लोगों को भूख से छुटकारा और शुद्ध भोजन मिलना चाहिए जिसमें किसी किस्म की कोई मिलावट या ज़हर न हो, न ही कीटनाशक दवाओं के कण हों और न ही कोई गंदगी, यह हमारे मौलिक अधिकार में दिया गया है। इसके बावजूद जिस हवा में हम सांस लेते हैं, जो पानी हम पीते हैं, और जो भोजन हम करते हैं उसमें कीटनाशकों के कण मिलते हैं। भोजन में रेत, मिट्टी, चाक पाऊडर, गंदा तेल, कोलतार, डाई के रंग, पारा, सिक्का, कीटनाशक, लारवा आदि पाए जाते हैं। मछली में ‘फारमोलिन’ का बेतहाशा इस्तेमाल होता है। इसके अलावा चूहे इत्यादि भी इसमें ज़हर घोलते हैं।
खाद्य अपवर्तन अधिनियम 1954 और खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 जिसके तहत खाद्य नियंत्रक की नियुक्ति होती है के सही इस्तेमाल न होने के कारण भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) और दूसरी कानून लागू करने वाली एजेंसियां व टेस्ट करने वाली प्रयोगशालाएं खाद्य पदार्थों में मिलावट को बढ़ावा ही दे रही हैं।
खेतों में रसायनिक उर्वरकों का बेजां इस्तेमाल से इसके कण खाद्य पदार्थों में आ जाते हैं और इसके अलावा कोल्ड स्टोर्स और बाज़ारों में सही सफाई व्यवस्था का न होना तथा शीतल पेय समेत खाने की चीज़ों में मिलावट खाद्य सुरक्षा के लिए बड़े खतरे हैं। इसी का परिणाम है कि कैंसर, अलसर और दमें जैसी बीमारियां बहुत तेजी से बढ़ रही हंै। इसकी वजह असुरक्षित भोजन, दूध में यूरिया या साबुन की मिलावट, घी में जानवरों की चर्बी, लाल मिर्च में ईंटों का बुरादा वगैरा बेगैरत व्यापारियों द्वारा केवल भारी मुनाफा कमाने के लिए किया जाता है। इसमें भ्रष्ट अधिकारियों और प्रशासन की पूरी मिल भगत रहती है। इसी वजह से देश में लोगों की सेहत को भारी खतरा रहता है।
इन सबके होते नियंत्रक नियुक्त करने के बावजूद भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) भी ज़्यादा प्रभावी नहीं हो रहा। वह सिर्फ ‘प्रेसेसड’ भोजन पर यह लेबल चिपकाने का काम कर रहा है कि ‘एफएसएसएआई द्वारा प्रमाणित’। इससे आगे न तो वह कोई जांच करता है और न कोई नमूने लिए जाते हैं। इसमें लगातार चैकिंग भी नहीं होती। इसके परिणामस्वरूप इस पदार्थों को तैयार करने वाले व व्यापारी लोगों की सेहत को ऐसा नुकसान पहुंचा रहे हैं जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। खाद्य पदार्थों में मिलावट के साथ दूषित हवा और पानी के साथ हमारा स्वास्थ्य ढांचा यह सब आम लोगों की जेबों पर भी मार कर रहा है, क्योंकि लोगों की आय का बड़ा हिस्सा दवाइयों पर खर्च हो जाता है।
खाद्य पदार्थों में मिलावट का अनुमान इस बात से लगता है कि खाद्य व्यापार में भ्रष्टाचार एक संस्कृति बन चुका है। इसमें सभी शामिल हैं और अफसरों की कोई जबावदेही नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारें आराम से बैठी हैं और उन्हें लोगों की सेहत की कोई चिंता नहीं। जब तक संविधान की धारा 311 में संशोधन कर अधिकारियों और नौकरशाहों की जबावदेही सुनिश्चित नहीं की जाती तब तक इस व्यवस्था के रहते सुधार की कोई संभावना नहीं। इसके साथ ही अफसरों को ‘जनहित’ में किए जाने वाले अधिकार को खत्म कर उन्हें जनता के प्रति उत्तरदायी बनाना होगा।
केंंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक जांच में खाद्य प्रसंस्करण और खाद्य एंव उपभोक्ता मामलों की ओर से देश में खाद्य पदार्थों में बढ़ रही मिलावट पर कोई उत्तर तक नहीं मिला। कुछ भी हो हालात को सुधारने के लिए उपभोक्ता को इस मामले में अधिक जागरूक करने की ज़रूरत है। उन्हें उपभोक्ता के अधिकारों के बारे में बताने की ज़रूरत है। समय की मंाग है कि खाद्य पदार्थ बेचने वाले स्थलों की नियमित जांच हो ताकि वहां कोई वैक्टीरिया न पनपे जो खाने की चीज़ों को खराब कर सके। लोगों को जागरूक करने के लिए मीडिया की सहायता भी ली जानी चाहिए।
गलियों में खाद्य पदार्थ बेचने वाले मिलावटी भोजन के एक बड़े स्त्रोत हैं। वे खुले में बैठते हैं जहां दूषित हवा और पानी खाने की चीज़ों को प्रभावित करता है। असुरक्षित पीने का पानी सबसे ज़्यादा खतरनाक है। इस प्रकार खाद्य पदार्थों में मिलावट लगातार चल रही है। सरकार ने पूरे देश में स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर बहुत पहले 30 बड़े खाद्य पार्क निर्मित करने को मंजूरी दी थी पर वे अभी कहीं नजऱ नहीं आ रहे। आरगेनिक खेती भी इसका कोई पुख्ता समाधान नहीं है। वैसे भी इस तरह की खेती पर खर्च बहुत ज़्यादा आता है। असल में इस तरह के मामले में वैज्ञानिक सोच और अध्ययन की ज़रूरत है। साथ ही बार-बार खाद्य पदार्थों के नमूने भरे जाने चाहिए ताकि लोगों को शुद्ध आहार मिल सके।