कोरोना महामारी ने देश की अर्थ-व्यवस्था को बहुत ज़्यादा कमज़ोर कर दिया है, जिसे फिर से मज़बूत करके ही लोगों को आॢथक रूप से सबल बनाया जा सकता है। यह तभी मुमकिन हो सकता है, जब खर्च में बढ़ोतरी हो। लोग खर्च करेें, तभी माँग में वृद्धि होगी। इससे उत्पादन व रोज़गार बढ़ेगा और लोग आत्मनिर्भर होंगे तथा विकास को बल मिलेगा। चूँकि महामारी की वजह से करोड़ों लोग रोज़गार से महरूम हो चुके हैं और स्व-रोज़गार करने वालों का भी लगभग चार महीने से काम-धन्धा ठप पड़ा हुआ है। यही वजह है कि लोग खर्च नहीं कर रहे हैं। जिनके पास पैसे हैं, वे भी अनावश्यक खर्च से परहेज़ कर रहे हैं। इसलिए आॢथक विकास को गति देने के लिए सरकार अब केंद्रीय सार्वजनिक कम्पनियों को खर्च करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। चालू वित्त में देश की 23 केंद्रीय सार्वजनिक कम्पनियों के पूँजीगत खर्च का लक्ष्य एक लाख 65 हज़ार 510 करोड़ रुपये है। अगर ये कम्पनियाँ अपने पूँजीगत खर्च के लक्ष्य को पूरा करती हैं, तो विकास की गति बढ़ सकती है। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इन कम्पनियों के शीर्ष प्रबन्धन के साथ बैठक करके उन्हें इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कहा है।
जान के साथ जहान को बचाने के लिए लॉकडाउन की शर्तों में धीरे-धीरे राहत दी जा रही है। लॉकडाउन के कारण सूक्ष्म, लघु और मध्यम उधमियों की हालत बहुत ज़्यादा खराब हो गयी है। वे फिर से अपना कारोबार शुरू करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें तत्काल राहत मिलती दिखायी नहीं दे रही है। हालाँकि स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है; लेकिन गति अभी भी धीमी है। वित्त मंत्रालय के आॢथक मामलों के विभाग का कहना है कि अर्थ-व्यवस्था में सुधार आना शुरू हो चुका है। बिजली और पेट्रोल के ताज़ा आँकड़े इसे प्रमाणित कर रहे हैं। बिजली और पेट्रोल दोनों की खपत मई महीने में बढ़ी है। ई-वे बिल में भी बढ़ोतरी हुई है। वैसे मामले में अभी भी अनेक सुधारात्मक कदम उठाने की ज़रूरत है। मज़दूरों एवं कामगारों की उपलब्धता की समस्या भी है। लॉकडाउन की वजह से अधिकांश श्रमिक अपने गाँव चले गये हैं, जिन्हें वापस काम पर बुलाना आसान नहीं है। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा पूँजीगत खर्च के लक्ष्य को हासिल करने पर इसलिए ज़ोर दे रही है, क्योंकि खर्च में वृद्धि किये बिना विकास के पहिये को नहीं घुमाया जा सकता है।
अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) और सरकारी अंतिम उपभोग व्यय (जीएफसीई) का अहम योगदान होता है। घरेलू और गैर-लाभकारी संस्थानों द्वारा की गयी सेवाओं की अंतिम खपत व्यय को निजी अंतिम उपभोग व्यय कहते हैं। इसके अंर्तगत मन्दिर, गुरुद्वारे आदि द्वारा किये जा रहे टिकाऊ एवं गैर-टिकाऊ वस्तुओं व सेवाओं पर होने वाले अंतिम व्यय को शामिल किया जाता है। आवास एवं अन्य किराये, मकान की लागत, उत्पादन की लागत, वेतन या मज़दूरी का भुगतान, कर्मचारियों के लिए की गयी भोजन की व्यवस्था, कपड़ों पर किये खर्च आदि को भी निजी अंतिम उपभोग व्यय में शामिल किया जाता है। इसके आकलन में घरेलू उत्पादन एवं निवेश को भी आधार बनाया जाता है। आमतौर पर निजी अंतिम उपभोग व्यय का मूल्यांकन बाज़ार कीमत पर किया जाता है, जबकि सरकारी कार्यों या सरकार या सरकारी कम्पनियों द्वारा किये जाने वाले अंतिम उपभोग व्यय, जैसे- कर्मचारियों को दिया जाने वाला मुआवज़ा, सरकारी कार्यों से जुड़ी वस्तुओं एवं सेवाओं आदि को सरकारी अंतिम उपभोग व्यय कहा जाता है।
वित्त वर्ष 2018-19 में निजी अंतिम उपभोग व्यय में वृद्धि वर्ष दर वर्ष के आधार पर 8.1 फीसदी की दर से हुई, जो वित्त वर्ष 2017-18 में 7.4 फीसदी की दर से हुई थी। चालू वित्त वर्ष में भी कोरोना महामारी की वजह से इसके नकारात्मक रहने का अनुमान है। वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान सरकारी अंतिम उपभोग व्यय में वर्ष दर वर्ष आधार पर 5.8 फीसदी की दर से वृद्धि हुई, जो वित्त वर्ष 2017-18 में बढक़र लगभग तीन गुनी हो गयी। इसका कारण सातवें वेतन आयोग की सिफारिश को अमलीजामा पहनाना था। वित्त वर्ष 2018-19 में सरकारी अंतिम उपभोग व्यय कम होने से इसमें भारी कमी आयी और यह 9.2 फीसदी के स्तर पर पहुँच गयी। निजी अंतिम उपभोग व्यय, सरकारी अंतिम उपभोग व्यय एवं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना तिमाही आधार पर और वर्तमान व स्थिर मूल्यों पर की जाती है। इसमें भोजन, पेय पदार्थ, कपड़ा, फुटवेयर, आवास, पानी, बिजली, गैस, अन्य ईंधन, सजावट व रख-रखाव के सामान, घरेलू उपस्कर, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार, शिक्षा आदि से जुड़े उत्पादों पर किया गया खर्च शामिल होता है; जो जीडीपी गणना का भी आधार होता है। वित्त वर्ष 2011-12 और वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान कुल जीडीपी में निजी अंतिम उपभोग व्यय का औसत हिस्सा 57.5 फीसदी रहा और इस अवधि में इसकी वृद्धि दर औसतन 6.8 फीसदी रही। निजी अंतिम उपभोग व्यय हमेशा से जीडीपी वृद्धि का महत्त्वपूर्ण कारक रहा है।
वित्त वर्ष 2016-17 में निजी अंतिम उपभोग व्यय का जीडीपी वृद्धि में दो-तिहाई का योगदान रहा, जबकि इस दौरान सरकारी अंतिम उपभोग व्यय का जीडीपी में 29 फीसदी का योगदान रहा था। वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान जीडीपी में निजी अंतिम उपभोग व्यय की औसतन हिस्सेदारी 56 फीसदी थी, जो पहले के वर्षों के मुकाबले कम थी। वित्त वर्ष 2018-19 में सरकारी अंतिम उपभोग व्यय का भी जीडीपी में योगदान कम रहा। आँकड़ों से साफ है, निजी अंतिम उपभोग व्यय और सरकारी अंतिम उपभोग व्यय के योगदान के बिना जीडीपी में बढ़ोतरी नहीं हो सकती है। मौज़ूदा परिदृश्य में जीडीपी के नकारात्मक रहने का अनुमान है, जिसका कारण निजी अंतिम उपभोग व्यय एवं सरकारी अंतिम उपभोग व्यय में कमी आना है। लॉकडाउन की वजह से अधिकांश लोग बेरोज़गार हो गये हैं और उनके पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। अर्थ-व्यवस्था को तभी गति मिल सकती है, जब खर्च में बढ़ोतरी होगी। ऐसे में विकास की गति को तेज़ करने के लिए सरकारी अंतिम उपभोग व्यय में वृद्धि लाना ही फिलहाल सरकार के पास एकमात्र विकल्प है।