दिन भर अलवर ज़िले के बहरोड का दौरा करने के बाद शाम को जब पुलिस महानिदेशक भूपेन्द्र यादव ने पुलिस लाइन की सम्पर्क सभा में हिस्सा लिया, तो उनके तंज में सने पहले शब्द थे; कुछ पुलिस कर्मियों ने वर्दी पहन कर लूटने की छवि बना ली है। यह बयान उन्होंने बदमाशों द्वारा बहरोड़ थाने पर हमला कर गैगस्टर पपला को छुड़ा ले जाने पर दिया था। पुलिस को जहाँ बदमाशों से जमकर मोर्चा लेना था, वे जान बचाकर भाग छूटे? घटना का पहलू चौंकाने वाला था। पुलिस ने पहले गैंगस्टर को छोडऩे के लिए पपला के साथियों के साथ जमकर सौदेबाज़ी की । सौदा एक लाख तक पहुँच गया। लेकिन सौदेबाज़ी 15 लाख पर अटक गयी। थाने की चाक-चौबंदी ढुलमुल देखकर उनका मन पलट गया और वे हमला कर पपला को ले भागे। बड़ा सवाल है कि पुलिस दूध की घुली थी, तो बदमाशों की धर पकड़ के लिए कंट्रोल रूम से नाकेबंदी क्यों नहीं की जा सकी? पपला को भगाने की योजना को कारआमद करने वाले हैंडकांस्टेबल विजय और राम अवतार को बेशक बर्खास्त कर दिया गया। लेकिन बड़ा सवाल है कि उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? अपराधियों से पुलिस की सौदेबाज़ी साबित करने वाली ऐसी घटनाओं का कोई अन्त नहीं है।
यह घटना, जिसे सुॢखयाँ लिखने वालों ने लुटेरी पुलिस करार दिया है; इस अवधारणा को पुख्ता करती है कि थानों पर चस्पा स्लोगन, ‘आमजन का विश्वास और बदमाशों में खौफ’ कोरा झूठ है। इस घटना की आँच भी ठण्डी नहीं पड़ी थी कि हथियारबंद चार लुटेरों ने सीकर के कुंदन कस्बे में क्षेत्रीय बड़ौदा बैंक लूट लिया। लुटेरों ने बैंककर्मियों को मारपीटकर कमरे में बन्द कर दिया और डेढ़ लाख रुपये लूटकर भाग गये। दिलचस्प बात है कि इससे पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पुलिस अफसरों की बैठक में बदमाशों पर सख्ती और आमजन से संवेदनशील व्यवहार करने की नसीहत देकर हटे ही थे कि खोह नागोरियन इलाके में पुलिस ने सारी हिदायतें दरकिनार कर आम लोगों की जमकर धुनाई कर दी। इस बर्बर लाठीचार्ज में पुलिस ने पत्रकारों को भी नहीं बख्शा। वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत कहते हैं कि यह घटनाएँ बताती है कि पुलिस किस अँधेरी गुफा में सोयी हुई है। जिस पुलिस को पेशेवर बनाने का ताना-बाना बुना जा रहा है, उस खाकी वर्दी पर कितने दाग और धब्बे हैं? इस तरह की घटनाएँ यहीं तक सीमित नहीं हैं। जोधपुर के सोशल मीडिया पर हथियारबंद गुण्डों 007 का वायरल मैसेज तो सीधा चुनौती देता है- ‘हमसे न टकराना…।’ वरिष्ठ पत्रकार पंत कहते हैं कि राजस्थान की हवा में घुलता अपराध का ज़हर डराने वाला है। इस सवाल के जवाब में कि सूबे में एक के बाद एक संगीन और गम्भीर अपराध हुए है और राष्ट्रीय स्तर की बहस का हिस्सा भी बने? जीडीपी यादव ने स्वीकार किया कि किसी भी घटना का ज़िक्र किये बिना में स्वीकार करता हूँ कि जैसा होना चािहए कुछ मामलों में वैसी कार्रवाई नहीं हुई।
राजस्थान में ड्रग, हथियार, सट्टा और बजरी माफिया पूरी रफ्तार के साथ बढ़ रहा है। इसको बढ़ावा देने के पीछे सरकारी एजेंसियों का बड़ा हाथ होना बताया जा रहा है। मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि माफिया से साँठ-गाँठ कर चलने वाले सरकारी महकमों के कई अफसरकर्मियों को मोटी रकम मिल जाती है। इनके िखलाफ सभी महकमों और प्रदेश की संयुक्त सुरक्षा एजेंसी या अन्य विभागों की टीम का गठन नहीं होना भी बड़ा कारण है। माफिया बेरोज़गारों को मोटी रकम कमाने की लालच देकर अपराध के दलदल में धकेल रहे हैं। भ्रष्टाचार ही तो उन्हें सर्वशक्तिमान बना रहा है। लेकिन डीजीपी भूपेन्द्र सिंह कहते हैं- ‘पुलिस सडक़ पर दिखती है, इसलिए सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं।’ लेकिन वे कहते हैं- ‘ऐसा कहना भी गलत है कि पुलिस में सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार है।’ हालाँकि यादव अपने कथन को नये सिरे से भी पकड़ते नज़र आते हैं कि बस लोगों में पुलिस को लेकर यह धारणा बनी हुई है। डीजीपी के इस मुहावरेदार फलसफे को मान लिया जाए, तो मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार को लेकर बार-बार पुलिस निजाम को फटकार क्यों लगा रहे हैं? अपराध शास्त्रियों का कहना है कि इसे केवल धारणा मान लिया जाए, तो पिछले दिनों टोंक ज़िले के पीपलू, जयपुर के कोटपुतली और जोधपुर के बासनी थानाधिकारियों पर एसीबी की कार्रवाई को क्या कहा जाना चाहिए? जो बजरी माफिया की मुरादें पूरी करने का कवच बने हुए थे। गैंगस्टरों के साथ पुलिस का गठजोड़ क्या ‘वर्दीद्रोह’ की श्रेणी में नहीं आता? डीजीपी यादव कहते हैं- ‘वर्दी द्रोह’ बहुत गम्भीर शब्द है। वर्दी द्रोह पुलिस द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार अथवा गलत कामों के आगे की श्रेणी में आता है। मीडिया विश्लेषक कहते हैं कि …तो फिर हाल ही में एक गैंगस्टर की पार्टी में शिरकत करते पाये गये कोटा पुलिस अधीक्षक के निजी सहायक, गनर समेत डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों को महज़ मुअत्तिल करके क्यों छोड़ दिया गया? क्यों उन्हें बर्खास्त नहीं किया गया? क्यों यह कारस्तानी ‘गलत कामों से आगे की श्रेणी में शुमार नहीं की गयी? ज़ाहिर है उनकी आगे-पीछे बहाली होनी ही है। लेकिन ‘भरोसे’ का तिलस्म तो टूट ही गया? इन दिनों राजस्थान अवैध हथियारों की तस्करी का सबसे मुफीद ठिकाना बन गया है। इनकी खेप सबसे ज़्यादा सरहदी इलाकों में उतर रही है। जो आगे जाकर क्या गुल खिला सकती है? यह कहने की ज़रूरत नहीं? लेकिन सवाल है कि इस चुनौती का चक्रव्यूह तोडऩे में पुलिस क्यों खम ठोकने की स्थति में नहीं है? वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं- ‘अपराधियों का बेखौफ होना आमजन के विश्वास को तोड़ता है। जब लोगों का भरोसा ही नहीं जमेगा, तो पुलिस का इकबाल तो पस्त होना ही है। एक अध्ययन में कहा गया है कि पुलिस आपराधिक घटनाओं की तफ्तीश और कानून-व्यवस्था दो तरह के कामों में तालमेल नहीं बिठा पा रही है। थानों में तैनात जाप्ता अधिकारी ही जाँच करते हैं और वे ही कानून-व्यवस्था की ड्यूटी करते हैं। इसको लेकर तो हाईकोर्ट भी चिन्ता जता चुका है। लेकिन हुआ क्या? व्यवहार को लेकर तो पुलिस पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन बदसलूकी की घटनाएँ है कि थमने का नाम नहीं ले रही है। मीडिया विश्लेषकों का दो टूक सवाल है कि आिखर साधन-सोच की जंज़ीरों से पुलिस कब आज़ाद होगी? यहाँ दिल्ली के सेंटर फोर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसाइटीज का ताज़ा अध्ययन काफी प्रासंगिक है कि किसी भी पुलिस बल का मूलभूत निवेश उसके लोग और संसाधन होते हैं। लेकिन पुलिस बल आज भी इन दोनों ही मोर्चों पर पटखनी खा रहा है। विश्लेषक महेश भारद्वाज कहते हैं- ‘कानून-व्यवस्था की किसी भी स्थिति के लिए पुलिस को दोषी ठहराना कोई नया चलन नहीं है। क्योंकि असल में तो पुलिस तंत्र की स्थापना ही कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए की गयी थी। लेकिन भारद्वाज कहते हैं- ‘हालात जो भी हो, आिखर तो पुलिस की इस स्थिति के लिए बराबर ज़िम्मेदार तो पुलिस संस्कृति ही है। सवाल है कि कार्य संस्कृति में बदलाव कैसे होगा? अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक रह चुके योगेन्द्र जोशी कहते हैं- ‘पुलिस की सुस्ती ही अपराधियों को सक्रिय कर देती है। शातिर अपराधियों के विरुद्ध जब तक सख्त कार्रवाई नहीं होगी, उनमें भय कैसे पैदा होगा?
वरिष्ठ पत्रकार राजेश त्रिपाठी कहते हैं- ‘दरअसल पुलिस संस्कृति की असली हकीकत तो पुलिस अपराधियों का गठजोड़ है। यह पुलिस निजाम का सबसे बदसूरत चेहरा है। ऐसे में पुलिस आमजन के बीच भरोसे की खातिर तरसेगी नहीं तो क्या होगा?’ बहरहाल इस गठजोड़ के लिए बुरी खबर हो सकती है कि पुलिस सुपर कॉप ने आपरेशन क्लीन चलाने की ठानी है। पुलिस सुप्रीमों का कहना है कि ऐसे लोगों की फेहरिश्त तैयार की जाएगी, जिनका स्वार्थ सेवाओं पर भारी पड़ रहा है। उनका कहना ठहरे हुए पानी में काई जमने की मानिंद है कि वर्षों से एक ही जगह टिके रहने से स्थानीय स्तर पर सम्बन्ध बन जाते हैं। कई मर्तबा हमें पता ही नहीं चलता है कि रिश्ते निभाने की कोशिश में जुटा शख्स कब अपराध में उतर गया? पुलिस सुप्रीमों का यह बयान अगर एक हलफनामें की तरह है, तो उम्मीद की जा सकती है। लेकिन यह ‘मवाद’ जिस खोल में दबा हुआ है, उसे उधेडऩा आसान नहीं होगा? खासकर उस वक्त जब ‘माफिया’ पूरी दबंगई के साथ कानून के दुश्मन बने हुए हैं और पुलिस का इकबाल ढलान की नयी मंज़िलें नाप रहा है? क्या माफिया मुक्त प्रदेश का दावा किया जा सकता है? एक छोटी मिसाल के तौर पर दिन-दहाड़े शहर में दबंगों की जंग छिड़ी, नतीजतन रणवीर चौधरी सरेआम हलाक हो गया? पुलिस को क्या भनक नहीं लगी? राजधानी के सबसे पोश इलाके प्रताप नगर में एक महिला और उसका मासूम कत्लोगारद का शिकार हो गया? पुलिस क्या ऊँघ रही थी? पूर्व डीजीपी ओमेन्द्र भारद्वाज कहते हैं- ‘अपराधों पर रोकथाम तभी हो पाएगी, जब पुलिस में तबादलों और तफ्तीश में राजनीतिक हस्तक्षेप रुकेगा।’ ऐसे में पुलिस अधिकारी जनसेवक नहीं होकर जनप्रतिनिधि सेवक होकर रह जाता है।
असल में सुरक्षा के दावे होना फरेब है, जिसे पुलिस निजाम जितनी शिद्दत से रचती है। माफिया पूरी दबंगई से उसे ध्वस्त कर देता है। बहरहाल, सरकार माफिया की जन्नतों को नोंचने की जुगत में नज़र आ रही है। मुख्यमंत्री गहलोत ने इसके लिए गृह मंत्रालय के अधिकारियों को अभियान चलाने की हरी झंडी दे दी है। उन्होंने संगठित माफिया पर शिकंजा कसने के लिए स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप और सीआईटी (सीबी) को आदेश दिये है। उसके लिए अफसरों से लेकर कांस्टेबलों को अलग से प्रशिक्षण दिया जाएगा। मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि बेशक यह सुकून देने वाली खबर है। लेकिन इस पर एत्तमाद रखना पुलिस निजाम के लिए ज़रूरी होगा। क्योंकि सरकारों के अभियान अक्सर समस्याओं में इज़ाफा कर देते हैं। पुलिस महानिदेशक भूपेन्द्र सिंह प्रदेश में सक्रिय संगठित माफियाओं का खाका खींचते हुए भू-माफिया, बजरी माफिया, मानव तस्कर कोचिंग और भर्ती माफिया से लेकर मिलावटखोर माफिया का ज़िक्र तो करते ही हैं। लेकिन दबंगई के साथ खूनी खेल खेलने के महारथी तथा सोशल मीडिया के ज़रिये ब्लेकमेल करने वाले भी इतनी ही दीदादिलेरी के साथ सक्रिय है। सेवानिवृत्त अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चंद्र सिंह की मानें तो पुलिस के लिए थानों में बैठे रहने की अपेक्षा गश्त ज़रूरी है। इससे लोगों से सम्पर्क बना रहता है। अपराधों पर नियंत्रण तभी हो पायेगा, जब इत्तला मिलते ही कार्रवाई हो?