पहले से गरीबों की बड़ी गठरी पीठ पर लादे भारत की समस्याएँ आने वाले महीनों में और अधिक बढऩे वाली हैं। कोरोना के कारण लॉकडाउन ने लाखों लोगों के सामने रोटी की समस्या खड़ी कर दी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की अप्रैल के शुरू में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में करीब 50 करोड़ श्रमिक हैं, जिनमें से 90 फीसदी असंगठित क्षेत्र से हैं। ज़ाहिर है यही बड़ा वर्ग लॉकडाउन से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है और उनकी ज़िन्दगी जल्दी पटरी पर लौटने में बहुत लम्बा वक्त लगेगा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इनमें से कितने दोबारा रोज़गार पाने की हालत में पहुँच पाएँगे? चिन्ताजनक रिपोर्ट यह है कि कोरोना और लॉकडाउन के कारण भारत में करीब 10 करोड़ से भी ज़्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएँगे।
पहले लॉकडाउन की घोषणा के बाद जिस बड़े पैमाने पर देश भर में प्रवासी मज़दूरों का पलायन हुआ, उसने 1947 के पलायन की तस्वीर सामने ला दी। यह बहुत दु:खद और चिन्ताजनक तस्वीरें थीं। लेकिन और भी चिन्ताजनक बात यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम दावों के बावजूद लॉकडाउन के बाद गरीब और प्रवासी मज़दूर गम्भीर दिक्कतों का सामना कर रहे हैं।
वैसे भी भारत दुनिया के भूख इंडेक्स में बहुत निचले पायदान पर खड़ा है। कुल 117 देशों की रिपोर्ट में भारत 102वें स्थान पर इस साल जनवरी में तब था, जब कोरोना और लॉकडाउन का भूत सामने नहीं था। अब स्थिति और गम्भीर बन चुकी है।
लॉकडाउन के बाद आने वाली रिपोट्र्स में साफ संकेत मिल रहा है कि देश भर में असंगठित क्षेत्र ही नहीं, बल्कि संगठित क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर नौकरियाँ जा रही हैं। पहले से बेरोज़गारी के बेहद खराब हालात में नयी परिस्थिति ने आग में घी जैसा काम किया है। इससे सबसे खराब स्थिति दिहाड़ीदारों, मज़दूरों और रवासी कामगारों की ही होगी।
ऑक्सफोर्ड कोविड-19 गवर्नमेंट रेस्पॉन्स स्ट्रिन्जेंसी इंडेक्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन भले कोरोना के विस्तार को रोकने में सहायक रहे, लेकिन यह असंगठित क्षेत्र में बेरोज़गारी और भुखमरी का बड़ा कारण बन सकता है। बड़ी संख्या में कामगार अपने गाँवों को लौटने के लिए मजबूर हो गये हैं। ज़ाहिर है वर्तमान स्थिति देश में असंगठित क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ायेगी, जिसका असर प्रति-व्यक्ति आय और खपत पर पड़ेगा। इसके अलावा इसमें चिन्ताजनक कमी भी आयेगी।
अभी तक की रिपोट्र्स बताती हैं कि देश में लॉकडाउन के बाद भूख से भी मौतें हुई हैं। भीषण गर्मी में छोटे बच्चों की हालत खराब हुई है और उनके पोषण में बड़े पैमाने गरीब लोग पर मुसीबतें झेल रहे हैं। भारत के लिहाज़ से संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (यूएनयू) की रिपोर्ट भी बहुत चिन्ताजनक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भले ही मोदी सरकार आॢथक मंदी से बचने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन वर्तमान हालात देश की अर्थ-व्यवस्था पर खराब प्रभाव डालेंगे ही।
यूएनयू की इस रिपोर्ट का सबसे चिन्ताजनक पहलू यह है, जिसमें कहा गया है कि कोरोना और इसके चलते लॉकडाउन के कारण भारत में करीब 10 करोड़ से भी ज़्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएँगे। कारण देश भर में आॢथक गतिविधियों पर ब्रेक लग जाना है।
भारत के नये सरकारी पैमाने के अनुसार शहरों में महीने भर में 859 रुपये 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपये 80 पैसे से कम कमाने वाले को गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। इसे दूसरे तरीके से देखें, तो सरकार के मुताबिक, देश में जो व्यक्ति हर रोज़ 28.65 रुपये (शहर) और 22.42 रुपये रोज़ (गाँव) में खर्च करता है, वो गरीब नहीं माना जा सकता है।
इसमें एक दिलचस्प पेच यह है कि इसी नीति आयोग (तब योजना आयोग) ने 2004-05 में 32 रुपये से कम खर्च करने वाले को गरीबी रेखा से नीचे बताया था। हालाँकि, उस समय इस पर भी बड़े पैमाने पर सवाल उठे थे कि सिर्फ 32 रुपये में कोई कैसे दिनभर गुज़ारा कर सकता है। आज की तारीख में तो 32 रुपये में तो दूध की एक थैली और एक ब्रेड भी नहीं आता।
इसी साल मार्च में नीति आयोग ने गरीबी के जो आँकड़े जारी किये गये थे, उसमें दावा किया गया था कि पिछले पाँच साल के दौरान देश में गरीबी 37.2 फीसदी से घटकर 29.8 फीसदी पर आ गयी है। हालाँकि, आॢथक विशेषज्ञ इन आँकड़ों को चुनौती देते रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण शहरी और ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा की निश्चित परिभाषा तय न होना भी है।
ज़ाहिर है जो लाखों मज़दूर अभी तक पलायन कर गये हैं और जिनके रोज़गार छूट चुके हैं, वे सभी गरीबी रेखा के नीचे चले गये हैं और इससे गरीबी रेखा का अब तक के आँकड़े में बड़ा इज़ाफा हो चुका है। फिलहाल इसकी बहुत कम सम्भावना है कि यह स्थिति अस्थायी होगी।
ज़ाहिर है लॉकडाउन के अभी तक के 40 दिन में जिस तरह कारोबार ठप रहा है, वो निश्चित ही गरीबों की कतार में 8 फीसदी की बढ़ोतरी करने वाला है। इस लिहाज़ से आने वाले महीनों में या लॉकडाउन खत्म होने के समय तक भारत में गरीबों का आँकड़ा उछलकर 91.5 करोड़ पहुँच जाएगा। विश्व बैंक भारत में करीब 244 रुपये रोज़ाना कमाने वाले को गरीब मानता है, जबकि भारत के नीति आयोग के आँकड़े भिन्न हैं।
राशन कार्ड और स्टॉक
देश में लाखों की संख्या में गरीबों के पास भी राशन कार्ड नहीं हैं, जिससे उन्हें लॉकडाउन के दौरान राशन लेने में बहुत दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं। ऐसे में यह भी बड़ा सवाल है कि जिन लोगों के लिए राशन भेजा गया है, उनमें से कितनों को सही मायने में राशन मिल पाया है? क्योंकि इसकी देखरेख करने वाला कोई मजबूत तंत्र लॉकडाउन के समय में देखने को नहीं मिला है। ज़ाहिर है यह राशन या पैसा गलत हाथों में जाने की सम्भावना बनी रही है।
कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और उनसे पहले पी. चिदम्बरम और टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय अपातकाल भण्डार से गरीबों और पलायन करने वाले मज़दूरों को अनाज देने में सरकार की कंजूसी पर उसकी ज़ोरदार खिंचाई की थी। उनका कहना था कि पर्याप्त भण्डार होते हुए भी ज़रूरतमंदों को राशन न देना बहुत गलत बात है। यह नेता आनाज का कोटा 10 किलो करने की माँग भी कर चुके हैं; जबकि सरकार 5 किलो प्रति व्यक्ति (यह रिपोर्ट फाइल होने के वक्त) दे रही है। हालाँकि कुछ राज्य सरकारों ने लॉकडाउन के दौरान अच्छी पहल करते हुए कुछ ज़्यादा राशन वितरित किया है।
तहलका की जानकारी के मुताबिक, मार्च 2020 में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के भण्डार में पोन आठ करोड़ टन अनाज था। यह ज़रूरत के बफर स्टॉक का तीन गुना था। चूँकि, रबी फसलों की खरीदी शुरू हो चुकी है, इसका स्टॉक बढ़ता ही। लिहाज़ा राहुल गाँधी और ममता बनर्जी जैसे नेता माँग कर रहे हैं कि राष्ट्रीय अपातकाल का जो स्टॉक है, उसे इस्तेमाल कर लेना चाहिए।
देश में आज की तारीख में बड़ी संख्या में पलायन करके गये प्रवासी मज़दूरों में काफी मज़दूर अपने घरों तक नहीं पहुँच सके। लाखों की संख्या में मज़दूर राहत शिवरों में फँसे हैं। वे पेट भरने के लिए सरकारों और भोजन कराने वाली संस्थाओं पर निर्भर हैं। जिनके पास राशन कार्ड नहीं, उनकी संख्या भी लाखों में है और वे मुफ्त राशन के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
सरकार का दावा
केंद्र सरकार के उपभोक्ता कार्य, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के मुताबिक, भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ज़रूरतमंदों को अनाज दे रहा है। सरकार के मुताबिक, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत एनएफएसए के दायरे में आने वाले प्रत्येक लाभार्थी को 5 किलोग्राम खाद्यान्न 3 महीने के लिए मुफ्त प्रदान किया जा रहा है।
सरकार के मुताबिक, एनएफएसए के दायरे के बाहर के व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए राज्य सरकारों को उनके जारी कार्डधारकों के लिए 21 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से गेहूँ और 22 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर चावल जैसे खाद्यान्न उठाने का विकल्प दिया गया है। इसके अलावा राज्यों को 22.50 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से चावल की खरीद सीधे एफसीआई से करने का विकल्प दिया गया है। किसी भी अतिरिक्त आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नीलामी प्रक्रिया में भाग लेने की ज़रूरत नहीं होगी।
ज़रूरतमंदों को भोजन उपलब्ध कराने में गैर-सरकारी संगठनों और अन्य कल्याणकारी संगठनों को सरकार ने 21 रुपये प्रति किलोग्राम दर पर गेहूँ और 22 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर चावल प्रदान करने की योजना बनायी है। वे इस दर पर देश में कहीं भी एफसीआई के किसी भी डिपो से खाद्यान्न ले सकेंगे और इसके लिए कोई ऊपरी सीमा नहीं होगी। सरकार के मुताबिक, पूर्वोत्तर राज्यों में लॉकडाउन के पहले 25 दिन के दौरान एफसीआई ने प्रति माह लगभग 80 ट्रेन की क्षमता को लगभग दोगुना करते हुए 158 ट्रेनों के माध्यम से पूर्वोत्तर राज्यों के लिए करीब चार लाख 42 हज़ार मीट्रिक टन खाद्यान्न (22 हज़ार मीट्रिक टन गेहूँ और चार लाख 20 हज़ार मीट्रिक टन चावल) की आपूर्ति की।
पूर्वोत्तर के मामले में कई क्षेत्रों में रेल की पहुँच नहीं है। पूर्वोत्तर के सात राज्यों में एफसीआई ने अपने कुल 86 डिपो में से केवल 38 से रेल के माध्यम से आपूर्ति की। मेघालय की आपूर्ति पूरी तरह से सड़क मार्ग पर निर्भर रही, जबकि अरुणाचल के 13 में से केवल 2 डिपो को ही रेल के माध्यम से आपूर्ति की जाती है। नागालैंड के दीमापुर तक रेल और फिर मणिपुर तक सड़क मार्ग से आपूर्ति की जाती है।
हालात का राजनीतिक असर
वर्तमान स्थिति का सबसे बड़ा असर राजनीति पर भी पड़ेगा। देश में बेरोज़गारी और भुखमरी जिस तरह बड़े मुद्दे रहे हैं, उसे देखते हुए आने वाले महीनों में मोदी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से बड़ी चुनौतियाँ बन सकती हैं। भाजपा पिछले कई विधानसभा चुनाव लगातार हारी है, ऐसे में खराब होती आॢथक स्थिति उसके लिए गम्भीर राजनीतिक मुश्किलें पैदा करने जा रही है।
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी देश के नाम अपने सभी सम्बोधन में स्वीकार कर चुके हैं कि कोरोना और लॉकडाउन के कारण देश की आॢथक स्थिति पर विपरीत असर पडऩे वाला है। सरकार कोरोना से पहले के हालात में भले देश में आॢथक हालत काबू में होने का दावा करती रही थी, लेकिन तमाम आॢथक जानकार इसे खराब बताते रहे थे और सरकार के दावों पर सवाल उठाते रहे थे।अब मोदी सरकार के पास कोरोना वायरस के चलते एक बहाना मिल गया है, जिसमें वह देश की खराब हो चुकी हालत का ठीकरा इस महामारी के सिर पर फोड़ सकती है। लेकिन इसके बावजूद उसे जनता का सामना करना तो उसे पड़ेगा ही। इस साल के आिखर में बिहार जैसे राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं और तब तक लॉकडाउन बेरोज़गारी और रोटी का मसला और गम्भीर बना चुका होगा।
यह तो सरकार भी मान रही है कि वर्तमान धक्के से उबरने में लम्बा वक्त लगेगा। उसके आॢथक प्रबन्धक भी बेचारगी की स्थिति में हैं। वैसे भारत अकेला इस आॢथक मंदी में नहीं फँसा है, दूसरे देशों की भी यही हालत है। लेकिन भारत के संसाधन ऐसे नहीं हैं कि भारत को खराब स्थिति से कुछ महीनों में ही बाहर ले आएँ। आज की तारीख में मज़दूरों का बहुत बड़ा तबका बेरोज़गार हो चुका है।
अभी भले लॉकडाउन और कोरोना के कारण विपक्षी दल मोदी सरकार पर हमला न कर रहे हों, लॉकडाउन के बाद वे निश्चित ही सरकार को निशाने पर रखेंगे। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी मोदी सरकार पर लापरवाही के आरोप दोहरा चुके हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस और ट्वीट के ज़रिये उन्होंने जिस तरह लगातार गरीबों और मज़दूरों मुद्दे उठाये हैं, उससे कांग्रेस की साख बढ़ी है। मोदी सरकार पर सबसे गम्भीर आरोप यह लग रहा है कि उसने अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें बन्द करने में बहुत ज़्यादा देरी कर दी। भारत में 15 मार्च को जाकर अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें बन्द हुईं और इस दौरान बड़ी संख्या में विदेश से लोग चार्टेड और अन्य फ्लाइट्स से भारत आये, जिनमें से ज़्यादातर का टेस्ट नहीं हुआ। इससे स्थिति गम्भीर हो गयी।
बहुत-से जानकारों का मानना है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप की यात्रा, जिस पर 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च होने का अनुमान बताया गया है; को स्थगित किया जा सकता था, क्योंकि तब तक कोरोना वायरस अपना विस्तार दूसरे देशों में कर चुका था। ट्रम्प की इस यात्रा से वास्तव में भारत का अपना कोई हित-लाभ नहीं था। क्योंकि ट्रंप इस साल के आिखर में होने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में भारतीयों के समर्थन के नज़रिये से भारत आये थे। भारत में कोरोना का आकलन करने में मोदी सरकार की चूक को लेकर अब लोग ज़िक्र कर रहे हैं। यह सही है कि स्थिति की गम्भीरता को समझते ही मोदी सरकार ने तेज़ी दिखायी, लेकिन तब तक शायद काफी देर हो चुकी थी। सच यह है कि लॉकडाउन और कफ्र्यू जैसे उपाय बहुत-सी राज्यों सरकारों, खासकर गैर-भाजपा सरकारों ने केंद्र से पहले ही लागू कर दिये थे। ऐसे में भाजपा और मोदी सरकार के लिए आने वाले महीने कड़ी परीक्षा वाले साबित हो सकते हैं। विधानसभा चुनाव में वो किन मुद्दों के आधार पर जाएगी, यह तो तभी पता चलेगा, जब विपक्ष -खासकर कांग्रेस, टीएमसी और आरजेडी जैसे दल उसके सामने कठिन चुनौतियाँ खड़ी करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
गरीबी रेखा का देश
भारत के कर्णधार भले पाँच ट्रिलियन इकोनॉमी का दावा करते हों, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि देश की करीब 130 करोड़ की आबादी का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है। वर्तमान में भारत में कुल आबादी के करीब 60 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। इसके मायने हुए 130 करोड़ में से करीब सवा 81 करोड़ लोग गरीबी रेखा हैं। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि दुनिया में गरीबी का हिसाब रखने वाला विश्व बैंक गरीबी का आकलन चार आय श्रेणियों के आधार पर करता है। इसी के आधार पर उनका वर्गीकरण होता। इस तरह इस पैमाने पर भारत गरीबी रेखा की श्रेणियों में निम्न मध्य आय वर्ग में आता है। इस वर्गीकरण के हिसाब से निम्न मध्यम आय वर्ग में उन देशों को माना जाता है, जिनकी प्रति व्यक्ति आय की सालाना औसत, राष्ट्रीय आय 78,438 रुपये से तीन लाख रुपये के बीच है। इन देशों में 78 हज़ार रुपये सालाना से कम कमाने वाले गरीबी रेखा के नीचे माने जाते हैं। इसके बाद अपर मिडिल आय वर्ग है और जिन देशों में प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय 3,996 डॉलर से 12,375 डॉलर के बीच है, वो देश इसमें हैं। इन देशों में 5.5 डॉलर या इससे कम कमाने वाले गरीबी रेखा के नीचे गिने जाते हैं। उच्च आय वर्ग में उन देशों को माना जाता है, जहाँ प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय 13375 डॉलर से ज़्यादा है। इन देशों में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का कोई मानक तय नहीं किया गया है। ज़ाहिर है यह वे देश हैं, जहाँ कोई गरीब नहीं माना जाता। सबसे खराब श्रेणी निम्न आय वर्ग की है, जिसमें प्रति व्यक्ति सालाना आय 1026 डॉलर से कम वाले देश शामिल हैं। इस श्रेणी के देशों में जो व्यक्ति रोज़ाना 1.9 डॉलर से कम कमाता है, उसे गरीब माना जाता है। इन आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि लॉकडाउन और वर्तमान हालात भारत की तकलीफ और बढ़ा सकते हैं।