आज के समय में गंदगी एक ऐसी समस्या है, जिससे छुटकारा पाना एक चुनौती बन चुका है। आमतौर पर लोग इस गंदगी से बचने के लिए जो साफ़-सफ़ाई करते हैं, वो उनके घरों तक ही सीमित है। लेकिन वो भूलते हैं कि वे कई तरह से गंदगी कर रहे हैं, जिसका समाधान महज़ घर में साफ़-सफ़ाई से नहीं हो सकता। ऐसी ही गंदगी जो हर आदमी रोज़-रोज़ करता है, वो है पानी को गंदा करना।
विडंबना यह है कि अभी हाल ही में विश्व जल दिवस पर जल संचय से लेकर जल को साफ़ करने पर दुनिया भर की सरकारों और सरकारी व ग़ैर सरकारी संगठनों ने लम्बे-चौड़े वादे किये और भाषण दिये; लेकिन पानी में बढ़ रही गंदगी को लेकर किसी ने कुछ नहीं बोला।
अब एक रिपोर्ट में ख़ुलासा हुआ है कि भारत में गंदे पानी की मात्रा बढ़ती जा रही है। यह रिपोर्ट डराने वाली भी है और चौंकाने वाली भी। लेकिन विडंबना यह है कि इस रिपोर्ट को लेकर भारत में एक ख़ामोशी छाई हुई है। काउंसिल आन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) की एक अध्ययन रिपोर्ट ‘रियूज ऑफ ट्रीटेड वेस्टवाटर इन इंडिया’ में कहा गया है कि साल 2050 तक देश में गंदे पानी की मात्रा 35,000 मिलियन क्यूबिक मीटर से ज़्यादा हो जाएगी। यह तब है जब देश के विभिन्न इलाक़ों में जल शोधन संयत्रों द्वारा लगातार काफ़ी पानी शोधित करके पीने योग्य बनाया जा रहा है। सीईईडब्ल्यू की रिपोर्ट में कहा गया है कि शोधित गंदे पानी (उपचारित अपशिष्ट जल) की बिक्री की व्यवस्था हो, तो साल 2025 में इसका बाज़ार मूल्य 83 करोड़ रुपये होगा, जो कि 2050 में 1.9 अरब रुपये तक पहुँच जाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक, अनुमानित सीवेज उत्पादन और शोधन क्षमता के आधार पर साल 2050 तक निकलने वाले बेकार पानी के शोधन से जितना पानी मिलेगा, उससे दिल्ली से 26 गुना बड़े क्षेत्रफल की सिंचाई की जा सकती है। और इसकी संभावनाएँ हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार इसका प्रयास करेंगी?
सीईईडब्ल्यू की रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ़ साल 2021 में निकलने वाले गंदे पानी के दोबारा उपयोग में 28 मिलियन मीट्रिक टन फल-सब्ज़ी उगाने की क्षमता थी। इतना ही नहीं, इससे इस जल शोधन से क़रीब 966 अरब रुपए का राजस्व सरकार को मिल सकता था और 1.3 मिलियन टन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने से लेकर कृषि के लिए उपयोग की जानी वाली उर्वरकों का इस्तेमाल घटाते हुए पाँच करोड़ रुपये की बचत की जा सकती थी।
बता दें कि सीईईडब्ल्यू ने अपनी विश्लेषण रिपोर्ट में केंद्रीय जल आयोग के आकलनों का उपयोग भी किया है। यह आकलन बताता है कि साल 2025 तक भारत की 15 प्रमुख नदियों में से कम-से-कम 11 नदियों में पानी की कमी हो जाएगी, जो कि काफ़ी चिंताजनक तथा पानी की बढ़ती कमी में एक बड़ा इज़ाफ़ा होगा। रिपोर्ट में इसका समाधान बताते हुए कहा गया है कि अगर भारत को इस समस्या को कम करना है, तो उसे पानी की मांग और आपूर्ति में मौज़ूद अन्तर को तेज़ी से भरने के लिए वैकल्पिक जल स्रोतों को खोजना होगा, जो कि उसके लिए बेहद ज़रूरी है।
अगर हम केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के 2021 के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि भारत में प्रतिदिन जितने सीवेज निकलते हैं, उनके 28 प्रतिशत हिस्से के पानी का ही शोधन हो पाता है, जबकि 72 प्रतिशत सीवेज का पानी अनुपचारित यानी ग़ैर-शोधन के नदियों में जाकर गिरता है। कहने का मतलब यह है कि देश में जितना पानी नालियों से होता हुआ सीवरेज के माध्यम से हर रोज़ निकलता है, उसका 72 प्रतिशत हिस्सा यानी गंदा पानी देश की जीवनदायिनी स्वच्छ नदियों के ताज़े जल स्रोतों में मिलकर उसे दूषित कर रहा है।
सीईईडब्ल्यू की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में से सिर्फ़ 10 राज्यों में ही गंदे पानी को शोधन करके उसे दोबारा उपयोग करने की नीतियाँ बनी हुई हैं। इसका मतलब बाक़ी के 26 राज्यों में अभी भी ज़्यादातर गंदा पानी नदियों में जाकर मिलता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि जिन 10 राज्यों में से भी ज़्यादातर की नीतियों में गंदे पानी के अंतिम उपयोगकर्ताओं के लिए कोई प्रोत्साहन शामिल नहीं है। मतलब पानी के दोबारा उपयोग के लिए ख़ास गुणवत्ता मानकों को परिभाषित नहीं किया जा रहा है। राज्यों की नीतियों में शोधित बेकार पानी के गुणवत्ता मानकों के प्रविधान सिर्फ़ सुरक्षित डिस्चार्ज मानकों तक ही सीमित हैं। सीईईडब्ल्यू की रिपोर्ट में पानी को शोधित करने के लिए कई सुझाव भी दिये गये हैं। भारत गंदे पानी को जल संसाधनों का अभिन्न हिस्सा बनाये। इसके लिए वह जल शोधन को जल प्रबंधन की सभी नीतियों, योजनाओं और विनियमों में शामिल करे। गंदे पानी के सुरक्षित डिस्चार्ज और दोबारा उपयोग के लिए जल गुणवत्ता मानकों को भी भारत अच्छी तरह से परिभाषित करे और जोखिम को घटाने के दृष्टिकोण के साथ-साथ सही और तय समय पर समीक्षा करे। इसके साथ-साथ भारत गंदे पानी के दोबारा उपयोग के लिए शहरी स्थानीय निकायों की भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों को भी साफ़ तौर पर परिभाषित करे, ताकि लोगों को स्वच्छ पानी भी मिल सके और गंदे पानी की मात्रा को कम किया जा सके।
हमें समझना होगा कि आज हर घर से साबुन युक्त गंदा पानी कई सौ लीटर निकलता है, जो नालियों से होता हुआ सीवरेज के ज़रिये सीधे नदियों में जाकर मिलता है। क्या आपने कभी सोचा है कि इस पानी में केवल साबुन ही नहीं होता, बल्कि कई तरह के केमिकल और मानव मल भी मिला होता है। ऊपर से लोग नाले-नालियों में कूड़ा आदि डाल देते हैं।
हाल ही में करौली शहर में गंदे पानी की सप्लाई को लेकर लोगों ने विरोध जताया है। शहर की महिलाओं ने गंदा पानी बोतलों में भरकर प्रशासनिक अधिकारियों को दिखाया कि उन्हें कितना गंदा पानी पीने को मिल रहा है। हमें पता होना चाहिए कि अगर हम गंदा पानी पीते हैं या उसे खाना बनाने के उपयोग में लेते हैं, तो कई बीमारियाँ हमें होती हैं। गंदा पानी न सिर्फ़ पाचन क्रिया को प्रभावित करता है, बल्कि इससे कई भयंकर बीमारियाँ भी होने का ख़तरा रहता है। गंदा पानी हमारे शरीर में बीमारियाँ पैदा करने के साथ-साथ दिमाग पर भी उलटा असर डालता है।
सवाल यह है कि हमारी धरती पर बढ़ती गंदगी हम इंसानों के लिए कितनी घातक है, इसकी चिन्ता कौन करेगा? ज़ाहिर है वे लोग तो नहीं करेंगे, जो सुख से अपने बड़े-बड़े महलों में ठाठ से रह रहे हैं। इस पर आम लोगों को ही विचार करना होगा और पानी को जितना हो सके, कम-से-कम दूषित करने का प्रयास करने होंगे। अगर अभी से इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया, तो यह आने वाले समय में घातक सिद्ध होगा।