फिल्म आई एम कलाम
निर्देशक नील माधब पांडा
कलाकार हर्ष मायड़, हुसान साद, पितोबाश, गुलशन ग्रोवर
यह उन फिल्मों में से है जिनके अंत चाहे थोड़े नाटकीय हो जाएं लेकिन जब खत्म होती हैं तो आप खड़े होकर उन सब लोगों को सलाम करना चाहते हैं जो इसके पीछे हैं. जो यह सपना देख सकते हैं कि डेल्ही बेली और दबंग का जश्न मनाने वाले देश में छोटी-सी ही सही, लेकिन एक सरोकारी और ईमानदार फिल्म की भी जगह है.
बच्चों की फिल्मों के लिए थोड़ा अच्छा समय तो आया है, जिनमें वे अक्सर नायक हैं और वह दुनिया खलनायक जो हमने उनके लिए बनाई है. यह उस बच्चे छोटू की कहानी है जिसके किसी हमपेशा बच्चे को शायद आपने ‘तारे जमीन पर’ में देखा होगा जो कुछ सेकंड के लिए फ्रेम में आता है और जिसे ढाबे पर बरतन मांजते देखकर आमिर उसे उसी ढाबे से चाय और बिस्किट खरीदकर देते हैं. हमारा पूरा समाज और ज्यादातर फिल्में भी उस बच्चे के लिए उतने ही दुखी हैं. ट्रैफिक लाइट पर शीशा नीचे करके दो रुपये देने जितना दुखी. इसके बाद हम उन्हीं बच्चों का दर्द देख पाते हैं जिन्हें उनके मां-बाप कार में बैठाकर बोर्डिंग में छोड़ने जा रहे हैं. ‘चिल्लर पार्टी’ या ‘स्टेनले का डब्बा’ भी सड़क पर पलने वाले बच्चों को सपने देखने का मौका नहीं देती, बस उन्हें जीते रहने की इजाजत देती हैं. हम उस ढाबे के मालिक जैसे ही हैं जो छोटू से कहता है कि बड़े सपने न देखे. हमारी दुनिया में उसे इतनी अनुमति है कि काम करे और खाए. चिल्लर पार्टी उस बच्चे को कॉलोनी में रहने देती है लेकिन हीरो की तरह नहीं. उसके हीरो वही बच्चे हैं जिनके मां-बाप हर रात उन्हें जिद करके दूध पिलाते हैं.
ऐसे माहौल में ‘आय एम कलाम’ हर्ष मायड़ जैसे विलक्षण अभिनेता के रूप में उस छोटू को लेकर आती है, जिसे आपकी सहानुभूति की जरूरत नहीं है. न वह खुद अपनी जिंदगी पर अफसोस करता है और न आपको करने की छूट देता है. जिस अमीर बच्चे से उसकी दोस्ती है और जो उसे दोस्ती के चलते किताबें देता है, अंग्रेजी बोलना सिखाता है, छोटू बदले में उसके स्कूल की एक प्रतियोगिता के लिए कविता लिखकर देता है. यह बराबरी का रिश्ता है, जिसका महत्व बड़े-बडे़ समाज-सुधारक भी कई बार नहीं समझ पाते.
इस फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके हर्ष में गजब की परिपक्वता, जिंदादिली और वह सब कुछ है जो छोटू के चरित्र को चाहिए. बहुत बेपरवाह रहते हुए वे पूरी फिल्म को अपने कंधों पर उठाए रखते हैं. हां, फिल्म आखिरी बीस मिनट में ढीली पड़ती है और निर्देशक नील और लेखक संजय चौहान थोड़ी और मेहनत करते तो उसे रोचक बना सकते थे. बच्चों की कहानियों में जरूरी नहीं कि अंत बच्चों की कोर्स की किताबों की कहानियों की तरह ही हों. यह कमी पिछले सालों में आई लगभग सभी ऐसी फिल्मों में रही है. ‘तारे जमीन पर’ को ऐसे मोड़ों पर उसके गाने थोड़ा बचा लेते हैं.
लेकिन फिर भी ‘आय एम कलाम’ की पीठ उस आत्मविश्वास के लिए ठोकी जानी चाहिए जिससे यह कर्म में यकीन करती है.
गौरव सोलंकी