हरिद्वार/प्रेमनगर आश्रम घाट। ब्रहमकुमारी नीलम अक्सर हर रोज यहां घंटो बैठती हैं। गंगा की स्थिति पर दुखी हैं। बताती हैं 25-30 साल पहले गंगा इतनी मैली तो न थी। पहले लोग मां की तरह पूजते थे। पूजा तो अब भी करते हैं मगर मां के भाव से नहीं। सोचते है जितना कचरा है गंगा में बहा दें। गंदे नाले, सीवर और कई तरह की गंदगी गंगा में जा रही है।
हरकी पैड़ी के पास ही बाज़ार में फ्रांस से आए दम्पति स्टीविया और राबर्ट हरिद्वार को बनारस से बेहतर मानते हैं हालांकि गंगा स्नान के पक्षधर नहीं है, क्योंकि वे जानते है गंगा में प्रदूषण बहुत है। स्वास्थ्य को लेकर बहुत जागरूक हैं। उनका कहना है कि बच्चों को इस तरह से शिक्षित करें ताकि प्रकृति का सम्मान करना सीखें।
शहर में राह चलते किसी नागरिक से, घाटों पर सैर करते लोगों से किसी दुकानदार से, किसी रिक्शा वाले से, किसी प्रबुद्ध व्यक्ति से या किसी महिला से अगर गंगा पर प्रतिक्रिया पूछो तो हर एक का यह जवाब मिलता है: ‘गंगा में प्रदूषण तो बहुत है लेकिन क्या करें।’ गंगा नदी के संरक्षण और उसका प्रदूषण खत्म करने को लेकर सरकारी स्तर पर करोड़ों-करोड़ों रुपए खर्च किए गए हैं, लेकिन स्थिति में सुधार कुछ अंश ही हो पाया है। सरकारी स्तर पर प्रयास कछुआ चाल हैं तो आम पब्लिक भी ‘मैं न मानूं’ की तर्ज पर गंदगी फैलाने पर आमादा है। वस्तुस्थिति यह है कि गंगा जल पीने की बात तो दूर, उसमें स्नान करने को भी मन हिचकिचाता है। हां, कहीं-कहीं थोड़ी-बहुत कोशिश ज़रूर हुई है मगर वह समुद्र में बंूद के समान है। गंगा निर्मलीकरण के प्रयासों को लेकर सब अपने-अपने दावे ठोकते हैं लेकिन धरातल की सच्चाई में तथ्य नजऱ नहीं आते।
क्या कहती हंै रिपोर्टस
पिछले एक वर्ष से अलग-अलग समाचार पत्रों में छपी रिपोर्टस, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देश, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जानकारी पर नजऱ डालें तो गंगा निर्मलीकरण के प्रयासों की पोल खुलती साफ नजऱ आती है। गंगा नदी में प्रदूषण के एक मामले में एनजीटी के चेयरपर्सन एके गोयल को यह कहना पड़ा है कि जिस नदी में करोड़ों भोले-भाले लोगों की आस्था है, उन्हें गंगाजल के प्रदूषण के प्रति जागरूक करना ज़रूरी है। उनका कहना है कि अगर सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी लिखी जा सकती है कि वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो लोगों को प्रदूषित गंगाजल के कुप्रभावों के प्रति भी जागरूक किया जाना चाहिए। गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण अंक (2016) में गंगा प्रदूषण पर डा. अशोक जी पण्डया ने उत्तराखंड की तालिका में दिया है कि ”उत्तराखंड के 450 किलोमीटर के गंगा क्षेत्र में 51.3 लाख लीटर मल-जल प्रतिदिन जाता है। ‘‘ हालांकि इन दिनों केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपनी बेबसाइट पर मानचित्र दिया है जो साफ और प्रदूषित जल का संकेत करता है। इसमें उत्तराखंड में गंगाजल को कई शहरों में सही बताया गया है। लेकिन स्थानीय लोगों, जानकारों और प्रबुद्धजनों की मानें जो हरिद्वार में स्थिति ऐसी सुधार वाली नहीं है।
पतंजलि विश्वविद्यालय के कुलपति डा. महावीर अग्रवाल मानते हैं कि गंगा में हम सबकी युगों-युगों से श्रद्धा आस्था है क्येांकि यह एक पवित्र नदी है। दुर्भाग्य यह है कि जिसे मां कहते हैं उसको अपने कर्मों से, आचरण से इतना प्रदूषित कर दिया है कि वैज्ञानिकों को कहना पड़ा है कि उसका जल आचमन के योग्य नहीं रहा। गंगा में जिन फैक्टरियों, धर्मशालाओं, भवनों, अखाड़ों, होटलों का गंदा पानी जा रहा है। वह किसी से छिपा नहीं है। गंगा निर्मलीकरण के नाम पर कई सरकारी योजनाएं चल रही है। लेकिन धरातल पर जो नजऱ नहीं आ रही बल्कि करोड़ों रुपए तो बहा दिए गए हैं लेकिन गंगा की स्वच्छता के लिए जो मानसिक शक्ति और संकल्प होना चाहिए था, वो नहीं है।
गंगा महासभा के महामंत्री आरके मिश्रा हरिद्वार को लंबे अर्से से जानते हैं। उन्होंने बताया कि हरिद्वार की भौगोलिक परिस्थिति ऐसी है कि एक तरफ पहाड है एक तरफ गंगा। इनके बीच कहीं 50, कहीं 100 तो कहीं 40 मीटर बेल्ट रह गई। पुराने भवनों में सीवर लाइन नहीं है। भीमगौडा से हरकी पैड़ी तक कुछ भवन सड़क से नीचे हैं। मायापुर से ललतारा पुल तक कई भवनों का सीवर गंगा में जा रहा है। हालांकि वर्ष 2004 में इनके सुझाव पर भीमगौडा से हरकी पैड़ी तक साढ़े चार करोड़ खर्च कर 600 मीटर घाट बनाया गया, जहां प्रदूषण नहीं है। मिश्रा बताते है कि सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि जो सीवेज पंपिंग स्टेशन बने हुए हैं, वो गंगा किनारे हैं। किसी कारण मोटर खराब हो जाती है या लाइन डैमेज हो जाती है तो उनके पास कोई विकल्प नहीं होता दूषित पानी को बाहर निकालने का। मिश्रा के मुताबिक हरिद्वार में वर्ष 1936 की सीवर लाइन डली हुई है। कनखल में वर्ष 1963-64 में डाली गई थी, जिनका समय खत्म हो चुका है। नाले टेप नहीं किए गए हैं।
गंगा में प्रदूषण की ऐसी स्थिति श्रद्धालुओं के साथ सरासर धोखा है, अन्याय है। व्यापार मंडल के अध्यक्ष संजीव नैय्यर गंगा की ऐसी स्थिति के लिए दोनों वर्गों को जिम्मेदार ठहराते हैं एक जो गंगा की पूजा-अर्चना करते हैं। दूसरा सरकारी तंत्र। नैय्यर का कहना है कि सरकार जब तक हरकी पैड़ी मेला क्षेत्र से झुग्गी झौपंडियां, भिखारी, अनधिकृत फाड़ी वालों को नहीं हटाएगी, तब तक न मैदान खाली होगा और न गंगा स्वच्छ होगी। इसके चलते मेला क्षेत्र भूमि सिकुड़ती जा रही है। गंगा के नाम पर करोड़ों रुपए बहा देने की बात वो भी करते हैं। नैयर ने कहा कि पहले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई बनाई थी। 1500 करोड़ हरिद्वार में दिया गया था। अब नमामि गंगे नई सरकार का नया प्रोजेक्ट है। गोमुख से इलाहाबाद तक कहीं काम नजऱ नहीं आता। पैसे की बंदरबांट है। व्यापार मंडल अध्यक्ष ने चुटकी लेते हुए कहा कि यह बात तो अटल जी भी कहते थे कि एक रुपया भेजता हूं, वहां पंद्रह पैसे पहुंचते है, पच्चासी पैसे पता नहीं कहां चले जाते हैं।
दशकों से गंगा को देखने वाले गीता मंदिर कनखल के वयोवृद्ध स्वामी चिन्मयानंद संसाधनों की कमी और बढ़ती जनसंख्या को गंगा प्रदूषण के लिए जिम्मेदार मानते हैं। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक परीक्षण ऋ षिकेश से उन्नाव तक गंगा में न नहाने की इजाजत देते हैं और न आचमन की।
भाजपा युवा मोर्चा के अजय सोलंकी का कहना है कि गंगा एक्शन प्लान में करोड़ों आबंटित हुए। गंगा तो साफ नहीं हुई मगर सरकारी खजाना ज़रूर साफ हो गया। सोलंकी कहते है कि पिछले वर्षों से कुछ फर्क पड़ा है। लेकिन गंगा बहुत प्रदूषित हो चुकी है। आने वाली पीढ़ी के लिए हमें सोचना पड़ेगा।
गंगा की इस दयनीय अवस्था पर कवियों ने कविताएं लिखीं तो किसी नज़्मकार की नज़्म को किसी ने आवाज़ दी। स्वर्गीय कवि गोपाल दास नीरज की लिखी इस नज़्म को शुभा मुदगल ने इस तरह गाया है:
अब तो कोई मजहब ऐसा भी चलाया जाए
जिस में इन्सान को इन्सान बनाया जाए
आग बहती है यहां गंगा में भी, ज़मज़म में भी
कोई बतलाए कहां जा के नहाया जाए।