बैंक की नौकरी में तीन साल बिताने के बाद मेरा तबादला बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ. मैं लगातार बुंदेलखंड के किसानों के हालात के बारे में पढ़ता रहता था और मुझे लग रहा था कि इस तबादले के बाद लोगों के काम आ सकने की मेरी इच्छा कुछ हद तक पूरी हो सकेगी. मैं वाकई जानना चाहता था कि करोड़ों रुपये के पैकेज मिलने के बाद भी देश के इस हिस्से में इतनी बदहाली क्यों है.
मैं वित्त सहायक के पद पर था और मैंने सोच रखा था कि किसानों की भरपूर मदद करनी है. लेकिन वहां के जमीनी हालात देखकर मैं स्तब्ध रह गया. खुली लूट मची हुई थी. हर तरह के कर्ज देने में दलाली का बोलबाला था. क्या मेरे वरिष्ठ और क्या मेरे अधीनस्थ, सारे के सारे इसका भरपूर लाभ उठा रहे थे. मैं अपने प्रण व नैतिकता के साथ बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया था.
आखिर में मैंने ठाना कि गांव-गांव जाकर लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरुक करूंगा. लेकिन लंबे समय से चला आ रहा भ्रष्टाचार उन लोगों के दिलोदिमाग में इस कदर घर कर चुका था कि उनको लगता था इसके बिना कोई काम पूरा ही नहीं हो सकता. इसी उधेड़बुन में मैं एक शाम ट्रेन से शहर अपने घर आ रहा था. डिब्बा ठसाठस भरा हुआ था. उसमें जगह बिल्कुल नहीं थी लेकिन हां, सहयात्रियों के दिलों में पर्याप्त जगह थी. सफर लंबा था लिहाजा मैं वक्त काटने के लिए बैग से गीता निकालकर पढ़ने लगा.
अचानक मेरे कान में कुछ शब्द टकराए – भ्रष्टाचार व घोटाले हमारे देश का अभिन्न अंग बन चुके हैं. नेताओं और अफसरों ने देश में आग लगा रखी है। कभी 2जी घोटाला तो कभी कॉमनवेल्थ घोटाला. घोटाले और भ्रष्टाचार ने हमारे सिस्टम में बहुत भीतर तक पैठ बना रखी है. कभी-कभी तो लगता है कि बड़े-बड़े पदों पर बैठे नेताओं और अफसरों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास ही नहीं है. तो कभी लगता है कि इस पर बात करना समय को बर्बाद करना है. खिड़की के पास बैठे सज्जन बहुत निश्चिंत भाव से कह रहे थे. पिछले कुछ समय से मेरा पाला भी भ्रष्टाचार की घटनाओं से लगातार पड़ रहा था, इसलिए मैं चौकन्ना होकर लोगों की बातें सुनने लगा.
ताश खेल रहे दूसरे सहयात्री ने कहा, ‘आखिर हम भी ईमानदार कहां हैं? कोई बड़ा चोर है तो हम छोटे चोर हैं. जिसका जैसा बल और अधिकार, वैसा ही उसका भ्रष्टाचार. भ्रष्टाचार केवल पैसे से नहीं होता बल्कि हम सब कर्तव्य, समय, समाज और चरित्र से भी भ्रष्ट हैं. आज के युग में वही ईमानदार है जिसे भ्रष्टाचार करने का अवसर न मिले.’
हालांकि उनकी साफगोई मुझे अच्छी लग रही थी, लेकिन अपनी सच्चाई व ईमानदारी पर मुझे इतना अधिक यकीन था कि उनकी बातें सुनकर गुस्सा भी आ रहा था कि ये कैसे बिना जमीर वाले इंसान की तरह बात कर रहे हैं. इसी बीच काफी देर से खामोश बैठे तीसरे बंदे ने कहा – भाइयों सिस्टम एक गिलास है हम सब पानी. पानी को ही गिलास का रूप लेना पड़ता है अगर ईमानदारी का ज्यादा उबाल आया तो गिलास चटक जाएगा और हम सब बह जाएंगे. मैं इन तमाम नकारात्मक बातों से अंदर से हिल उठा था कि तभी रेल के उस कूपे में सवार एक निपट देहाती दिखाई दे रहे शख्स ने कहा, ‘हुजूर, बोले के लिए माफी चाहत हौं, नदियन मां रहै वारी सबै जीव गंदगी नहीं फलावत हैं.
कुछ गंदगी का साफौ करत हैं जिके कारन नदी का पानी बचा रहत हौ’ (बोलने के लिए माफी चाहता हूं, नदियों में रहने वाले सभी जीव गंदगी नहीं फैलाते हैं कुछ उस गंदगी को साफ भी करते हैं जिसके कारण नदी का पानी बचा रहता है). मैं अवाक था. जो बात मुझे गीता पढ़कर समझ में नहीं आ रही थी, वह एक साधारण ग्रामीण ने मुझे समझा दी. मैंने मन में ठान लिया कि भले ही पानी की तरह बह जाऊं लेकिन अपनी ईमानदारी से सिस्टम रूपी गिलास को चटका कर मानूंगा.