भारत 29 वर्ष की औसत आयु के साथ दुनिया का सबसे युवा देश बन गया है। 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमारी युवा आबादी के सही प्रशिक्षण और शिक्षा के साथ इस जनसांख्यिकीय लांभाश का लाभ उठाया जा सकता है।
वर्तमान एनडीए सरकार के तहत शिक्षा की समग्र गुणवत्ता में कमी आई है। केंद्र सरकार द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण के अनुसार प्राथमिक और उच्च शिक्षा के बजटीय आवंटन में कमी, उच्च स्तरीय शिक्षा में योग्य शिक्षकों की कमी, पूरे बुनियादी ढांचे में कमी, तर्क, बहस और विचारशीलता के केंद्रों के प्रति असंतोष (संघ परिवार कर विचारधारा का उत्थान) के कारण शिक्षा की श्रेष्ठता पर प्रहार हुआ है जिसके के कारण हमारे स्नातक रोजग़ार की क्षमता 10 फीसद से घटकर पांच फीसद हो गई है।
2015-16 में समग्र शिक्षा बजट 82,771 करोड़ रुपए से घटकर 69,074 करोड़ हो गया। यूपीए सरकार के दौरान 2012-13 में योजना आवंटन में 18 फीसद की वृद्धि हुई और 2013-14 में 8.03 फीसद की बढ़ोतरी हुई परंतु एनडीए सरकार नें 2015-16 में योजना आवंटन में 24.68 फीसद की कमी कर दी। यहां बोर्ड में भारी कटौती हुई। सर्व शिक्षा अभियान में 22.14 फीसद की कमी, मिड डे मील योजना में 16.14 फीसद, सेकेण्डरी शिक्षा के माध्यमिक शिक्षा अभियान में 28.7 फीसद और राज्य के कॉलेजों को समर्थन देने वाले राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान में 48 फीसद की कमी की गई। एसएसए जैसी महत्वपूर्ण संस्था जो कि देश भर के स्कूलों को फंड देती है को 2015-16 के बजट में 50,000 करोड़ रुपए की मांग के बदले में सिर्फ 22,000 करोड़ रुपए मिले।
शैक्षिक आवंटन से पता चलता है कि भविष्य में उच्च शिक्षा की मजबूती में निवेश करने के बजाए 2017-18 का बजट 3.71 फीसद पर स्थिर था और केवल 1.5 फीसद ही उच्च शिक्षा के लिए आवंटित किया गया था, भले ही बढ़ती आबादी के साथ ज़रूरत साल दर साल बढ़ती जा रही है और मुद्रा स्फीति इस राशि का मूल्य हर साल कम कर रही है। आईआईएम, आईआईटी और एनआईटी की मौजूदा स्थिति बताती है कि आईआईएम में शिक्षकों के 26 फीसद पद और आईआईटी में 35 फीसद स्थान और एनआईटी में 50 फीसद पद खाली हैं। दूसरी ओर ज़्यादा से ज़्यादा संस्थान खोलने की होड़ चल रही है। यह देश की उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की कमी का संकेत है। छात्रों को शिक्षा प्रदान करने के लिए आधे-अधूरे बने कालेज परिसर में धकेला जा रहा है जहां शिक्षकों की भारी कमी है। इससे यह परिदृश्य काफी निराश करने वाला है।
इसके साथ ही एसएसए में छह लाख शिक्षकों की कमी है, केंद्रीय विद्यालय में कुल 42,640 में से 9,749 शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। इसके साथ ही शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में 50 फीसद पद खाली हंै। जस्टिस वर्मा आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश शिक्षण प्रशिक्षण कालेज इतनी खराब स्थिति में हैं कि उन्हें बंद करने की ज़रूरत है। यूजीसी का सर्वेक्षण बताता है कि 73 फीसद कालेज और 68 फीसद विश्वविद्यालय मध्यम और निम्न गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा शत प्रतिशत शिक्षकों की नियुक्तियों के लिए ठेकों के आधार पर बिना नौकरी की सुरक्षा और भ्रष्ट तरीके से बड़ी अदायगी के शिक्षा मित्रों की नियुक्ति यह स्पष्ट करती है कि शिक्षा की गुणवत्ता से किस तरह समझौता किया गया है।
भारत दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है और देश की आज़ादी के बाद से संस्थानों की संख्या और नामांकन ने एक अच्छे विकास को प्रदर्शित करते हुए छात्र नामांकन में दूसरे स्थान पर है। अब यहां 864 विश्पविद्यालय और 40,026 कॉलेज हैं लेकिन केवल कुछ ही आईआईटी जैसे विश्वस्तरीय संस्थान हैं। भारत के गंभीर शैक्षिक परिदृश्य में औसत दर्ज को दर्शाया गया है जो कि भारत के भविष्य के लिए बुरा है। परिदृश्य में क्या बुराई है जिसमें सरकार शिक्षा प्रणाली में सुधार करने के बजाए हमारे विश्वविद्यालयों और संस्थानों का भगवाकरण करने पर आमादा है। कई संस्थानों के अध्यक्षों को हटाकर उनकी जगह संघ परिवार की विचारधारा वाले लोगों को लगाया गया है।
शिक्षा बजट में भारी कमी जिसमें अनुसंधान और विकास के लिए बजट, मेधावी छात्रों को छात्रवृति और निजीकरण और व्यवासायीकरण पर ज़ोर, हमारे लोकतांत्रिक शासन में शिक्षा को गरीब और पिछड़े समुदाय की पहुंच से दूर कर रहे हैं। जहां लोग बहुमत वाली सरकार चुनते है जो लोगों के प्रति जवाबदेह होती है। शिक्षा बजट में कटौती को जनविरोधी और गरीब विरोधी कदम के रूप में देखा जा रहा है और इस प्रक्रिया को राष्ट्रहित में खत्म किया जाना चाहिए।