दुनिया भर में अपनी भू-राजनीतिक खुफिया रिपोट्र्स को लेकर विशेष जगह रखने वाले दिग्गज प्लेटफॉर्म स्ट्रैटफॉर की 22 सितंबर की रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि चीन ने भारत की सीमा के नज़दीक डोकलाम तनाव के बाद ही अपना बुनियादी ढाँचा मज़बूत करना शुरू कर दिया था और इन तीन वर्षों में उसने वहाँ अपने एयरबेस, एयर डिफेंस पोजिशन और हेलीपोट्र्स की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा कर ली। हालाँकि इस रिपोर्ट में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात कही गयी है। वह यह है कि चीन का अपने सैन्य बुनियादी ढाँचे में किया जा रहा यह अपग्रेडेशन पूरा होने में काफी वक्त लगेगा और यह कार्य अभी जारी है। रिपोर्ट को आधार मानकर आकलन किया जाए, तो यह सवाल उठता है कि सीमा पर चीन की तरफ से पैदा किया जा रहा तनाव क्या सिर्फ यह देखने के लिए है कि भारत की तैयारी कैसी, किस स्तर और किस रणनीति पर आधारित हो सकती है? बहुत-सी रिपोर्ट हैं, जो ज़ाहिर करती हैं कि चीन फिंगर आठ से फिंगर पाँच पर आ गया है और तमाम बैठकों के बावजूद पीछे जाने को तैयार नहीं है। चीन के साथ युद्ध के काले बादल मँडराने के बीच दोनों के सैन्य अधिकारियों में बातचीत के कई दौर हुए हैं। मॉस्को में विदेश और रक्षा मंत्री मिल चुके हैं; लेकिन चीन यथस्थिति बरकरार रखने को तैयार नहीं है।
रूस की भारत-चीन में किसी सम्भावित युद्ध को टालने की अघोषित कोशिशों के बीच भी चीन अपना काम जारी रखे हुए है। भारत ने भी गलवान की झड़प के बाद सीमा पर किसी भी स्थिति से निपटने के लिए अपनी तैयारी कर ली है। संसद में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह यह बात कह चुके हैं। बहुत-सी चोटियों पर भारत ने कब्ज़ा करके मनोवैज्ञानिक बढ़त बनायी है। हालाँकि यहाँ यह सवाल अभी अनुत्तरित हैं कि कहीं सच में युद्ध हुआ, तो क्या लगातार चीन के खिलाफ बोल रहा और ताइवान को चीन के खिलाफ मदद कर रहा अमेरिका भारत का साथ देगा? भारत ने पिछले एकाध महीने में दूसरे देशों को चीन के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति बुनी है; लेकिन वास्तव में भारत को किस-किसका साथ मिलेगा? यह अभी साफ नहीं है। दुनिया के दिग्गज भू-राजनीतिक इंटेलीजेंस प्लेटफॉर्म स्ट्रैटफॉर की रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि चीन भारत के साथ टकराव के लिए लम्बी तैयारी कर रहा है। दरअसल स्ट्रैटफॉर की इस गहन रिपोर्ट में चीन के सैन्य बुनियादी ढाँचे के निर्माण को सेटेलाइट इमेज के विस्तृत विश्लेषण के ज़रिये रेखांकित किया गया है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले स्ट्रैटफॉर के वरिष्ठ वैश्विक विश्लेषक सिम टैक का कहना है कि सीमा पर चीनी सैन्य सुविधाओं के निर्माण का समय यह ज़ाहिर करता है कि चीन वर्तमान में सीमा पर तनाव बढ़ाने की जो कोशिश कर रहा है और भारत और चीन के बीच लद्दाख में जैसा गतिरोध चल रहा है, उसे देखते हुए यह चीन की रणनीति का हिस्सा लगता है। टैक ने रिपोर्ट में कहा कि यह प्रयास चीन के सीमावर्ती क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने की सोच का हिस्सा हैं।
जैसा रिपोर्ट में कहा गया है, उससे निश्चित ही चीन के खड़े किये इन सैन्य ढाँचों का भारत की सुरक्षा पर सीधा असर पड़ सकता है। टैक की गहन अध्ययन के बाद सेटेलाइट इमेज के विश्लेषण की मदद वाली इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि चीन ने 2017 में भारत के साथ डोकलाम गतिरोध के बाद अपनी रणनीति को बदला है। टैक रिपोर्ट में कहता हैं कि चीन को इसे आगे चलकर अपने ऑपरेशंस बढ़ाने में मदद मिल सकती है।
हालाँकि सिम टैक ने इस रिपोर्ट में एक और बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही है। उनके मुताबिक, चीन के अपने सैन्य बुनियादी ढाँचे में किये जा रहे इस सुधार (अपग्रेडेशन) को पूरा करने में अभी काफी वक्त है। रिपोर्ट में वे लिखते हैं कि चीन सीमा के नज़दीक जो तैयारी कर रहा है, वह सैन्य बुनियादी ढाँचों के विस्तार और निर्माण का काम है और और यह अभी चल रहा है। टैक का मानना है कि भारत की सीमा पर आज जो चीनी सैन्य गतिविधि दुनिया देख रही है, वो सिर्फ एक दीर्घकालिक उद्देश्य की शुरुआत भर है। रिपोर्ट के मुताबिक, सीमा के नज़दीक चीनी बुनियादी ढाँचे से भारत पर क्या असर होगा, यह स्पष्ट रूप से दिखता है। एक बार इन बुनियादी ढाँचों के पूरा हो जाने पर चीन को इन क्षेत्रों में अपनी गतिविधि बढ़ाने में मदद मिलेगी।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन भारतीय सीमा के नज़दीक कम-से-कम 13 नयी सैन्य पोजिशन का निर्माण कर रहा है। इनमें 3 एयर बेस, 5 स्थायी एयर डिफेंस पोजिशन और 5 हेलीपोट्र्स (चॉपर के उड़ान भरने/उतरने के लिए पट्टी) शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, इन नये हेलीपोट्र्स में चार का निर्माण मई में लद्दाख गतिरोध के बाद शुरू किया गया है।
इंटेलीजेंस प्लेटफॉर्म स्ट्रैटफॉर की इस एक्सक्लूसिव रिपोर्ट में दिये गये ग्राफिक ज़ाहिर करते हैं कि 2016 में सीमा के इन स्थानों के पास सिर्फ क्रमश: एक-एक हेलीपैड और एयर डिफेंस साइट थे। लेकिन 2017 में डोकलाम गतिरोध के बाद सीमा के नज़दीक एक ईडब्ल्यू स्टेशन और एक एयरबेस सुविधा का निर्माण शुरू हुआ। ग्राफिक के मुताबिक, 2018 में वहाँ सम्भवता कुछ नया नहीं बना; लेकिन पिछले दो साल में सुविधा निर्माण में बहुत तेज़ गति दिखी।
स्ट्रैटफॉर के साल-दर-साल बिन्दुबार बनाये ग्राफिक के मुताबिक, 2019 के बाद चीन ने सैन्य बुनियादी ढाँचे पर बड़े पैमाने पर काम शुरू किया है। इसके मुताबिक, 2019 में एक जमा तीन एयरबेस, चार नये एयर डिफेंस साइट, एक ईडब्ल्यू स्टेशन और एक हेलीपोर्ट पर काम शुरू किया। जबकि 2020 में, खासकर लद्दाख घटनाक्रम के बाद चीन ने चार एयरबेस, चार ही हेलीपोर्ट और एक एयर डिफेंस साइट के निर्माण का काम शुरू किया। इस तरह देखा जाए तो चीन लम्बी अवधि की मज़बूत सैन्य संरचना का निर्माण भारत के साथ सीमा पर कर रहा है।
ऐसा नहीं है कि इन वर्षों में भारत सिर्फ चीन का मुँह देखता रहा है। काम इधर भी हुआ है और सीमा के नज़दीक भारत ने भी सैन्य दृष्टि से निर्माण किये हैं। लेकिन इस रिपोर्ट से जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात सामने आती है, वह यह है कि इस सारे घटनाक्रम का अध्ययन करने वाले सिम टैक को यह लगता है कि चीन अभी इस बुनियादी ढाँचे के विकास पर काम कर रहा है। उनके इस अनुमान से क्या यह माना जाए कि चीन फिलहाल युद्ध नहीं करना चाहता, बल्कि वह सीमा पर तनाव बढ़ाकर सिर्फ भारत की शक्ति, उसके कदमों और रणनीति को तौल भर रहा है? कहना कठिन है। क्योंकि चीन को कभी भी एक भरोसेमंद देश नहीं माना जाता है।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत बार-बार यह कह रहा है कि वह अपनी तरफ से युद्ध शुरू नहीं करेगा; लेकिन यदि उस पर युद्ध थोपा गया, तो वह इसका मुँहतोड़ जवाब देगा। भारत ने लगातार चीन से सैन्य और डिप्लोमैटिक स्तर पर बातचीत की कोशिश की है। भारत भी युद्ध नहीं चाहता। सैन्य स्तर पर भी बैठकों का दौर चल रहा है। हाल में 22 और 23 सितंबर को अधिकारियों के बीच बैठक हुई है। हालाँकि इनमें से कुछ विशेष नहीं निकला है।
इस रिपोर्ट से इतर यदि बात करें, तो ज़ाहिर होता है कि चीन जहाँ अपने क्षेत्र में सीमा पर सैन्य निर्माण कर रहा है, वहीं वह नेपाल जैसे देश को दोस्ती के नाम पर भारत के खिलाफ अपने ठिकाने बनाने के लिए भी मना चुका है। नेपाल में चीन की राजदूत हाओ यांकी इसमें बड़ी भूमिका निभा रही हैं। उनके बहुत से कदमों से नेपाल में विवाद भी पैदा हुए हैं, और खासकर विरोधी दल उन्हें निशाने पर रखते रहे हैं। इस तरह की रिपोट्र्स रही हैं कि यांकी ने हाल में प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली की कुर्सी बचाने में बड़ी भूमिका निभायी और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच उभरे मतभेदों को दूर करते हुए ओली और प्रचंड दहल के बीच रिश्ते को बेहतर किया।
ओली को लेकर माना जा रहा है कि वो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ नज़दीकी रिश्ते बना चुके हैं और ड्रैगन इसका फायदा उठाते हुए नेपाल की ज़मीन पर उपेक्षित से रहे हुमला क्षेत्र में करीब नौ भवनों का निर्माण कर चुका है। दिलचस्प यह है कि नेपाली मीडिया में चीन की इस घुसपैठ की तस्वीरें छपी हैं। निश्चित ही इसके बाद ओली पर दबाव बना है। यह कब्रें सच्ची मालूम होती हैं। क्योंकि अखबार में रिपोट्र्स छपने के बाद हुमला के एक वरिष्ठ ज़िला अधिकारी दल बहादुर हमाल ने नौ दिन तक हुमला के लापचा-लिमी क्षेत्र का दौरा किया। नेपाल की एक वेबसाइट खबर हब डॉट काम की रिपोर्ट पर भरोसा करें, तो उसमें लिखा गया है कि इस अधिकारी ने अपने दौरों के दौरान पाया कि नेपाल की ज़मीन पर चीन ने नौ भवन रूपी निर्माण किये हैं। वरिष्ठ अधिकारी की यह रिपोर्ट हमाल ज़िला प्रशासन ने नेपाल के गृह मंत्रालय को भेजी, जिसे जिसे बाद में उसने विदेश मंत्रालय को भेज दिया। नेपाली क्षेत्र में चीन की इस घुसपैठ पर नेपाल के विदेश मंत्रालय ने क्या किया, इसकी जानकारी नहीं है। कहा जा रहा है कि अभी तक नेपाल सरकार ने चीनी अधिकारियों के सामने यह मुद्दा नहीं उठाया है। निश्चित ही भारत के लिए नेपाल में सीमा के नज़दीक यह चीनी घुसपैठ चिन्ता का सबब है।
घटनाएँ जारी
उधर लद्दाख में भारत-चीन के बीच तनाव की परकाष्ठा इस बात से समझी जा सकती है कि चार दशक से भी ज़्यादा समय बाद वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तीन बार गोलीबारी हो चुकी है; वह भी 20 दिन के भीतर। इस बात से तनाव के ग्राफ को समझा जा सकता है। गोलीबारी की यह घटनाएँ पहली बार तब हुईं, जब दक्षिणी पैंगॉन्ग की ऊँचाई वाली चोटी पर कब्ज़ा करने की चीन ने कोशिश की। इस दौरान भारत ने चीन के सैनिकों को वापस खदेड़ते हुए उनकी चाल को नाकाम कर दिया। यह घटना 29-31 अगस्त के बीच हुई। इसकी जानकारी सार्वजनिक हुई और भारत सरकार ने भी इसकी जानकारी दी।
हालाँकि इसके बाद भी गोलीबारी की घटना हुई, जिसका एक अंग्रेजी अखबार ने खुलासा किया। यह घटना 7 सितंबर की है, जो मुखपारी की चोटियों पर घटी। यह उस दिन की बात है जिस दिन भारत के रक्षा मंत्री मॉस्को में अपने चीनी समकक्ष से मिलने वाले थे। अगले ही दिन यानी 8 सितंबर को फिर पैंगॉन्ग झील के उत्तरी किनारे पर गोलीबारी हुई थी। कहा जाता है कि इस दौरान दोनों ही पक्षों के जवानों ने 100 से 200 राउंड के बीच फायरिंग की थी। चीनी पक्ष के तरफ से आक्रामकता दिखाने के बाद यह गोलीबारी हुई। याद रहे गलवान घाटी में 15 जून को दोनों पक्षों के बीच हिंसक झड़प हो गयी थी। इस झड़प में भारत के 20 जवान शहीद हो गये थे, जबकि चीन के भी 40 से ज़्यादा सैनिकों की मौत हुई थी।
विदेश मंत्री स्तर की बातचीत में चीन ने पाँच सूत्री सन्धि की बात मानी थी, जिसमें स्थिति को हर कीमत पर बातचीत से तय करने पर सहमति बनी थी; लेकिन साफ दिख रहा है कि चीन बहुत चालाकी से समय लेने की चाल चल रहा है और उसकी मंशा ठीक नहीं है। चीन बार-बार दोहरा रहा है कि वह एक इंच भी नहीं पीछे हटेगा। इससे साफ है कि भारत को चुनौती दे रहा है कि युद्ध करके हमें पीछे हटा सकते हो, तो हटा लो।
भारत ने अभी तक संयम बरता है; लेकिन ऐसा उसके लिए ज़्यादा समय तक करना सम्भव नहीं होगा। भारत युद्ध नहीं चाहता। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह संसद में कह चुके हैं कि इतिहास गवाह है कि भारत ने कभी अपनी तरफ से युद्ध की शुरुआत नहीं की। भारत बातचीत से मसले को सुलझाने की बात कह रहा है। दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों की लगातार बैठकें भी हुई हैं; लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला है।
संसद में राजनाथ सिंह ने साफ कहा है कि सीमा के मामले में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। सिंह ने यह भी भरोसा दिलाया है कि भारत की स्थिति मज़बूत है। हम युद्ध के लिए तैयार हैं; जबकि शान्ति से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि युद्ध की स्थिति बनती है, तो चीन के लिए भी मुश्किलें पैदा होंगी। अमेरिका से लेकर दूसरे कई देश आज की तारीख में चीन से सख्त नाराज़ हैं। इसका सबसे बड़ा कारण कोरोना वायरस का चीन से दुनिया भर में फैलना है। चीन पर नयी विश्व व्यवस्था में मुखिया बनने का भूत सवार है। उसके विपरीत भारत इस दौड़ में कभी शामिल नहीं रहा। चीन की अंतर्राष्ट्रीय छवि पिछले छ: महीने में बहुत धूमिल हुई है। कुछ दिन पहले ताईवान ने चीन की सैन्य पनडुब्बी को मिसाइल से ध्वस्त कर दिया था। चीन हुंकारता रहा, पर कुछ नहीं हुआ। अमेरिका पूरी तरह ताईवान के साथ खड़ा है। इसके विपरीत चीन के पड़ोसी मलेशिया और थाईलैंड तक चीन से दूरी बनाकर रख रहे हैं। भारत इस स्थिति को नज़र में रखे हैं। लिहाज़ा चीन उन तमाम देशों, जो उसे पसन्द नहीं करते, से सम्पर्क साध रहा है।
रूस की भूमिका
यह बात तारीखी है कि सन् 1962 में जब भारत-चीन के बीच युद्ध हुआ था, तब सोवियत संघ का पतन नहीं हुआ था और वह चीन के बहुत करीब था। तब अमेरिका और सोवियत संघ को ही दुनिया की दो ताकतें कहा जाता था। तब युद्ध के दौरान सोवियत संघ के नेता ने इसे अपने भाई और दोस्त के बीच की जंग कहा था। अर्थात् चीन भाई और भारत दोस्त। उसने युद्ध में किसी का साथ नहीं दिया था। अब भारत-चीन में एक बार फिर तनाव चरम पर है और युद्ध के खतरे की बात की जा रही है, रूस अलग तरह की भूमिका में दिख रहा है।
इसका एक बड़ा कारण यह है कि अमेरिका कोविड-19 के बाद आर्थिक रूप से मुश्किल दौर से गुज़र रहा है और उसकी महाशक्ति की भूमिका को के चुनौतियाँ पैदा हुई हैं। इधर भारत और चीन नयी महाशक्तियों के रूप में उभर रहे हैं और दुनिया दो ध्रुवों से बाहर निकलकर बहु ध्रुवीय हो चुकी है। चीन से अमेरिका खार खाता है और वह एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपना दबदबा कायम रखना चाहता है। चीन उसे चुनौती दे रहा है, जबकि भारत अमेरिका के साथ खड़ा दिखता है। चीन के भारत के साथ टकराव का यह भी एक बड़ा कारण है।
उधर रूस अपने स्तर पर विश्व में अपनी पुरानी पहचान कायम करने की कोशिश में जी-जान से जुटा है। वह भारत के साथ अपने पुराने सम्बन्धों के कारण बिगाड़ नहीं करना चाहता। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और प्रधानमंत्री मोदी की दोस्ती के कारण पिछले एक साल में भले भारत ने अमेरिका से हथियार खरीदने को प्रमुखता दी है, रूस से भारत के हथियार खरीदी सबसे ज़्यादा रही है। रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि रूस नहीं चाहता चीन और भारत के बीच युद्ध हो। यह कहा जाता है कि डोकलाम में तनाव काम करवाने में रूस की भूमिका रही थी। भले रूस खुलकर सामने न आये, वह चीन और भारत के बीच तनाव कम करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। भले रूस चीन के खिलाफ न जाए, वह भारत के हाल में खरीदे 12 सुखोई-30 एमकेआई और 21 मिग-29 की शीघ्र आपूर्ति करने की बचनवद्धता जता चुका है। इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि चीन के साथ रूस के घनिष्ठ सम्बन्ध हैं।
चीन आज की तारीख में रूस से कहीं ज़्यादा आर्थिक सम्पन्न देश है और वह अमेरिका के मुकाबले खुद को इकलौती दूसरी महाशक्ति मानता है। भारत ही उसकी इस महत्त्वाकांक्षा के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा माना जाता है। इसके बावजूद अकेला रूस ऐसा देश है, जिसकी बात चीन मान सकता है। इसका कारण दुनिया में कोविड-19 के बाद बदली परिस्थिति है, जिसमें चीन को पश्चिम के देशों का बड़े पैमाने पर विरोध सहना पड़ा है। ऐसे में रूस उसके लिए आज भी बहुत अहम है।
हालाँकि इसके बावजूद रूस और चीन के बीच अविश्वास की रेखा है। दमेंस्की द्वीप को लेकर 2000 के समझौते के बावजूद रूस चीन को लेकर सजग रहता है। हाल में यह खबरें आयी हैं कि चीन रूस की जासूसी में लिप्त रहा है। यह भी खबरें हैं कि इससे नाराज़ रूस ने चीन को एस-400 मिसाइल की सप्लाई पर फिलहाल रोक लगा दी। बहुत कम सम्भावना है; लेकिन किसी बड़े कारण से रूस और अमेरिका की दोस्ती हो जाती है, तो चीन बड़े संकट में फँस जाएगा।
डोनाल्ड ट्रंप जब राष्ट्रपति बने थे, तब अमेरिका में यह आरोप लगा था कि रूस की एजेंसी केजीबी ने ट्रंप की मदद राष्ट्रपति बनने में की थी। दूसरा रूस के रणनीतिकार चीन के अति महत्त्वाकांक्षी होने के कारण भविष्य में उसे अपने लिए खतरा मानते हैं। ऐसे में रूस की भारत के प्रति भावना सहयोगी वाली दिखती है। वह भारत को कमज़ोर नहीं होने देना चाहता; क्योंकि भारत चीन के लिए आर्थिक और सामरिक रूप से बड़ी चुनौती है। रूस हमेशा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत की तरफदारी करता रहा है। रूस जानता है कि चीन जितना ज़्यादा मज़बूत होगा, खुद रूस की स्थिति इससे कमज़ोर होगी। भारत के मामले में ऐसा नहीं है। इसका कारण भारत का विस्तारवादी नहीं होना और यहाँ लोकतंत्र होना है। शायद यही कारण है कि रूस हाल में चीन और भारत के बीच मध्यस्थता के लिए उत्सुक दिखा है, भले परदे के पीछे से।
भारत की रणनीति
एक तरफ जहाँ भारत ने चीन से मुकाबले के लिए सीमा के नज़दीक अपनी तैयारियाँ तेज़ की हैं, वहीं अन्य देशों से भी सहयोग के लिए सम्पर्क साधा है। जापान के साथ भारत के कुछ रक्षा समझौते हुए हैं। सीमा पर भारत सैन्य स्तर पर भी अपनी स्थिति मज़बूत करने में लगा है। सितंबर में भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर छ: नयी ऊँचाइयों तक पहुँच बनाकर चीन को परेशान कर दिया है। ऊँचाई युद्ध की स्थिति में बढ़त मानी जाती है। मगर हिल, गुरुंग हिल, रेचिन ला, रेजांग ला, मोखपरी और फिंगर चार के पास की ऊँचाइयों पर भारत के जवान मौज़ूद हैं। यह सभी चोटियाँ एलएसी के इस पार हैं।
एलएसी के इस पार भारत की इस चतुराई ने ही चीन को क्रोधित किया है। चोटियों पर डेरा जमा लेने के बाद बौखलाये चीन ने करीब 2800 अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती रेजांग ला और रेचिन ला के पास कर दी। इसमें पीएलए की इन्फैंट्री और आम्र्ड यूनिट्स के जवान शामिल हैं। चीन ने सेना की मोल्दो यूनिट को पूरी तरह सक्रिय कर दिया गया है। विशेषज्ञों के मुताबिक, हाल के हफ्तों में चीनी सेना ने सैनिकों की संख्या बढ़ायी है। भारत की भी इस पर नज़र है।
भारत ने मैदान में रणनीति के लिए सेना के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को ऑपरेशन की मॉनिटरिंग के मोर्चे पर लगाया है। सीडीएस जनरल बिपिन रावत और सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे इसकी अगुवाई कर रहे हैं। बैठकों के अलावा यह तिकड़ी चीन के कदमों पर भी नज़र रखे हैं। सीमा पर लद्दाख क्षेत्र में चीन की टक्कर की सेना तैनात की गयी है और हथियारों को भी मोर्चे तक पहुँचाया गया है।
चीन के सरकारी मुख पत्र ग्लोबल टाइम्स के प्रचारक का मुकाबला करने के लिए भारत ने भी हाल में सीमा पर अपनी तैयारियों को मीडिया के ज़रिये सामने लाया है। पहले इस तरह की तैयारी बहुत ही सीक्रेट रखी जाती थी; लेकिन मनोवैज्ञानिक बढ़त के इस ज़माने में यह भी अब होने लगा है। यही नहीं, हल में चीन ने पहली बार यह स्वीकार किया है कि गलवान घाटी की झड़प में उसके सैनिकों की भी मौत हुई थी। चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने स्वीकार किया है कि गलवान घाटी में चीन की सेना को नुकसान पहुँचा था और कुछ जवानों की जान गयी थी; हालाँकि अखबार के मुख्य संपादक हू शिजिन ने एक ट्वीट में यह भी कहा कि जहाँ तक मुझे पता है, गलवान घाटी की झड़प में चीनी सेना के जवानों की मरने वाली संख्या भारत के 20 के आँकड़े से कम थी। उन्होंने कहा कि भारत ने चीन के किसी सैनिक को बंदी नहीं बनाया, जबकि चीन ने उस दिन ऐसा किया था।
पिछले दिनों भारत ने एक विशेष सैन्य टुकड़ी ‘स्पेशल फ्रंटियर फोर्स’ के तिब्बती सैनिक के शहीद होने पर बाकायदा उसकी देह को भारत और तिब्बत के झंडे में लपेटकर अंतिम विदाई दी गयी। भारत की यह तिब्बत रणनीति चीन को परेशान करने के लिए है। चीन इससे परेशान हुआ भी है। तिब्बत निश्चित ही चीन की सबसे कमज़ोर नस है। तिब्बत चीन के लिए दीवार की तरह है। अगर वह मज़बूत है, तो चीन सुरक्षित है, अन्यथा नहीं। भारत ने तिब्बत के रूप में एक गोला फेंका है, जिसकी चिंगारी चीन को भस्म कर सकती है। इससे परेशान चीन ने अब भारत के खिलाफ लड़ाई के लिए तिब्बती फोर्स तैयार करने की तैयारी कर ली है। यह अलग बात है कि चीनी दमन से तिब्बत में बड़े पैमाने पर आक्रोश है और यह विस्फोट चीन को भारी पड़ सकता है। हालाँकि भारत ने तिब्बती फोर्स के शहीद सैनिक को सम्मान देकर और भारत-तिब्बत के साझे झंडे में लपेटकर अंतिम संस्कार के लिए ले जाकर चीन को परेशानी में डाल दिया है। भारत की स्पेशल फ्रंटियर फोर्स में तिब्बती ही हैं, जो अपने देश को आज़ाद करने के संकल्प के लिए कुर्बानियाँ दे रहे हैं। सीमा के उस पार भी उसी नस्ल और क्षेत्र के तिब्बती हैं। अन्तर इतना-सा है कि वह चीन के चंगुल में हैं और ये लोग चीन के चंगुल से आज़ाद हैं। इस बात की पूरी आशंका है कि कहीं यह युद्ध भारत चीन की लपेट में तिब्बत स्वतंत्रता संग्राम के रूप में न बदल जाए। तिब्बती भारत को जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी और आज तक बहुत उम्मीद से देखते रहे हैं। तिब्बत की निर्वासित सरकार को नेहरू के कांग्रेस राज में हिमाचल के धर्मशाला में बसाया गया था। वहाँ उनका पूरा खयाल रखा जाता है।
क्या अमेरिका देगा भारत का साथ
कुछ महीने बाद अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव हैं। ऐसे में इन सर्दियों में यदि चीन ने भारत के साथ सैन्य टकराव का फैसला किया, तो क्या अमेरिका भारत का साथ देगा? यह सवाल सभी के ज़ेहन में है। उच्च स्तर पर यह बात बहुत शिद्दत से महसूस की जा रही है कि यदि चीन ने भारत के साथ युद्ध की शुरुआत की, तो अमेरिका भारत के साथ आ खड़ा होगा। इसका एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री मोदी की डोनाल्ड ट्रंप से दोस्ती है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होगा? इसे लेकर जानकारों की अपनी-अपनी राय है। ज़्यादातर का यह मानना है कि ट्रंप क्या फैसला करेंगे? यह एक अनिश्चित सवाल है।
अमेरिका को लेकर बहुत-से जानकार यह भी कहते हैं कि वह जिस देश में एक बार चला जाता है, वहाँ से आसानी से वापस नहीं जाता। बहुत काम लोगों को यह मालूम होगा कि अमेरिका के 42 देशों में सैन्य बेस हैं। तुर्की से लेकर अफगानिस्तान तक। इन देशों में तुर्की, सीरिया, इराक, जॉर्डन, कुवैत, बहरीन, कतर, यूएई, ओमान, अफगानिस्तान, कज़ाखिस्तान, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया, जिबूती, सोमालिया, बोत्सवाना, कांगो, केन्या, इथोपिया, लेबनान, ट्यूनिशिया, माली, नाइजर, चाड, सेंट्रल अफ्रीका रिपब्लिक, युगांडा, गेबॉन, कैमरून, घाना, बुर्किना फासो, सेनेगल, स्पेन, बेल्जियम, इटली, जर्मनी, ग्रीस, साइप्रस, ब्रिटेन, आयरलैंड, क्यूबा, एसिसन द्वीप (यूके), डियोगा गार्सिया (यूके) शामिल हैं। दूसरा अमेरिका अपने व्यापारिक हितों को सबसे ऊपर रखता है। अमेरिका के पास दुनिया की सबसे आधुनिक सेना और हथियार हैं। दुनिया भर के देशों की सैन्य ताकत का आकलन करने वाली ग्लोबल फायर पॉवर इंडेक्स ने 2019 में 137 देशों की सेनाओं का लेखा-जोखा जारी किया है। इसके अनुसार ताकत के मामले में अमेरिका प्रतिद्वंद्वी देश ईरान से सामरिक शक्ति के मामले में बहुत आगे है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के मुताबिक, उसके दुनिया में 800 के करीब सैन्य ठिकाने हैं। इनमें 100 से ज़्यादा खाड़ी देश हैं, जहाँ 60 से 70 हज़ार अमेरिकी जवान तैनात हैं। पश्चिम एशिया में 70,906 अमेरिकी फौजी हैं, जबकि तुर्की में 2500, सीरिया में 2000, सऊदी अरब (संख्या पता नहीं), इराक में करीब 6000, जॉर्डन में 2795, कुवैत में 13,000, बहरीन में 7000, कतर में 7000, यूएई में 5000, ओमान में 600, जिबूती (संख्या सार्वजनिक नहीं) और भारत के पड़ोसी अफगानिस्तान में 5000 के करीब (तालिबान से समझौते के बाद) अमेरिकी सैनिक हैं। इस तरह देखा जाए, तो चीन के आसपास किसी देश में अमेरिका के सैनिक नहीं हैं। चीन से अमेरिका का जैसा छत्तीस का आँकड़ा चल रहा है; उसमें यदि वह भारत का साथ देता है, तो उसे अपने सैनिक भारत में उतारने होंगे। सैन्य विशेषज्ञों के मुताबिक, वह हमारे एयरबेस भी इस्तेमाल के लिए लेगा। युद्ध में मदद की स्थिति में अमेरिका भारत के सामने कुछ एयरबेस और अपने कुछ सैनिक स्थायी रूप से यही रखने की शर्त रख सकता है। भारत ऐसा करना पसन्द करेगा या नहीं, यह देखने वाली बात होगी। लेकिन उससे पहले बड़ा सवाल यह है कि मदद के मामले में अमेरिका का रुख रहेगा क्या? राष्ट्रपति ट्रंप को लेकर सभी जानकार मानते हैं कि ट्रंप व्यापारिक समझौतों को सबसे ऊपर रखते हैं। अभी से यह कहा जाने लगा है कि यदि ट्रंप दोबारा सत्ता में आते हैं, तो हो सकता है कि चुनाव के बाद वह चीन के साथ व्यापार के समझौते करने में रुचि दिखाएँ। हाल में संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी दूत रहे बॉल्टन ने हल में कहा था कि ट्रंप निश्चित रूप से भारत का साथ देंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं। ट्रंप भारत-चीन के इतिहास के बारे में लगभग अनभिज्ञ हैं और सिर्फ चार महीने बाद एक मुश्किल चुनाव उनके सामने है। वह खुद को युद्ध में किसी सूरत में नहीं फँसाना चाहेंगे। वैसे अमेरिका के पूर्व उप प्रमुख सचिव एलिस वेल्स ने हाल में कहा था कि चीन जिस तरह भारत की संप्रभुता के खिलाफ हमले कर रहा है, ऐसे में अमेरिका भारत का साथ देने आगे आयेगा। दूसरे अमेरिका के मदद लेने के लिए भारत को उसके गुट में शामिल होना होगा। अभी तक कांग्रेस की सरकारें वैश्विक स्तर पर भारत को एक निष्पक्ष देश के रूप में बनाये रखने में सफल रही हैं। इंदिरा गाँधी के ज़माने में रूस से भारत की दोस्ती और अमेरिका की तत्कालीन सत्ता से गहरे मतभेद थे; लेकिन तब भी भारत रूस के ब्लॉक का देश नहीं माना जाता था।