शशि नारायण ‘स्वाधीन’ समाज से जुड़े कवि थे। हैदराबाद के एक दैनिक में ज़मीनी स्तर पर बतौर संवाददाता काम करते हुए उन्होंने कइयों के चेहरे पर चिपकते- उखड़ते चेहरों की परतें देखी। लोकतंत्र, धर्म और पाखंड के जरिए समाज से धन उगाही और समाज के कमज़ोर वर्ग को हाशिए पर खड़ा रखने के तौर-तरीकों को उन्होंने जाना समझा। उन्होंने बेहद ईमानदारी, संवेदनशीलता और ऊष्मा के साथ कविताएं रची।
अहिंदी भाषी शहर हैदराबाद में रहते हुए उन्होंने तेलुगु, हिंदी,उर्दू और अंग्रेज़ी सीखी और समाज के दबे- कुचले लोगों की आवाज़ को अपनी धार दी। तेलंगाना मुक्ति संग्राम के वे एक कवि सिपाही थे।
स्वाधीन के कविता संग्रहों में ‘पोस्टरवार’ ग्यारहवां कविता संग्रह है। उनकी लंबी-कविता ‘पोस्टरवार’ है जो जहां संसदीय विसंगतियां उभरती नज़र आती है। समाज में इंसान ही इंसान की मदद करता है लेकिन उसे पिछले कुछ समय से जिस तरह धर्म, संप्रदाय, जाति में बांट कर एक दूसरे से डराने की प्रवृति शुरू हुई है उसका उन्होंने हमेशा विरोध किया। उन्होंने लिखा है-
समय की धीमी आंच पर
पक रहा है जो घाव
वह तुम्हारी
धर्म की राजनीति की देन है।
कोई भी धर्म इस मुल्क में
आदमी से अधिक ऊँचा कहलाता है।
जब आदमी ही नहीं होगा तो धर्म का क्या मतलब। यह समझाने की कोशिश स्वाधीन ने अपनी कविताओं में की है। यह उनकी विशेषता है। आप देखिए-
ठंड से बचाती है
जिस तरह आग
कविता मेरे साथ रही।
मैंने आवाज़ लगाई
सूरज का रथ रुका नहीं
दौड़ता चला गया
मैं अपने पथ पर
अकेला चलता रहा
तमाम संकेतों के बावजूद।
स्वाधीन ने जनसंघर्ष का एक महत्वपूर्ण माध्यम पोस्टरवार को माना है। यदि तेलंगाना आज साकार हो सका तो उसमें शाशि नारायण ‘स्वाधीन’ की आहुति भी कम महत्व नहीं रखती है। अपनी कविताओं के जरिए वे लगातार पोस्टरवार में शामिल रहे। वे तेलंगाना मुक्ति संग्राम में हमेशा सक्रिय थे। उनकी कविताएं तेलंगाना के जन-जन को साथ लेती हंै। उन्हें लंबी लड़ाई के लिए तैयार करती हैं।
उनकी कविता प्रतिबद्ध इंसानों की कविता है वह रंगीन प्रासादों की मद्धिम होती रोशनी में वासना के रंगों में प्रतिबिंबित नहीं होती। उनका प्रेम हकीकत की भूमि पर होता है। उनकी सोच है कि जिस दिन प्रेम इस दुनिया का मिजाज बन जाएगा, उस दिन यह दुनिया रहने लायक हो जाएगी। स्वाधीन की प्रेम कविताएं सपनों में हकीकत का रंग भरती दिखती है।
पिछली यादों में
खिड़की से
लफ्ज़ तुम्हारे
मुझ तक आकर
पीली धूप पहन लेते थे।
स्वाधीन की कविता हमेशा संघर्षशील लोगों को लडऩे और आगे बढऩे के लिए उत्साहित करती है।
लड़ो
और आगे बढ़ो
जिसने तुम्हारी सोच को
ताबूत में सुलाना चाहा
उसके इरादों में कील ठोंक दो
यह समय
तपते लोहे के सुर्ख होने का है
कड़ी धूप सह कर
करना है हमें सूरज का मुकाबला।
उर्दू हिंदी की प्रगतिशील कविताओं और कवियों में ज़्यादातर से उनका निजी परिचय था। हैदराबाद में हिंदी-उर्दू मुशायरों और हिंदी मुस्लिम एकता का परचम लहराने वालों में वे और उनके साथी अहमद फरीदी नवाब, मकदूम मोहियुद्दीन हैदराबाद के ही बड़े शायर सक्रिय दिखते थे। उन्होंने हैदराबाद में बरसों पहले तरक्की पसंद शायरी की ज़रूरत जताई थी, और जो लोकप्रिय भी थे। उन्हीं की दिखाई राह पर शशि नारायण स्वाधीन और अनगिनत कवि- रचनाकार चले। लेकिन स्वाधीन में बदलाव का जो ज़ज्बा उनमें और उनकी रचनाओं में था उसके चलते उनकी पूरी जिंदगी ज़रूर संघर्ष में गुजरी लेकिन आने वाली पीढिय़ों के लिए वे अपनी रचनाओं में ज़रूर सुगंध छोड़ गए जिनसे अगली पीढ़ी को आगे बढऩे की राह मिल जाती है।
शशि नारायण ‘स्वाधीन’
जन्म-15 मई 1966 निधन -21 जुलाई 2018
कुछ कविताएं
मौजूदगी
एक पुराना दिन
तुम्हें
बाहों में समेटे आज
खिड़की में खड़ा है।
मैं तुम्हें छूता हूं
अनुभवता हूं
बिछड़ा पल संजोता हूं।
सहभागी है
सिर्फ समय
डर
यह दुनिया
न्यूक्लियर बेड़े के डर से
रजाई में दुबकी पड़ी है।
आंखों में ख्वाब लहू लहू
ख्वाहिशें फिर भी
तुम्हारी बांहों सी खुलती जाती हैं।
दरवाजे बंद हैं।
चक्र
शहर के चारागर1
जाने किस वास्ते
मेेरा पता पूछते ही नहीं।
मेरे दिल में रकम2
आरजू3 की कहानी
जो तुम से जुड़ी है
अपने खात्मे पर
किसी और चेहरे से जुड़ जाएगी।
यूं ही फलक दर फलक
सूरज की लाली
रात के स्याह हाथों से मिट जाएंगी।
वे मुजाहिद4 के जिसने
मुल्क के वास्ते
सब कुछ त्यागा
कल हमें छोड़ कर
अपने मिट्टी के मंका से
चला गया है।
शहर पहले भी तन्हा था
तन्हा है अब भी
जिसकी बेदार आंखें
सवालों में गुम
आज हमें देखती हैं
ये गली भी किसी रोज़ सो जाएगी।
वक्त बढ़ता रहेगा बरसा बरस
अजनबी रास्तों की हवा में कहीं
याद की लौ किसी रोज़ बुझ जाएगी।
धुंध में रास्ते सिमट जाएंगे
मंजिलें दूर कदमों से हो जाएंगी
फिर आएगी कोंपल पे इक दिन बहार
फिर बारिश में मिटृटी संवर जाएगी
धूप निकलेगी ख्वाबों की फिर से यहां
बीज रस्तों में दुनिया के बो जाएगी।
शब्दार्थ:
- चिकित्सक 2. निहित
- इच्छा 4. स्वतंत्रता सेनानी
नई सदी की लड़की
तुम नई सदी हो
तुम्हारे अंदर मेरा पिछला
वक्त छिपा है।
तुम्हारा चेहरा
नई सुबह की मुस्कुराहट
चांद के भीतर छिपी
मेरी इबारत
जेहन में इक गुलाबी रंग सा
लहरा रहा है।
रेज़ा रेज़ा
कोई जैसे तस्वीर तुम्हारी बना रहा है।
मैं अपने लहू की गर्दिशों में
रोज तुम को पा रहा हूं
उंगलियों का लम्स1 तुम्हारा
मेरे बदन को जगा रहा है।
ये लम्स जैसे
इक आग है
जो दिल के पर्वत पर जागती है
तो जमीं से आस्मां तक
परिंदों की जुबान बन कर
फासलों को नापती है।
जो तुम है वो तुम हो
जो मैं है वो मैं हूं
इन्ही जाबियों2 में
ये छोटा सा घर है
अपना सफर है।
शब्दार्थ:
- स्पर्श 2. कोणों