पिछले पाँच-छ: दशकों से देश के चुनावों में ग़रीबी सबसे प्रमुख मुद्दा रहा है। लेकिन तमाम राजनीतिक दलों की सरकारें इस मुद्दे पर गम्भीरता से काम करने से बचती रही हैं। सवाल यह है कि क्या सरकारें ग़रीबी ख़त्म करना ही नहीं चाहतीं? शायद! क्योंकि अगर ग़रीबी ख़त्म हुई, तो उनका यह प्रमुख चुनावी मुद्दा ख़त्म हो जाएगा। ज़ाहिर है भारत में ग़रीबी को चुनावी मुद्दा बनाकर तमाम सियासी दल मत (वोट) बटोरने का काम करते हैं और यही कारण है कि किसी भी दल सरकार यह नहीं चाहती कि देश ग़रीबी से ख़त्म हो। जबकि देश में आँकड़ों की बाज़ीगरी से काग़ज़ों में ग़रीबी कम हो रही है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की वर्ष 2006 से 2016 तक के सर्वे के मुताबिक, भारत में क़रीब 27 करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी रेखा से बाहर निकले हैं। बावजूद इसके आज क़रीब 37 करोड़ से अधिक लोग ग़रीब हैं।
देश में तेज़ी से बढ़ती ग़रीबी के अनेक कारण हैं, जिनमें सबसे प्रमुख कारण बढ़ती जनसंख्या, भ्रष्टाचार, खेती सुधारों में शिथिलता, रूढि़वादी सोच, भयंकर जातिवाद, चरम पर बेरोज़गारी, अशिक्षा, बीमारियाँ और हर लगभग 10 साल में महामारी का आना आदि शामिल हैं। स्वंतत्रता के बाद भूमि सुधारों के लिए जो क़दम उठाये गये वे अपर्याप्त हैं। इसके अलावा सरकार की ग़रीब लोगों के लिए बनायी जाने वाली योजनाओं की अदूरदर्शिता भी एक कारण है। एक कृषि प्रधान देश में किसानों की दुर्दशा देश के लिए बेहद शर्म की बात है। अगर चार-पाँच फ़ीसदी को छोड़ दें, तो आज किसान ही सबसे ज़्यादा ग़रीब हैं।
देश की जनसंख्या और महँगाई, दोनों में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है; जबकि भूमि भी सीमित है और किसानों से खाद्यान्न भी सस्ते में ख़रीदकर व्यापारी उन्हें ऊँचे दामों में बेचते हैं। श्रम उत्पादकता और प्रति व्यक्ति आय में लगातार कमी आ रही है। इससे आय की असमानता बढ़ रही है। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि जितनी सम्पत्ति देश के दो-तीन फ़ीसदी लोगों के पास है, उतनी ही सम्पत्ति बाक़ी 97-98 फ़ीसदी लोगों के पास है। एक अनुमान के मुताबिक, आज देश में क़रीब 20 फ़ीसदी लोगों के पास देश कि कुल 80 फ़ीसदी सम्पत्ति है। जबकि देश की 80 फ़ीसदी जनता के पास मात्र 20 फ़ीसदी ही है। आज लोकतंत्र के मन्दिर संसद में क़रीब 350 करोड़पति सांसद है। ये माननीय अपने हितों और स्वार्थों को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाते-बिगाड़ते रहते हैं। इसीलिए देश में आर्थिक विषमता गहराती जा रही है, जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है या सरकार नियंत्रण करना ही नहीं चाहती। अमीरों के पास जुड़े हुए वैध और अवैध धन का लाभ ग़रीबों को नहीं मिल पा रहा है। लगातार बढ़ती अमीरी ग़रीबी-निवारण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बन गयी है। तमाम सरकारें ग़रीबी निवारण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाकर उन पर अरबों रुपये ख़र्च करती हैं, किन्तु इनका पूरा लाभ ग़रीबों तक नहीं पहुँच पाता। यही कारण है कि ग़रीब लोग अपनी आने वाली पीढिय़ों को खेती-किसानी और गाँव से दूर करके शहरों और महानगरों में अन्य काम-धन्धों में लगाना चाहते हैं।
पिछले दो-तीन दशकों में देश में तेज़ी से हुए भ्रष्टाचार और करोड़ों-अरबों रुपये के घोटालों ने ग़रीबी को और अधिक बढ़ा दिया है। देश में बढ़ते पूँजीवाद के कारण नव उदारवादी और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की नीतियाँ ग़रीबों के लिए अहितकारी साबित हुई हैं। नेताओं और नौकरशाहों के तेज़ी से बढ़ते वेतन, भत्ते और अन्य सुविधाओं के अलावा तथा उनके द्वारा एकत्रित अरबों की अवैध सम्पत्ति से अमीरी और ग़रीबी की खाई दिन-दिन बढ़ती जा रही है। क्या इसके लिए सरकार की आर्थिक नीतियाँ ज़िम्मेदार नही हैं?
सरकार अगर वाक़र्इ ग़रीबों के लिए कुछ करना चाहती है, तो सर्वप्रथम पर्याप्त भूमि, जल, शिक्षा, स्वास्थ्य, ईंधन और परिवहन सुविधाओं का विस्तार करे। प्रत्येक वर्ष इसकी समीक्षा और मूल्यांकन किया जाए, साधनों के निजी स्वामित्व, आय और साधनों के असमान वितरण एवं प्रयोग पर सख़्त नियंत्रण की आवश्यकता है।
ग़रीबी निवारण कार्यक्रमों का अधिकतम लाभ अमीरों के बजाय ग़रीबों को पहुँचाने का ठोस प्रयास होना चाहिए। इसके लिए ग़रीबों के कल्याण के लिए आर्थिक नीतियाँ बनाते हुए ग़रीबों को दो वर्गों में बाँटा जाए। एक वर्ग में वे ग़रीब हों, जिनके पास कोई कौशल है और वे स्वरोज़गार कर सकते हैं। दूसरे वर्ग में वे ग़रीब हों, जिनके पास कोई कौशल या प्रशिक्षण नहीं है और वे केवल मज़दूरी पर ही आश्रित हैं। प्रत्येक वर्ग की उन्नति के लिए अलग नीति बने। अमीरों और पूँजीवाद को बढ़ावा देने वाली नीतियों में बदलाव लाया जाए, साथ ही सरकार को संस्थानों को बड़े कारोबारियों को नहीं सौंपना चाहिए और न ही निजीकरण करना चाहिए। ताकि ग़रीबी और अमीरी के बीच की खाई को पाटा जा सके। देश को ग़रीबी के कलंक से छुटकारा मिल सके और महात्मा गाँधी के भारत नवनिर्माण का सपना साकार हो सके। आज देश में महामारी के मद्देनज़र किये गये लॉकडाउन से पैदा हुए हालात भी कहीं-न-कहीं ग़रीबी के लिए ज़िम्मेदार हैं। इन हालात से निपटने के उपाय सरकार नहीं कर रही है, जबकि उसके हाथ में है कि वह स्थिति में सुधार करे और बेरोज़गार हाथों को काम दे। सिर्फ़ सत्ता हथियाने के लिए बयानबाज़ी करने से देश नहीं चल सकता, उसके लिए उद्यम की ज़रूरत है, जिसकी इन दिनों काफ़ी कमी है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर सरकार का लोगों से, उनकी समस्याओं और ग़रीबी से कोई सरोकार नज़र नहीं आता। सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक प्रेमसिंह सियाग कहते हैं कि देश के ज़्यादातर संसाधनों और पूँजी निर्माण की प्रक्रियाओं पर उच्च जातियों का क़ब्ज़ा है। निम्न जातियों के साथ बड़े स्तर पर भेदभाव किया जाता है। देश में भयंकर जातिवाद है। निम्न वर्ग के लिए तमाम संसाधन हासिल करने की कोशिशों को नाकाम कर दिया जाता है। सरकारें भी उच्च वर्गों के साथ खड़ी दिखती हैं और निम्न वर्ग को पूँजी निर्माण की प्रक्रिया में मज़दूर से ऊपर उठने नहीं दिया जाता है। ग़रीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए सबसे बड़ा रोड़ा जातिगत भेदभाव है। उच्च वर्ग के लोग नौकरी देने में अपनी जाति को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन अगर मज़दूरों की ज़रूरत पड़े और अपनी जाति में न मिले, तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (एससी, एसटी) के ऊपर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को तरजीह दे दी जाती है।
मेरे विचार से एससी और एसटी के लोगों के जीवन में आज़ादी के बाद जो थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया है, वो सिर्फ़ आरक्षण की वजह से आया है। लेकिन आरक्षण ख़ात्मे की प्रक्रिया ने ग़रीबी के दुष्चक्र को तोडऩे की प्रक्रिया पर लगभग रोक ही लगा दी है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय ग़रीबों को मध्यम वर्ग तक का सफ़र तय करने में सात पीढिय़ों तक संघर्ष करना पड़ता है। सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में एससी और एसटी की जनसंख्या क़रीब 24 फ़ीसदी है। लेकिन ग़रीबी की रेखा के नीचे की कुल जनसंख्या में क़रीब 72 फ़ीसदी लोग एससी और एसटी के हैं। मसलन तीन-चौथाई भारत के ग़रीब एससी और एसटी से ताल्लुक़ रखते हैं। जातिगत भेदभाव की ज़ंजीरे तोडऩे की जद्दोजहद में अति पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) ने आज़ादी के बाद काफ़ी हद तक कामयाबी हासिल की। इसलिए छोटे-मोटे पूँजी निर्माण के क्षेत्र में ख़ुद को स्थापित करके ग़रीबी के दुष्चक्र को तोड़कर मध्यम वर्ग में काफ़ी संख्या में जगह बनाने में कामयाब हुआ है।
संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की सन् 2005-06 की रिपोर्ट के मुताबिक, उस समय भारत में क़रीब 64 करोड़ लोग ग़रीब थे। 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2005 से सन् 2015 के बीच तक़रीबन 37 करोड़ लोग ग़रीबी से बाहर आये। यानी ग़रीब घटकर 28 फ़ीसदी रह गये थे। इस परिवर्तन में तत्कालीन सरकार द्वारा चलायी गयी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (नरेगा), जो कि बाद में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) कहलायी; ने अहम भूमिका निभायी और रोज़गार सृजन की नीतियों के कारण लोगों को हर साल नये रोज़गार मिले। भारत में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से जुड़े रिसर्च स्कॉलर्स की सोशल फैक्टर को ध्यान में रखते हुए ग़रीबी और रोज़गार के आँकड़ों पर अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2015 के बाद केंद्र की मोदी सरकार द्वारा मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्मार्ट गाँव, स्मार्ट सिटी, आत्मनिर्भर आदि तमाम योजनाएँ शुरू की गयीं; लेकिन अव्यवहारिकता, सरकारी झंझटों और तमाम ख़ामियों की वजह से नये रोज़गार पैदा करने में लगभग सभी योजनाएँ नाकाम ही रहीं। रही-सही क़सर संस्थानों के निजीकरण के त्वरित फ़ैसले से पूरी हुई और बेरोज़गारी बढ़ती गयी। बड़े पैमाने पर सरकारी संस्थानों में होने वाली सरकारी भर्तियों पर ताला लगाकर संस्थानों में छँटनी की तलवार लटका दी गयी। जो थोड़ी-बहुत रिक्तियाँ निकलीं भी, वो भाई-भतीजावाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गयीं। इससे ग़रीबों और आरक्षित वर्ग को लाभ लेने से वंचित कर दिया गया। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट बताती है कि अप्रैल, 2020 से अप्रैल, 2021 तक तक़रीबन 23 करोड़ लोग मध्यम वर्ग से दोबारा ग़रीबी के दुष्चक्र में फँस चुके हैं। पिछले पाँच वर्षों से विकास की गंगा उलटी बहने लगी। नोटबन्दी, जीएसटी, महँगाई और कोरोना महामारी के चलते दो बार किया गया लॉकडाउन आदि इसके प्रमुख कारण हैं। इन वर्षों में करोड़ों लोग बेरोज़गार हुए हैं और सैकड़ों छोटे-मोटे धन्धे चौपट हो गये।
कुल मिलाकर वर्तमान में ग़रीबों की संख्या क़रीब 50 करोड़ पहुँच चुकी है। इस दौरान जो मध्यम वर्ग से ग़रीबी की खाई में गिरे हैं, उनमें ज़्यादातर ओबीसी के लोग हैं। पिछले एक साल में संगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में से क़रीब 50 फ़ीसदी की या तो नौकरी चली गयी या उनका वेतन आधा कर दिया गया। जिन पुरुषों की नौकरी गयी, उनमें से मात्र सात फ़ीसदी पुरुषों और क़रीब 46 फ़ीसदी महिलाओं को दोबारा नौकरी मिल सकी है। भारत में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों की संख्या तक़रीबन 40 करोड़ है। असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों को सामाजिक वर्गीकरण की दृष्टि से देखा जाए, तो ज़्यादातर हिस्सा निम्न वर्ग का ही नज़र आएगा।
लेकिन संख्याबल के हिसाब से इनका औसत सरकारी नौकरी की तरह यहाँ भी काफ़ी कम है। पिछले क़रीब पाँच-छ: वर्षों में लिये गये फ़ैसले और सरकारी नीतियाँ सामाजिक वर्गीकरण के हिसाब से पूँजी वितरण को मदद करने वाले रहे हैं। कुछ सीमित लोगों का ही संसाधनों और पूँजी निर्माण की प्रक्रिया पर एकाधिकार रहने से इन्होंने जमकर लाभ उठाया और जो निम्न वर्ग के लोग मध्यम वर्ग में आये थे, उनको वापस ग़रीबी में धकेल दिया गया। दूसरी ओर, आज गाँव में कृषि उत्पादन अपर्याप्त हैं और वहाँ आर्थिक गतिविधियों का अभाव है। इन क्षेत्रों की ओर ध्यान देते हुए कृषि क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत है, ताकि मानसून पर निर्भरता कम हो। आज बैंकिंग, उधार (क्रेडिट) क्षेत्र, सामाजिक सुरक्षा, उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्रों को बढ़ावा देने और ग्रामीण विकास में सुधार करने एवं स्वास्थ्य, शिक्षा पर अधिक निवेश किये जाने की ज़रूरत है, ताकि चहुँतरफ़ा विकास हो सके। आर्थिक वृद्धि दर बढ़ सके। आर्थिक वृद्धि दर जितनी अधिक होगी, ग़रीबी उतनी ही कम हो जाएगी।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)