बिहार में शताब्दी वर्ष समारोह के आयोजन के जरिये प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर से अपने विरोधियों को पटखनी देने और खुद को मजबूत करने की एक नायाब कोशिश की है. निराला की रिपोर्ट
पहली बार बिहार का अपना राज्यगान. अलग से एक प्रार्थना गीत भी. दो सौ से अधिक किताबों के जरिये बिहार के इतिहास, भूगोल, संस्कृति आदि के नये सिरे से दस्तावेजीकरण की कोशिश. पटना के गोलघर, बिहार के पर्यटन स्थल, कई अहम व्यक्तित्वों पर वृत्तचित्रों का निर्माण. नामचीनों के साथ कई अनाम-गुमनाम रचनाधर्मियों को सम्मान. नीली रोशनी से सराबोर राजधानी पटना के अलग-अलग इलाकों में स्थित सरकारी भवन. कुछ निजी प्रतिष्ठान-मकान भी. और इन सबको मिलाकर पटना के गांधी मैदान में तीन दिन तक बिहारी जोश-जुनून, उमंग-उत्साह का यादगार मेला. कई मेलों के राज्य में अपने किस्म का पहला मेला. छठ, उर्स, बौद्ध उत्सव, सोनपुर आदि से अलग छवि का.
गैलरियों में सजी बिहार की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक झलक को देखने, सांस्कृतिक आयोजनों का मजा लेने हर रोज हजारों लोग धूल-धक्कड़ में धक्का-मुक्की कर यहां पहुंचते रहे. कुछ उदित नारायण, कैलाश खेर जैसों का आकर्षण भी था. कुछेक के लिए व्यंजन मेले में तरह-तरह के बिहारी खान-पान का भी. शास्त्रीय और हिंदुस्तानी संगीत के रसिकों के लिए गांधी मैदान से सटे श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में दो दिनों तक देश के नामचीन कलाकारों का जुटान हुआ. आम तौर पर बड़े आयोजनों में भी खाली रहनेवाले इस सभागार में सीट न मिल पाने की चिंता में शाम से ही लोगों की भीड़ उमड़ती रही. मशहूर शास्त्रीय गायक पंडित जसराज, बांसुरीवादक हरिप्रसाद चैरसिया, गीतकार जावेद अख्तर जैसे लोगों की जुगलबंदी का नायाब रूप दिखा. राजधानी पटना तीन दिनों तक ऐसे ही जश्न की खुमारी में रहा. जश्न-ए-बिहार का यह दौर सिर्फ राजधानी तक सीमित नहीं रहा. प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में भी ऐसे ही आयोजन, उत्सव चले. बिहारी उपराष्ट्रीयता की एक नयी लहर के साथ. इन नायाब आयोजनों के जरिये बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लाखों बिहारियों को कायल करने के साथ ही अपने राजनीतिक विरोधियों से भी अपनी कलाबाजी का लोहा मनवाते रहे.
22 मार्च के बिहार शताब्दी वर्ष समारोह के प्रारंभिक दिन के विशाल उत्सव की चर्चा से पहले कुछ फुटकर बातों पर गौर करते हैं. उस रोज सुबह-सुबह मोबाइल पर दो मैसेज आये. पहला राज्य के सीमावर्ती फारबिसगंज इलाके से राष्ट्रीय जनता दल के एक नेता का था. कुछ शेरो-शायरी के बाद एक वाक्य- ‘बी प्राउड टू बी ए बिहारीः हैप्पी बिहार दिवस.’ दूसरा बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी से जुड़े एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का -‘बिहार स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर अपने गौरवशाली इतिहास को याद करें बिहारी. बधाई.’ इसी रोज शताब्दी समारोह शुरू होने के पहले गांधी मैदान से कुछ दूर एक और खास आयोजन भी हुआ. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-माले के छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन और इंकलाबी नौजवान सभा द्वारा यहां आयोजित सेमिनार का विषय था- शताब्दी वर्ष में बिहारः संघर्ष की विरासत, बदलाव की चाहत. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य समेत कई अहम वक्ताओं की इसमें उपस्थिति रही. बिहार सरकार को किसी न किसी बहाने, मौके-बेमौके निशाने पर लेने वाले अर्थशास्त्री प्रो. नवलकिशोर चौधरी भी थे इसमें. इस सेमिनार में सरकार की जमकर आलोचना हुई.यह तय-सा भी था.
नीतीश जानते हैं कि जाति की राजनीति के विस्तारीकरण से एक पारी तो खेली जा सकती है लेकिन आगे विकास के साथ कुछ और ताने-बाने भी बुनने होंगे
प्रशासनिक आयोजन का तमगा देकर, सरकारी शताब्दी वर्ष समारोह कहकर इसकी आलोचना किए जाने के बावजूद मोबाइल में पड़े दो मैसेज और माले के सेमिनार का आयोजन, शताब्दी वर्ष और बिहारी अस्मिता के अभियान पर एक प्रकार की मुहर लगा देते हैं. संभव है कि नीतीश कुमार को टुकड़े-टुकड़े में आते इस तरह की असहमति के स्वरों की जानकारी न हो लेकिन यह अहसास अच्छे से है कि ‘बिहारीपन’ का गौरवबोध अथवा ‘बिहारी होने’ के भाव को उभारना राजनीति में उन्हें और मजबूत कर सकता है.
करीब डेढ़ साल पहले बिहार में दूसरी पारी शुरू करने वाले नीतीश जब 22 मार्च की शाम पांच बजे मुख्य समारोह में पहुंचे तो उन्होंने अपने संबोधन में ‘बिहारीपन’ को परवान चढ़ाने की हरसंभव कोशिश की. इस कोशिश में उन्होंने बिहार के सौ साल की यात्रा को अपनी छह साल की परिधि में भी बांधा. अपने पूर्ववर्ती लालू प्रसाद की राजनीति के ताबूत में एक और गहरी कील ठोंकने की कोशिश की. परंपरागत तौर पर केंद्र पर निशाना साधा और मौका देख कर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी सांकेतिक तौर पर लपेटे में लिया.
नीतीश ने अपने संबोधन में बिहारी होने का मतलब ‘पहले अपमान- अब शान’ की बात को अलग-अलग लहजे में, अलग-अलग वाक्यों के साथ कई बार कहा. दो दिन पहले उन्होंने जिस अंदाज में देश की राजधानी दिल्ली में जाकर हुंकार भरी थी कि ‘यदि बिहारी काम ठप कर दें तो दिल्ली ठहर जाए’, कुछ-कुछ उसी लहजे में जनसमुदाय को भावनात्मक तौर पर नीतीश ने फिर से ललकारा कि अब बिहारियों को हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठना होगा बल्कि अपना हक लेना होगा. केंद्र को जवाब देना होगा. सांकेतिक तौर पर आगामी लोकसभा चुनाव में केंद्र सरकार को बेदखल करने का आग्रह भी किया नीतीश ने और मौका पाकर यह भी कहा कि बिहार की जो छवि हाल में बनी है, उसके लिए हमने पैसा देकर या किराये पर कोई ब्रांड अंबेसडर नहीं रखा है. यह बिहारियों ने मुंहामुंही किया है. यह कहते हुए नीतीश साफ तौर पर अमिताभ बच्चन को गुजरात का ब्रांड अंबेसडर बनाए जाने की ओर इशारा कर रहे थे.
उस रोज हजारों की भीड़ में नीतीश कुमार जब बिहारीपन जगाने और बिहारी उपराष्ट्रीयता को पिछले छह-सात सालों में स्थापित कर देने का असल सूत्रधार खुद को घोषित कर रहे थे, तब वहां मौजूद कुछेक लोग उनके इस राजनीतिक हुनर के कायल हुए जा रहे थे. यह याद करते हुए कि कैसे लालू प्रसाद की बिछाई जातीय राजनीति की बिसात पर ही दलित-महादलित, पिछड़ा-अतिपिछड़ा आदि समीकरणों के जरिये पटखनी देने के बाद अब नीतीश बहुत ही चतुराई से लालू के ही बिहारीपन को व्यवस्थित और सुंदरतम रूप देकर आगे उसकी फसल काटने की तैयारी में लग गए हैं.
बहुत से लोग अब भी यह मानते हैं कि अरसे बाद राष्ट्रीय स्तर पर बिहारीपन की ठेठ शैली को एक अलग पहचान के साथ चर्चा में लाने और जाने-अनजाने स्थापित करने की शुरुआत लालू प्रसाद यादव ने ही की थी. संसद भवन से लेकर बड़े से बड़े सार्वजनिक आयोजनों में ठेठ गंवई अंदाज में बोलना, मीडिया के जरिये बिहार की एक बोली को बिहारी भाषा के रूप में स्थापित करवाना, कुरताफाड़ होली खेलना, बिहारी लोकगीतों के गायकों को स्थापित करवाना, बिहारी मूल पहचान की नृत्यशैली लौंडा नाच, बिरहा-चैता गान आदि को प्रतिष्ठित करवाना, खानपान में मट्ठा, लिट्टी-चोखा, सत्तू आदि के साथ नशे में खैनी की ब्रांडिंग करना. यह सब लालू ने ही एक जमाने में मजबूती से किया था. बिहारीपन और लालू एक-दूजे के पर्याय भी बने. अब उसे सुंदर और सुव्यवस्थित रूप देकर नीतीश दो दशक बाद की नयी पीढ़ी में मजबूती से स्थापित होने की प्रक्रिया में लगे हैं.
बिहारी अस्मिता की बिसात पर लालू को दूर ठेल देने की इस कवायद का असर नीतीश को अच्छे से पता है. वे जानते हैं कि बिहार की आबादी में करीब 58 प्रतिशत युवा हैं. वे यह भी जानते हैं कि जाति की राजनीति के विस्तारीकरण से एक पारी तो खेली जा सकती है लेकिन आगे की राजनीति के लिए विकास के साथ इसके इर्द-गिर्द ही कुछ और ताने-बाने भी बुनने होंगे. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं कि बिहारी अस्मिता एक ऐसा मसला है, जो कई वर्गों को एक साथ रोमांचित कर सकता है. देश के कोने-कोने में फैले कामगारों के साथ ही संभ्रांतमिजाजियों को भी. जाति की राजनीति से नाराज और भूमि सुधार आदि के आरंभिक एलान से खफा सवर्णों के खेमे को भी.
उपराष्ट्रीयता के उभार का इस्तेमाल गरीबों के उत्थान में भी किया जा सकता है बशर्ते आयोजन के बहाने अतीत में ही नहीं भविष्य में भी झांका जाए
नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की मांग कर एक ऐसी ही सधी हुई राजनीतिक चाल और भी चल चुके हैं जो विरोधी दलों को न तो उगलते बन रही है और न ही निगलते. आलोचना के अलग-अलग बिंदु और असहमति के भिन्न-भिन्न स्वरों के बाद भी उस अभियान पर अमूमन सभी दलों को मुहर लगानी पड़ी. विशेष राज्य के दर्जे पर तो एक बड़ा सवाल यह भी उठ सकता है कि नीतीश जब खुद केंद्र में मंत्री थे तो क्यों इस पर कोई ईमानदार पहल नहीं कर सके? लेकिन बिहारी अस्मिता वाले राजनीतिक पत्ते में तो ऐसा कोई सवाल भी नहीं है. एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक डॉ डीएम दिवाकर कहते हैं कि उपराष्ट्रीयता का उभार अच्छी चीज है और इसका इस्तेमाल गरीबों के उत्थान में भी किया जा सकता है बशर्ते 100 साला आयोजन को अतीत का आकलन करने के साथ भविष्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाए. दिवाकर की तरह कई लोग अलग-अलग बात कहते हैं लेकिन बिहार के सौ साल के आयोजन और बिहारी उपराष्ट्रीयता के अभियान पर ज्यादा सवाल खड़े नहीं कर पाते. और यही बात नीतीश को एक नई मजबूती देती नजर आती है.
अंत में बात आयोजन से जुड़े कुछ ऐसे बिंदुओं पर जिन पर इस आयोजन के वक्त यदि थोड़ा ध्यान दिया जाता तो यह कुछ और यादगार हो सकता था. मसलन सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में प्रदेश के दस्तावेजीकरण का काम काफी महत्वपूर्ण है लेकिन इसकी कुछ संभावनाएं यदि बिहार सरकार के ही संस्थानों – बिहार राष्ट्र भाषा परिषद और बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी – के जरिये भी निकाली गई होतीं तो यह इन मृतप्राय संस्थानों के लिए संजीवनी की तरह होता. परिषद और अकादमी का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है और यहां से एक से बढ़कर एक दस्तावेजों का प्रकाशन होता रहा है. लेकिन पिछले करीब दो दशक से ये बेहद बेहाली वाले दौर में है.
बिहार के शताब्दी मेले में व्यंजन मेले का खासा आकर्षण था लेकिन उद्घाटन वाले दिन यानी 22 मार्च को व्यंजन मेले के कई स्टॉल खाली पड़े रहे. जबकि बिहार में इतने किस्म के खास व्यंजन अलग-अलग क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं कि सबका एक-एक स्टॉल लगने पर भी व्यंजन मेला छोटा पड़ सकता था. औरंगाबाद के अंबा की गुड़ही मिठाई, खरांटी-नालंदा का पेड़ा, छेनामुरगी आदि को परे भी कर दें तो ब्रांड बिहार के तौर पर स्थापित गया के तिलकुट, अनरसा और रामदाना लाई की कमी यहां खलती रही.
मुख्य समारोह स्थल पर जैसे नजारे दिखे और जिस तरह की प्रस्तुतियां हुईं, वे समग्रता में बिहार की यात्रा का उतना प्रतिनिधित्व नहीं कर सकीं. बिहार की यात्रा को दिखाने के लिए जो लेजर शो रोजाना के आकर्षण का केंद्र था. इसमें मौर्यकाल, चाणक्य, बिंबिसार, बुद्ध आदि के गौरवगान के बाद आजादी के बाद की यात्रा में डॉ राजेंद्र प्रसाद, जेपी के बाद सीधे वर्तमान सरकार के नायकत्व पर पहुंचना थोड़ा अखरता रहा. कम से कम समाजवादी धारा के ही कर्पूरी ठाकुर जैसे महानायक को तो प्रमुखता से रेखांकित किया जाता. या इस शो में पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की एक झलक तो दिखती!.
अंत में एक बात झारखंड और आदिवासियों के संदर्भ में. अव्वल तो यह कि 11 साल पहले अलग हुए झारखंड को परे कर बिहार को देखना संभव ही नहीं. ऊपर से बिहार के सौ-साला जश्न में आदिवासियों को एकदम से महत्व नहीं देना, आयोजकों की समझ पर सवाल ही खड़ा करता है. बिहार सरकार विशेष राज्य दर्जा अभियान में खुद बता रही है कि यहां आदिवासी अच्छी संख्या में हैं. राज्य में उनके लिए दो विधानसभा सीटें भी आरक्षित हैं. तो समारोह स्थल पर आदिवासियों के नायक बिरसा मुंडा, सिद्धो-कान्हो आदि दिखने चाहिए थे. इन आदिवासी महानायकों को अगर झारखंड का मानकर नजरअंदाज भी किया गया होगा तो तिलका मांझी की झलक तो दिखनी ही चाहिए थी, जिनके नाम पर भागलपुर में विश्वविद्यालय है. झारखंड बंटवारे के बाद जो आदिवासी बिहार में रह गये हैं, उनके नायकत्व, उनकी सांस्कृतिक पहचान को हाशिये पर तो नहीं ठेला जा सकता. कम से कम एक छोटा आयोजन ही सही, उनके लिए, उनके द्वारा, उनके नाम पर तो हो जाता…!