बीसीसीआई के अध्यक्ष सौरभ गांगुली का कार्यकाल बढ़ाने की तैयारी में है। बोर्ड ने आम बैठक में अपने पदाधिकारियों के कार्यकाल को बढ़ाने के बारे में मंज़ूरी दे दी है। ध्यान रहे सौरभ गांगुली ने 23 अक्टूबर को बीसीसीआई के अध्यक्ष का पद सँभाला था और उन्हें अगले साल यह पद छोडऩा होगा। पर यदि उन्हें कार्यकाल बढ़ाने की छूट मिल जाती है, तो वे 2024 तक इस पद पर रह सकते हैं। बीसीसीआई ने तो यह फैसला ले लिया है, लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत की मंज़ूरी के बिना इसे लागू नहीं किया जा सकेगा।
पिछले दिनों बीसीसीआई की बैठक में लोढ़ा समिति की सिफारिशें में बदलाव को मंज़ूरी दे दी गई है। इसके बाद उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों के कार्यकाल में बढ़ोतरी की जा सकेगी। बीसीसीआई इन सभी संशोधनों को सर्वोच्च अदालत की मंज़ूरी के लिए भेजेगी। बीसीसीआई के मौज़ूदा संविधान के अनुसार, यदि पदाधिकारी ने बीसीसीआई या इसकी राज्य इकाई में कुल मिलाकर तीन साल के दो कार्यकाल पूरे कर लिये हैं, तो उसे तीन साल के लिए किसी भी पद पर नहीं लिया जा सकेगा। इस अवधि को ‘कूलिंग’ अवधि का नाम दिया गया है। इन नियमों के तहत गांगुली अगले साल जुलाई तक ही इस पद पर रह पाएँगे। वे पाँच साल तीन महने तक बंगाल क्रिकेट संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। 23 अक्टूबर को वह बीसीसीआई के अध्यक्ष बने। ऐसे में वे इस पद पर वह केवल नौ महीने ही रह पाएँगे। देखना ज़रूरी है कि आिखर सर्वोच्च अदालत ने इस प्रकार के नियम क्यों लागू किये थे। वे क्या हालात थे, जिनके कारण देश की सर्वोच्च अदालत को बीसीसीआई के काम में दखल देना पड़ा। देश में क्रिकेट ही नहीं, बाकी खेल संगठनों पर इक्का-दुक्का लोगों का कब्ज़ा होकर रह गया था। जो एक बार अध्यक्ष बना व दशकों तक उस कुर्सी को छोड़ता ही नहीं था। सारे खेल संगठन एक-दो लोगों की बपौती बनकर रह गये थे। देश में खेलों का स्तर गिरता जा रहा था और ओलंपिक खेलों में भारत किसी भी टीम स्पर्धा और एथलेटिक्स में बहुत ही खराब प्रदर्शन कर रहा था। इसके अलावा क्रिकेट संघ खुद को देश कानून और नियमों से कहीं ऊपर समझ रहा था। कई स्थानों पर जहां क्रिकेट के अंतर्राष्ट्रीय मैच करवाये गये वहाँ पर ड्यूटी पर तैनात किये गये सुरक्षा कर्मचारियों के बिल बरसों तक नहीं भरे गये। हालात ऐसे थे कि छोटे-मोटे प्रशासनिक अफसर तो इनके काम में दखल तक नहीं दे सकते थे। यह भी आरोप लगे कि मोहाली और धर्मशाला में बने क्रिकेट स्टेडियम नियमों, कानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर बनाये गये।
इसकी वजह थी, बीसीसीआई में तब प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के नेता और नौकरशाह काबिज़ थे। राजनीतिक मंचों पर एक-दूसरे के कट्टर आलोचक क्रिकेट संघ में आते ही समर्थक बन जाते थे। इस तंत्र को तोडऩे के लिए लोढ़ा समिति बनायी गयी थी। इसी समिति ने कुछ सिफारिशें की थीं, जिनको •यादातर खेल संगठनों ने मान लिया, पर बीसीसीआई ने इन्हें इस आधार पर मानने से इन्कार कर दिया कि सरकार से कोई वित्तीय मदद नहीं लेते, इस कारण सरकार इसमें दखल नहीं दे सकती। पर देश की सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी खेल संगठन सरकार और देश से ऊपर नहीं है। इस वजह से उसे उन सभी नियमों और कानूनों का पालन करना होगा, जो बाकी खेल संगठन करते हैं। अब यदि बीसीसीआई को अपने पदाधिकारियों का कार्यकाल बढ़ाने की मंज़ूरी मिल जाती है, तो बाकी खेल संगठनों को कैसे रोका जा सकता है। फिर पहले जैसे ही हालात हो जाएँगे, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। लोढ़ा समिति की सिफारिशों के चंगुल से बचने के लिए कुछ खेल संगठनों ने उन्हें ‘ट्रस्ट’ में या ‘फाउण्डेशन’ में तब्दील कर लिया है। अब वहाँ चुनाव नहीं होते ‘ट्रस्टी’ नियुक्त होते हैं। सरकार को इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। यह भी देखना होगा कि क्या ये ‘ट्रस्ट’ या ‘फाउण्डेशन’ देश के लिए टीमों का चयन कर सकते हैं? क्या इनकी सिफारिश पर खिलाडिय़ों को किसी प्रकार की वित्तीय सहायता सरकार दे सकती है या नहीं? ये कुछ नये मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।