहतर ढंग से जानने बूझने के लिए स्वयं को समर्पित कर देते हैं। गौर करिए गांधी 9 जनवरी 1915 को भारत लौटे और 30 जनवरी 1948 को अपनी हत्या के दिन तक केवल एक बार 1931 में चार महीनों के लिए गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंग्लैंड गए थे। भारत में बिताए अपने इन अंतिम 33 वर्षों में से करीब 6 वर्ष उन्होंने ब्रिटिश जेलों में बिताए। 7 वर्ष साबरमती आश्रम में और 6 वर्ष के करीब सेवाग्राम (वर्धा) में गुजारे। बाकी के 14 वर्ष उन्होंने घूमते हुए बिताए। अनेक आंदोलनों में भागीदारी और उनकी शुरुआत करते हुए, भारत के अपने इन 33 वर्षों के निवास में उन्होंने 2500 के करीब स्थानों का भ्रमण किया। इन सबके चलते (और इंग्लैंड व दक्षिण अफ्रीका में बिताए वर्षों को भी जोड़ लें तो) उन्होंने 70000 से अधिक पृष्ठों का लेखन किया। इसमें से करीब 50000 पृष्ठों का प्रकाशन संपूर्ण गांधी वांग्मय के 100 अंकों में हो चुका है। इसके अलावा उन्होंने 30000 से ज्यादा पत्रों का जवाब भी दिया।
हम गांधी के जीवन को चार कालखंडो में बांट सकते है। पहला 1889 से 1914 दक्षिण अफ्रीका में। दूसरा सन् 1915 से 1919 तक भारत में। इस दौरान वह अधिकांशत: भ्रमण पर रहे, अपवाद स्वरूप चम्पारण को छोड़कर। तीसरा कालखंड है 1920 से 1942 तक का। यह उनका सर्वाधिक सक्रिय जीवनकाल है। और चौथा 1944 से 1948 तक।
यह उनकी दार्शनिक परिपक्वता के साथ ही साथ मोहभंग का काल भी रहा है। उन्हें लेकर एक और विचार भी उठता है, और महसूस होता है कि उनकी निर्मति अनायास नहीं है। वे स्वयं को सायास या सप्रयास विकसित करते हैं। इसलिए गांधी से महात्मा और अंतत: राष्ट्रपिता बनने तक का उनका सफर बेहद दिलचस्प और सारगर्भित भी है। उन्हें महात्मा की पदवी अपने समय के महानतम विचारक रवींद्रनाथ टैगौर देते हैं और राष्ट्रपिता का नाम व सम्मान देते हैं, नेताजी सुभाषचंद्र बोस। दोनों के संबंधों को लेकर आज तमाम बातें हो रही हैं, और कमोवेश इन्हें एक दूसरे के दुश्मन की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। इस सबसे समझ में आता है कि गांधी से चाहे जितनी भी मतभिन्नता रही हो वे परिवार यानी तत्कालीन हिन्दुस्तान के सबसे वृद्ध व्यक्ति न होते हुए भी सबके बुजुर्ग के रूप में स्थापित और मान्य हो गए थे। अपनी मृत्यु वाले दिन (30-01-1948) सुबह उन्होंने मनु बहन गांधी से कहा था, ”मैं देख रहा हूँ कि मेरा प्रभाव मेरे निकट रहने वालों पर से भी उठता जा रहा है। प्रार्थना तो आत्मा को साफ करने की झाडू है। मैं प्रार्थना में अटल श्रद्धा रखता हूँ। ऐसी प्रार्थना करना जिस किसी को पसन्द नहीं तो फिर उन्हें चाहिए कि मेरा त्याग कर दें। इसी में दोनों का भला है।
यह सब देखने के लिए भगवान अब मुझे अधिक न रखे, यही चाहता हूँ।’’ इसके बाद उन्होंने मनु बहन से सुबह जो भजन सुना उसके बोल थे, ”थाके न थाके छतांय हो / मानवी न लेजे विसामों।।’’ अर्थात तू चाहे थका हो या न थका हो / हे मनुष्य तू विश्राम मत करना ! इसी को ध्यान में रखते हुए वे अपना पूरा दिन पूरा जीवन बिताते भी रहे थे। वे कभी थके ही नहीं। इसी दिन दोपहर को वे कहते हैं, ”जहाँ मैं देखता हूँ, वहीं जैसे यादव आपस में कट मरे वही हमारी स्थिति है। हम लोग आपस में झगड़ा कर समाज की कितनी हानि कर रहे हैं, इसका ख्याल किसी को नहीं आता।’’ शाम होते न होते एक मुलाकात को लेकर वे कहते हैं, ”उनसे कहों यदि जिन्दा रहा, तो प्रार्थना के बाद टहलते समय बातें कर लेंगे।’’ और उसी दिन देर शाम पंडित नेहरु जो भारत के प्रधानमंत्री भी थे। बोल नहीं पा रहे थे। वे सारी हिम्मत बटोरकर बोले ”हमारे बापू…’’ फिर एक गहरी साँस छोड़कर सिसकते हुए उन्होंने कहा ”बापू अब हमारे पास नहीं रहे।’’ यह महज एक महान व्यक्ति का अवसान नहीं था, हमारे पिता हमारे बुजुर्ग की अंतिम विदाई भी थी। उनका जीवन का चक्र पूरा हुआ !
उनके निधन पर प्रख्यात हिन्दी कवि व लेखक मुक्तिबोध ने कहा था, ”पहली बार, भारत के इतिहास में करोड़ों भूखेजनों को महत्व देने वाला इनका सगा बनने वाला, एक व्यक्ति सम्मुख आया जिसने उसी गरीब दबी-कुचली जनता को नैतिक साहस प्रदान कर क्या से क्या बना दिया! उस नैतिकतापूर्ण जनशक्ति के आघात से, ब्रिटिश साम्राज्य चूर-चूर हो गया।
नये भारत के उस प्रणेता की मृत्यु भी उसी शहीदाना तरीके से हुई। बिस्तर पर मरते या चलते हुए हार्टफेल होने के बजाए, यह महान आत्मा, हमारा राष्ट्रपिता रामनाम का पाठ करते हुए एक तुच्छ हिन्दू सम्प्रदायवादी की गोली का शिकार हुआ।’’ गौरतलब है मुक्तिबोध मूलत: माक्र्सवादी चिंतन के प्रति झुकाव के लेखक माने जाते हैं। गांधी वस्तुत: विचारधाराओं के विवाद से ऊपर उठ चुके थे। वे अधिकांश मसलों पर अपनी बेहद स्पष्ट एवं बेबाक राय रखते थे।
यदि राष्ट्रीयता, जो कि आजकल सबसे गरम विषय है, पर उनके विचार देखें तो समझ में आता है कि वे संकीर्ण राष्ट्रवादिता के घोर विरोधी थे। आमतौर पर हम यह कहते हैं कि ”और किसी का चाहे जो बिगड़े या चाहे जितना नुकसान हो भारत का भला तो होना ही चाहिये। या मैं अपने देश के साथ हूँ, चाहे फिर वह सही करे या गलत। परंतु गांधी जी के भारत प्रेम में किसी दूसरे देश के प्रति नफरत की कोई गुंजाइश नहीं है। वे कहते थे, ”मेरा देश जिसे मैं ठीक रखूंगा या करूंगा’’ और ”सारी मानव जाति के भले के लिए, और उसी के एक हिस्से के तौर पर भारत का भला।’’ वे अपनी तरह के अनूठे राष्ट्रवादी थे और अपने राष्ट्र को लेकर अपने विचारों की स्थापना को लेकर उन्होंने कड़ी मेहनत की थी। वे भाषा, धर्म और सांस्कृतिक भिन्नताओं में मेल बैठाकर एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना कर रहे थे, जो सारी दुनिया का आदर्श बन सके ऐसा ही धर्म को लेकर भी था।
वे इस बात में विश्वास करते थे कि, ”शब्द मारने वाले हैं, भाव जीवन देने वाला है।’’ वे बिना सोचे विचारे शास्त्रों पर भी विचार के हिमायती नहीं थे। उनका मानना था, ”हर धर्म के हर नियम को आज के बौद्धिक युग में तर्क की कसौटी पर खरा उतरना होगा।’’ इतना ही नहीं एक कदम और आगे बढ़कर वे कहते थे, ”और अगर उसे (धर्म) सार्वभौम स्वीकृति पानी है, तो सार्वभौम न्याय की कसौटी पर भी खरा उतरना होगा।’’ इसीलिए वे भाव व भावना के हिमायती थे। संकीर्णता से उनका जैसे बैर ही था।
अनेक मामलों में उनका रवैया या व्यवहार परिवार के बुर्जुग जैसा ही था। हमारा दुर्भाग्य रहा कि हमने उन्हें समझने का गंभीर प्रयास ही नहीं किया और आज भी वही दोहरा रहे हैं। घर का बूढ़ा कई बार स्वयं को अकेला व बहिष्कृत सा समझने लगता है। जबकि वास्तविकता यह है कि वह तो नींव होता है और उस पर हम एक भवन की तरह खुद को विकसित करते हैं। गांधी भी ऐसे बुढ़ऊ हैं, जिन्हें बिसराया नहीं जा सकता। परंतु समस्या यह है कि हम उन्हें अपनाने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे हैं। वे कहते थे, ”सहिष्णुता हमारा लक्ष्य होना चाहिए। अगर सभी एकमत हो जाएं तो सहिष्णुता के इस उदारगुण की गुंजाइश ही कहां रह जाए। फिर भी सब को एकमत बना सकने का प्रयास आकाश – पुष्प को पा सकने के ही समान व्यर्थ है।’’ वे मनुष्य व उसकी मनुष्यता में निहित विविधता को ही सत्य मानते थे।