मिल्खा सिंह (20/11/1929 —- 18/06/2021)
अधूरे ख़्वाब दिल में लेकर मिल्खा सिंह चले गये। ऐसा ख़्वाब, जो कोई देश-प्रेमी, सभी से प्रेम करने वाला महान् खिलाड़ी ही देख सकता है। यह ख़्वाब था- किसी भारतीय को ओलंपिक खेलों में एथलेटिक्स का पदक जीतते देखने का। यह किसी सामान्य खिलाड़ी का नहीं, बल्कि उस बड़े खिलाड़ी का ख़्वाब था, जिसने न केवल ट्रैक पर अपनी हिम्मत का लोहा मनवाया, बल्कि मौत के साथ भी जमकर जंग लड़ी। एक ख़ला पैदा हो गयी मिल्खा सिंह के जाने के बाद। आँखों के आगे कई मंज़र घूम जाते हैं।बात सन् 1958 की है। कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों की 400 मीटर दौड़ के फाइनल के लिए तैयारी हो चुकी थी। आठ धावक दौडऩे को तैयार थे। दर्शकों में केवल दो-तीन ही भारतीय थे, जिनमें देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी भी शामिल थीं। दौडऩे वालों में विश्व रिकॉर्डधारी दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम क्लाइव स्पेंस भी थे, जिनके होने से ही धावकों के पसीने छूटते थे। सभी की निगाहें उन्हीं पर टिकी थीं। इसी दौड़ में एशियन खेलों में 400 मीटर दौड़ के विजेता ‘उडऩ सिख मिल्खा सिंह भी थे।
पर वह किसी गिनती में नहीं थे। उन्हें ज़्यादातर लोग पहचानते तक नहीं थे। सभी की निगाहें विश्व चैंपियन स्पेंस पर थीं। लेकिन जब दौड़ शुरू हुई, तो कुछ और ही नज़ारा था। एक अनजान-सा धावक मिल्खा सिंह बढ़त पर था। हालाँकि दर्शकों को यह मिल्खा सिंह की शुरूआती जोश की एक बड़ी कोशिश दिख रही थी और वे मानकर चल रहे थे कि बाद में उन्हें विश्व चैंपियन स्पेंस पछाड़ देंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मिल्खा सिंह ने जो बढ़त ली, वह अंत तक नहीं छोड़ी। बोर्ड पर नाम आया- ‘मिल्खा सिंह भारत अव्वल। दर्शक हतप्रभ थे। हज़ारों भारतीयों की आँखों में ख़ुशी के आँसू छलक आये। सभी दर्शकों की नज़र में एक अनहोनी-सी घट गयी थी; लेकिन हक़ीक़त में एक नया इतिहास लिखा जा चुका था। विश्व चैंपियन दूसरे स्थान पर खिसक गया, जिसका मलाल उसके तथा उसके चाहने वालों के चेहरे पर उस समय साफ़ झलक रहा था। मिल्खा सिंह का समय 46.6 सेकेंड्स था और स्पेंस ने यह दौड़ 46.9 सेकेंड्स में ख़त्म की।
कार्डिफ की इस दौड़ के बारे में मिल्खा सिंह बताते थे कि इस दौड़ की पूरी रणनीति उनके अमेरिकन कोच डॉक्टर ऑर्थर डब्ल्यू हावर्ड ने तैयार की थी। फाइनल दौड़ से पहली रात को वह चारपाई पर मिल्खा सिंह के साथ बैठे और टूटी-फूटी हिन्दी में कहा- ‘मैं तुम्हें स्पेंस की रणनीति के बारे में बताता हूँ और साथ ही यह भी कि तुम्हें क्या करना है?Ó दौड़ जीतने के बाद मिल्खा सिंह ने कहा था- ‘उसी रणनीति के तहत मैंने पहले 350 मीटर में ही अपना पूरा ज़ोर लगा दिया। जैसा डॉक्टर आर्थर ने कहा था, वैसा ही हुआ। स्पेंस अपनी रणनीति भूलकर मेरी रणनीति पर चल पड़ा था। फिनिश लाइन के पास मैंने उसे अपने काँधे के पास पाया, पर तब तक देर हो चुकी थी।Ó कुल मिलाकर मिल्खा सिंह स्वर्ण पदक जीतकर एक इतिहास रच चुके थे, जिसका भरोसा दर्शकों को तो था ही नहीं, स्पेंस को तो बिल्कुल भी नहीं था। कार्डिफ का यह स्वर्ण पदक शायद मिल्खा सिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके बाद आज तक कोई भारतीय राष्ट्रमंडल खेलों की किसी ट्रैक स्पर्धा में कोई पदक नहीं जीत पाया। इस दौड़ के बारे में ख़ुद मिल्खा सिंह कहते थे कि उन्होंने दौड़ शुरू होने से पहले ज़मीन पर माथा टेका और भगवान से कहा- ‘मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगा, पर भारत का सम्मान आपके हाथ है। दौड़ते हुए मैंने देखा कि स्पेंस बिल्कुल मेरे काँधे के पास आ गया है। वह मुझे पकडऩे वाला था, पर मैंने आधा फुट के अन्तर से उसे हरा दिया।
विश्व रिकॉर्ड तोड़ा
कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों की जीत के दो साल बाद रोम (1960) में मिल्खा सिंह की अग्नि परीक्षा थी। मुक़ाबला बहुत कड़ा था। उस समय विश्व रिकॉर्ड 45.9 सेकेंड का था। सभी धावक इस पर नज़र रखे हुए थे। भारत को मिल्खा सिंह से पदक की उम्मीद थी। इस दौड़ में भी स्पेंस थे, जिन्हें मिल्खा सिंह ने कार्डिफ में हराया था। इसके अलावा अमेरिका के ओटिस डेविस और जर्मनी के कार्ल कौफमैन भी मज़बूत दावेदार थे। दौड़ की शुरुआत में मिल्खा सिंह काफ़ी मज़बूत दिखे पर आधी दौड़ के बाद पिछड़ते नज़र आये। इसके बारे में मिल्खा का कहना है कि उनसे थोड़ी चूक हो गयी और स्पेंस ने एक सेकेंड के 10वें भाग से उन्हें पछाड़कर न केवल कार्डिफ की हार का बदला चुकाया, बल्कि मिल्खा के हाथों से कांस्य पदक भी छीन लिया। ओटिस डेविस और कौफमैन दोनों ने 45 सेकेंड का बैरियर तोड़ा। यह पहला मौक़ा था, जब 400 मीटर की दौड़ 45 सेकेंड्स से कम समय में पूरी की गयी हो। डेविस ने 44.9 सेकेंड्स के साथ नया ओलंपिक और विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया। मिल्खा सिंह का समय 45.73 सेकेंड्स रहा। इस तरह पहले चारों ने पिछला विश्व रिकॉर्ड तोड़ दिया।
एक चूक का अफ़सोस
रोम में पदक न जीत पाने का मलाल मिल्खा सिंह को ता उम्र रहा। वह अक्सर कहा करते थे- ‘रोम में मैंने एक पदक नहीं खोया, बल्कि आने वाले धावकों के सामने एक आदर्श रखने का बड़ा अवसर गँवा दिया। अगर मैं रोम में पदक जीत जाता, तो आज देश के पास एक आदर्श होता और जमैका की तरह देश के हर घर से एथलीट निकलते। मैं रोम में एक पदक नहीं चूका, बल्कि मैं देश को एक रोल मॉडल और सपने देने से चूक गया। पीटी उषा, श्रीराम सिंह, गुरबचन सिंह रंधावा जैसे धावक भी ओलंपिक पदक से चूके। उनसे भी देश को बहुत उम्मीदें थीं। अगर हम सब पदक जीत गये होते, तो एथलेटिक्स के प्रति युवाओं में वही आकर्षण होता, जो ध्यानचंद के समय हॉकी का और सन् 1983 में क्रिकेट विश्व कप जीतने के बाद क्रिकेट का था।
सच तो यह है कि कोई सच्चा देशभक्त खिलाड़ी ही अपनी हार पर ज़िन्दगी भर पछता सकता है, वरना तो आजकल कुछ ऐसे खिलाड़ी भी हैं, जो अपनी हार पर एक बार भी शर्मिंदा नहीं होते। और ऐसे भी, जो देश की प्रतिष्ठा और खेल में मिले सम्मान को ताक पर रखकर हत्या जैसे जघन्य अपराध तक में शामिल हो चुके हैं।
मक्खन सिंह का खौफ़
सन् 1960 ओलंपिक खेलों में विश्व रिकॉर्ड तोडऩे वाले मिल्खा सिंह को उस समय बड़ा झटका तब लगा, जब 1962 में कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में मक्खन सिंह ने मिल्खा सिंह को बुरी तरह पछाड़ दिया। अपने छोटे से खेल जीवन में मक्खन ने राष्ट्रीय स्तर पर 12 स्वर्ण, एक रजत और तीन कांस्य पदक जीते। मिल्खा सिंह ख़ुद कहते थे कि उन्हें सबसे ज़्यादा डर मक्खन सिंह से लगता है। मक्खन को वह एक बेहतरीन धावक मानते थे। मिल्खा सिंह का कहना था कि सन् 1962 के राष्ट्रीय खेलों के बाद उन्होंने 400 मीटर की वैसी दौड़ कभी नहीं देखी। वो मक्खन को पाकिस्तान के अब्दुल ख़ालिक से बेहतर धावक मानते थे।
देखा जाए तो मिल्खा सिंह एक किंवदंती (लेजेंड) थे। वह सभी के प्रेरणा स्रोत भी रहे और उनके कारनामे लोक-कथाओं के रूप में प्रचलित हुए। राष्ट्रीय स्तर पर उनके बेतहाशा रिकॉड्र्स हैं। सन् 1060 का 400 मीटर का उनका राष्ट्रीय रिकॉर्ड 40 साल तक तो नहीं टूटा। उनका सपना था कि उनकी आँखों के सामने कोई भारतीय धावक ओलंपिक का पदक जीते। वह उसे विक्ट्री स्टैंड पर देखना चाहते थे। यह सपना देखने वाला एक महान् खिलाड़ी अब हमारे बीच नहीं रहे। बस रह गये, तो उनके अधूरे ख़्वाब।
‘फ्लाइंग सिख नाम जनरल अयूब ने दिया
पाकिस्तान और भारत के बीच एक दोस्ताना दौड़ करवाने की बात सन् 1960 में चल रही थी। भारत भी तैयार था, पर मिल्खा सिंह मुकर गये। असल में देश के विभाजन के समय उन्होंने वहाँ जो भोगा था, उसकी कड़ुवी यादें इस फ्लाइंग सिख (उडऩ सिख) के ज़ेहन में ताज़ा थीं। उन्होंने बचपन में ख़ून-ख़राबा देखा था। अपने रिश्तेदार मरते देखे थे। वह ख़ुद बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भागे थे। इन हालात में वह पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। पर सवाल देश की अस्मिता का था। आख़िर प्रधानमंत्री पंडित जवाहलाल नेहरू को दख़ल देनी पड़ी। उन्होंने मिल्खा सिंह को बुलाया और उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए मना लिया। लगभग 13 साल बाद मिल्खा सिंह उस धरती पर थे, जहाँ से कभी वह शरणार्थी बनकर निकले थे। आज उसी धरती पर उनका स्वागत था। असल में उनका मुक़ाबला पाकिस्तान के धावक अब्दुल ख़ालिद के साथ था।
सभी को एक कड़े मुक़ाबले की आस थी। पर ट्रैक पर मिल्खा सिंह कुछ और ही सोच के साथ उतरे थे। उन्होंने ऐसी दौड़ लगायी कि ख़ालिद कहीं पीछे ही छूट गया। वह मुक़ाबले में भी नहीं था। संयोग से इस दौड़ को देखने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान भी आये थे। वह मिल्खा की दौड़ पर हैरान थे। उन्होंने वहीं मिल्खा सिंह से कहा- ‘तुम दौड़ते नहीं, उड़ते हो। तुम तो फ्लाइंग सिख (उडऩ सिख) हो। जनरल अयूब ख़ान ने ही मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिख के नाम से सम्बोधित करना शुरू किया, जो आगे चलकर मिल्खा सिंह के नाम का पर्याय बन गया। खिलाड़ी आख़िर खिलाड़ी होते हैं। बाद में ख़ालिद और मिल्खा सिंह के बीच बहुत गहरे सम्बन्ध बन गये थे, जो ताउम्र जारी रहे। ख़ालिद के बेटे ने एक साक्षात्कार में इसकी पुष्टि भी की है।