जो खुद घोटालों में शामिल हों, वे इनका खुलासा कैसे करें?
भ्रष्टाचार और घोटालों के खुदरा खुलासों के इस मौसम में सबसे ताजा खुलासा महाराष्ट्र में 70 हजार करोड़ रु से अधिक के सिंचाई घोटाले का है. इस घोटाले के खुलासे के बाद काफी ना-नुकुर और दांवपेंच आजमाने के बाद आखिरकार राज्य के उपमुख्यमंत्री अजित पवार को इस्तीफा देना पड़ा है. इसके साथ ही अखबारों और चैनलों के बीच इस घोटाले के खुलासे का श्रेय लेने की होड़ भी शुरू हो गई है. लेकिन सच यह है कि इस घोटाले के पर्दाफाश का श्रेय मीडिया को नहीं बल्कि भ्रष्टाचार विरोधी आरटीआई कार्यकर्ताओं खासकर अंजलि दमानिया की मुहिम और सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर विजय पंधारे को जाता है जिनकी पहल, मेहनत, साहस और प्रतिबद्धता के कारण इस घोटाले का खुलासा हो पाया.
इनकी कोशिशों से ही ऐसा माहौल बना कि पिछले कुछ सप्ताहों में मीडिया खासकर स्थानीय अखबारों में सिंचाई घोटाले की खबरें सुर्खियां बनने लगीं. यह ठीक है कि घोटाले के तथ्यों के सुर्खियों में आने के बाद ही महाराष्ट्र सरकार और खासकर एनसीपी नेतृत्व पर दबाव बढ़ा और उसे मुंह छुपाने के लिए इस्तीफे का नाटक करना पड़ा.
लेकिन यह तथ्य है कि हाल के कई और बड़े घोटालों की तरह इस घोटाले का भी पर्दाफाश मीडिया ने नहीं बल्कि आरटीआई और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं, कोर्ट के निर्देशों, सीएजी की रिपोर्टों आदि ने किया है. यह ठीक है कि हाल में सामने आए भ्रष्टाचार के इक्का-दुक्का मामलों को उजागर करने में सीधे मीडिया की भूमिका रही है लेकिन ज्यादातर मामलों के खुलासे में उसकी सक्रिय भूमिका नहीं थी. आरटीआई और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं, कोर्ट और सीएजी आदि ने साहस के साथ पहल नहीं की होती तो इनमें से ज्यादातर मामले सामने नहीं आते.आरटीआई कार्यकर्ताओं, कोर्ट और सीएजी आदि ने साहस के साथ पहल नहीं की होती तो ज्यादातर मामले सामने नहीं आते
इसका कारण समझना मुश्किल नहीं. आज जब कोयला आवंटन जैसे कई घोटालों में खुद मीडिया समूहों और उनके मालिकों के नाम सामने आ रहे हैं, उस समय उनसे इन घोटालों के खुलासे की उम्मीद भला कैसे हो? दूसरे, आज कई छोटे-बड़े मीडिया समूहों में उन बड़ी कंपनियों के शेयर हैं जो इन घोटालों की सबसे बड़ी लाभार्थी हैं. जाहिर है कि उनसे भी यह उम्मीद करना बेकार है कि वे घोटालों के पर्दाफाश की पहल और सक्रिय कोशिश करेंगी. यही कारण है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर भ्रष्टाचार और घोटालों के हालिया मामलों के पर्दाफाश में मीडिया और उसकी खोजी पत्रकारिता की सीधी भूमिका नहीं है.
खोजी पत्रकारिता का मतलब केवल घोटालों का भंडाफोड़ ही नहीं है बल्कि सामाजिक-जातिगत-धार्मिक अन्याय, उत्पीड़न और मानवाधिकार हनन के मामलों को उजागर करना भी है. आश्चर्य नहीं कि खोजी पत्रकारिता की कुछ बेहतरीन मिसालों में घोटालों के भंडाफोड़ के अलावा भागलपुर आंखफोड़वा कांड से लेकर नेल्ली और गुजरात नरसंहार तक के पर्दाफाश के मामले शामिल रहे हैं.
लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ऐसा लगता है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता के कॉरपोरेटीकरण के साथ दोनों तरह की खोजी पत्रकारिता की मौत हो चुकी है. खासकर उस खोजी पत्रकारिता की जो अपनी पहल पर सरकारी दस्तावेजों की पड़ताल, स्रोतों को खंगालने, दूर-दराज के इलाकों की धूल फांकने और तथ्यों की छानबीन करके घोटालों के साथ-साथ सामाजिक अन्याय, भेदभाव और जुल्म-उत्पीड़न के मामलों का पर्दाफाश करती थी. कहने की जरूरत नहीं है कि खोजी पत्रकारिता की मौत ने आज की कॉरपोरेट पत्रकारिता के ‘लोकतांत्रिक घाटे’ को और बढ़ा दिया है और उसकी साख को और कमजोर कर दिया है.