हाल में केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसान आन्दोलन भले ही पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा दिखती हो, लेकिन इसमें एक सामाजिक परिवर्तन भी दिखा है, जो अनोखा भी है और सुखद भी। इस विरोध का एक आश्चर्यजनक और बहुत हृदयस्पर्शी पहलू एक क्रान्ति है, जो मौन रूप से आन्दोलन की महिलाएँ प्रस्तुत कर रही हैं। इस पुरुष वर्चस्व वाले किसान आन्दोलन में सभी सामाजिक-आर्थिक वर्गों की युवा, प्रौढ़ और वृद्ध महिलाओं ने एक मूक, लेकिन शक्तिशाली उपस्थिति दर्ज की है और रूढिय़ों को दरकिनार करते हुए सशक्त नेतृत्व वाली भूमिकाएँ निभायी हैं।
मानवता को सेवा प्रदान करने की इच्छा और इसके माध्यम से साधन परिवर्तन इन महिलाओं की विशेषता है। अपने असंख्य रूपों में सामुदायिक सेवा यहाँ स्पष्ट है और कुछ नहीं; यहाँ हम अकेले देखभाल करने वाली या गृह रक्षा की पारम्परिक भूमिकाओं यानी महिलाओं के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। इनमें अधिकतर महिलाएँ रोटियाँ नहीं बना रहीं, लंगर नहीं कर रहीं या बर्तन साफ नहीं कर रही हैं; ये तो उन्होंने अपने पुरुष समकक्षों के लिए छोड़ दिया है। महिलाएँ तो किसान आन्दोलन में अग्रिम पंक्ति में खड़ी हैं। अग्रणी भूमिकानिभा रहीं हैं। टीम बना रही हैं। भाषण दे रही हैं। दूसरों का मार्गदर्शन कर रही हैं। आन्दोलन को सफल बनाने का प्रयास कर रही हैं। उसका संचालन कर रही हैं। आगे की रणनीति बना रही हैं और सभाओं को सम्बोधित कर रही हैं। यहाँ होने के नाते इन प्रेरणादायक महिलाओं को देखकर आँखों में उमड़े दर्द से सुखद राहत मिलती है।
नवप्रीत कौर : कक्षा 9वीं की इस 15 वर्षीय छात्रा को पगड़ी पहनना पसन्द है। वह अपने 16 वर्षीय भाई और 20 वर्षीय बहन के साथ एक सेवादार के रूप में काम कर रही हैं। वे कैथल, हरियाणा में रहते हैं और उनकी माँ, जो वहाँ शिक्षक हैं; ने उन्हें यहाँ रहने, सेवा करने और इस तरह किसान समुदाय और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष के सार को समझने के लिए भेजा है। नवप्रीत कहती हैं- ‘जब आप किसी व्यक्ति के बीच में रहते हैं, तो आप उसके लिए खड़े होते हैं। वे जो अवतार लेते हैं, उसके लिए खड़े होते हैं और यह मेरे लिए बहुत प्रेरणादायक है। मुझे यह पसन्द है। मेरी माँ ने मुझे कानूनों के बारे में पढऩे के लिए कहा और अगर मुझे लगा कि वे न्यायपूर्ण नहीं हैं, तो उनके खिलाफ आन्दोलन में शामिल होने के लिए जाएँ। ऐ हक दी लड़ाई है।’ कहते हुए वह मुस्कुराती हैं और वहाँ मौज़ूद बड़ी उम्र की महिलाओं के लिए भोजन लाने के लिए उठ जाती हैं।
जस्सी सांघा : मोगा की 25 वर्षीय कार्यकर्ता जस्सी कहती हैं- ‘यहाँ कोई विशेष पुरुष बस्तियाँ नहीं हैं, और फिर कोई विशेष महिला भूमिका भी नहीं है। पारम्परिक लिंग भूमिकाएँ पाश्र्व में चली गयी हैं और हवा में बदलाव है। मैं विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा हूँ और मैं अपनी टीम के साथ यहाँ समानांतर पहल करने की कोशिश कर रही हूँ। हम किसी विशेष संगठन या राजनीतिक दल से नहीं हैं। इस टीम का गठन एक विचारधारा के व्यक्तियों की तरह किया गया है, जो यहाँ मिले थे; आन्दोलन स्थल पर और एक साथ काम करना शुरू कर दिया।’ जस्सी बताती हैं कि इस सहायता समूह में हरियाणा और अन्य राज्यों के स्वयंसेवक शामिल हैं, जो किसान अधिकारों के लिए एकजुट होकर काम करना चाहते हैं।
जस्सी बताती हैं कि हमने यहाँ एक पुस्तकालय स्थापित किया है, ताकि प्रदर्शनकारी विभिन्न महत्त्वपूर्ण मुद्दों के बारे में अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकें और इसे व्यापक बना सकें। हम ‘ट्रॉली टाइम्स’ नामक अपना स्वयं का अखबार प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि इस आन्दोलन की सच्चाई लोगों तक पहुँचे। हमने चर्चा और विचार के लिए ‘साँझी छत’ के नाम से विनिमय कक्ष बनाया है। इसके अलावा हमने एक स्कूल ‘फुलबाड़ी’ की स्थापना की है, जो विशेषाधिकार प्राप्त बच्चों को स्थानीय शिक्षा प्रदान करता है। हमने बहुत-से स्थानीय बच्चों को कूड़ा उठाते हुए या इलाके के चारों ओर बोतलें इकट्ठी करते हुए देखा है। उन्हें मदद करने के लिए स्कूलों की आवश्यकता है। खेती से जुड़ी फिल्मों की स्क्रीनिंग भी शुरू कर रहे हैं, ताकि हमारे युवाओं को खेती के काम और उससे जुड़े मुद्दों की गहराई से जानकारी और समझ हो सके। कहते हुए जल्दी से जस्सी बात खत्म करती हैं; क्योंकि उन्हें आन्दोलन में कहीं और कार्य आ गया था।
कनुप्रिया : पंजाब विश्वविद्यालय छात्र परिषद् की पूर्व अध्यक्ष 24 वर्षीय कनुप्रिया विश्वविद्यालय छात्रा के रूप में पंजाब में आन्दोलन शुरू होने से लेकर ही जानी जाती हैं। कनुप्रिया कहती हैं- ‘अब हमारे साथ यहाँ अन्य राज्यों के किसान और विभिन्न व्यवसायों से जुड़े लोग भी जुड़ गये हैं। यह हमारे अन्न और अंतत: हमारी ज़िन्दगी के बारे में है। हम चाहते हैं कि केवल किसान ही नहीं, बल्कि इन कृषि कानूनों को सभी लोग एक हितधारक के रूप में जानें और समझें।’
उग्र और मुखर कनु इस बात से खुश हैं कि महिलाएँ इस आन्दोलन में अपना सही स्थान फिर से हासिल कर रही हैं। वह कहती हैं- ‘हम सभी चाहते हैं कि ये जन-विरोधी कानून वापस लिये जाएँ। महिलाएँ सकारात्मक बदलाव की लहर बनने जा रही हैं, हम चाहते हैं कि यह पूरे देश में हो। बस चारों ओर देखो, इस ग्रामीण पुरुष प्रधान आन्दोलन में हमें स्वीकार किया गया और मुख्य आन्दोलनकारियों के रूप में पहचाना गया। यहाँ के नौजवानों को इसमें कोई हिचकिचाहट नहीं है कि महिला टीम की नेता उनका मार्गदर्शन कर रही हैं और वे उनके निर्देशों को पूरी तरह पालन कर रहे हैं।’
हरिंदर बिंदु : फरीदकोट की यह 43 वर्षीय ग्रामीण महिला, थोड़ा शर्माते हुए मुस्कुराकर हमें बताती हैं कि वह ज़्यादा शिक्षित नहीं हैं; सिर्फ 10वीं कक्षा उत्तीर्ण की हैं। फिर कहती हैं- ‘लेकिन मैंने खुद को किसानों, खेती, अपने समुदाय और उन सभी समस्याओं के बारे में पूरी तरह से शिक्षित किया है, जो छोटे किसान झेलते हैं।’ बिंदु जब बोलती हैं, तो उनका एक निर्भीक और अनोखी महिला का चरित्र सामने आता है। सही मायने में कार्यकर्ता बिंदु ने किसानों की लड़ाई लड़कर अपना जीवन किसान समुदाय को समर्पित कर दिया है और उनके उद्देश्य के लिए नेतृत्व का ज़िम्मा सँभाल रही हैं।
बिंदु कहती हैं- ‘हाँ, मैं बीकेयू एकता संघ की महिला शाखा की कमान सँभाल रही हूँ; लेकिन संघर्ष हमेशा मेरे लिए जीवन का एक तरीका रहा है। जब 13 साल की उम्र में मेरे पिता को आतंकवादियों ने गोली मार दी थी, मैंने किसानों और महिलाओं के लिए काम करने की कसम खायी थी। मैं फासीवाद, मानव अधिकार उल्लंघन, किसी भी प्रकार के उत्पीडऩ और शोषण के खिलाफ हूँ। मेरे दिल के करीब का यह मिशन महिलाओं को प्रेरित करने और उनके जीवन को सशक्त बनाने के लिए है, जो दूरदराज़ के पिछड़े क्षेत्रों में अपने दु:खों को दूर करने के लिए संघर्षरत हैं और जहाँ कुशासन का राज है।’
वह कहती हैं- ‘कृषि कानूनों के खिलाफ इस आन्दोलन को मज़बूत किया जाना चाहिए और अधिक-से-अधिक महिलाओं को इसमें शामिल होना चाहिए। मैं उस जागरूकता को बढ़ाने की दिशा में काम कर रही हूँ। हमारा क्या अधिकार है? और हम बच्चों और आने वाली पीढिय़ों के लिए इसे कैसे सुरक्षित रख सकते हैं? मैं सभाओं को सम्बोधित करती हूँ और गहराई से लोगों के साथ हमारे मुद्दों पर चर्चा करती हूँ।’ एक खामोश-सी मुस्कान और दृढ़ निश्चय वाली यह महिला कहती है- ‘यह एक लम्बा संघर्ष होने जा रहा है; लेकिन हम आगे बढऩे के लिए दृढ़ हैं और एक दिन हम ज़रूर जीतेंगे।’
सिमरनजीत कौर : अमृतसर की यह युवा वकील और कार्यकर्ता उन लोगों के लिए आशा की एक और किरण है, जो उन्हें प्रेरित करती है। कौर कहती हैं- ‘कोई भी विरोध तब तक पूर्ण नहीं है, जब तक उसमें महिलाओं की भागीदारी न हो। हम आधी आबादी हैं और हम उसके अनुसार अपनी भूमिकाओं का दावा करेंगी। मैं शुरू से इस आन्दोलन के साथ रही हूँ; विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं को कृषि कानूनों और उनके प्रभाव के बारे में शिक्षित करने की कोशिश कर रही हूँ।’ विश्वास से भरी वकील कहती हैं- ‘मैं घर-घर जाकर लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रही हूँ कि ये कानून क्या हैं? और हम वकील, कैसे उन्हें असंवैधानिक मानते हैं? पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की बार काउंसिल भी हमारा पूरा समर्थन कर रही है। मैं एक किसान की बेटी हूँ और खेती ने ही मेरे लिए वकील बनना सम्भव बनाया। मैं किसी को भी अपनी आने वाली पीढिय़ों का हक छीनने नहीं दे सकती। इसके लिए मैं विभिन्न मुद्दों के बारे में बड़े पैमाने पर जागरूकता बढ़ाने की दिशा में काम कर रही हूँ। यह एक मिथक है कि ये कानून शहरी निवासियों को प्रभावित नहीं करेंगे। मैं बताना चाहती हूँ कि ये तीनों कानून सभी के लिए मुसीबत खड़ी करेंगे, महँगाई में वृद्धि करेंगे।’
सिंघू में वह और उनकी महिला वकीलों की टीम बच्चों और महिला प्रदर्शनकारियों के लिए आवास और स्वच्छता की व्यवस्था कर रही हैं। सैनिटरी नैपकिन वितरित करना, उन महिलाओं के स्वच्छता सम्बन्धी मुद्दों से निपटना, जो वहाँ अमानवीय परिस्थितियों में डेरा डाले बैठी हैं, उनके कार्यों में से एक है। टॉयलेट स्पेस को बनाये रखना उनके कई कार्यों में से एक बड़ा कार्य है।
मूस जट्टाना : यह चुलबुली और क्रियाशील 19 वर्षीय इंस्टाग्राम सेलिब्रिटी और प्रभावशाली लड़की पिछले दो सप्ताह से यहाँ है। मूल रूप से मोहाली की रहने वाली मूस (असली नाम मुस्कान) पिछले छ: साल से ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं और विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए विशेष रूप से यहाँ आयी है। गहरी मुस्कान के साथ मूस कहती हैं- ‘मैंने वापसी टिकट नहीं खरीदा है, मैं तब तक इस आन्दोलन का समर्थन करने वाली हूँ; जब तक यह जारी है। यह लोगों का आन्दोलन है और मैं यहाँ समर्थन देने और जो भी सम्भव हो, करने के लिए यहाँ हूँ।’
वह कहती हैं- ‘मुझे लगता है कि यह केवल एक किसान आन्दोलन नहीं है, यह एक मानव अधिकार आन्दोलन है। और अगर युवा इसके लिए अपना समर्थन नहीं देते हैं, तो हमारे भविष्य से समझौता करने वाली बात होगी। मुझे आपको यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि बहुत-से लोग इस विरोध में शामिल हुए हैं; क्योंकि उन्होंने मेरी पोस्ट देखीं और महसूस किया कि वह (मूस) यहाँ इसीलिए आयी है, लिहाज़ा हमें भी कुछ करना है। यह ज़िम्मेदारी कई बार भारी पड़ती है और लोग मेरे बारे में बहुत सुरक्षात्मक भाव महसूस करते हैं, लेकिन यह सब लोग अपने प्यार के साथ आते हैं और मैं उस पहलू को भी समझती हूँ। मैं विशेष रूप से भारत में महिलाओं को सशक्त बनाने में मदद करना चाहती हूँ।’
समस्या की शुरुआत
वर्तमान संघर्ष की उत्पत्ति तीन कृषि कानून हैं, जिन्हें अध्यादेश के रूप में पेश किया गया था और फिर राज्यसभा में पर्याप्त चर्चा और यहाँ तक कि साफ मतदान प्रक्रिया के बिना पास कर दिया गया। सरकार ने स्पष्ट रूप से कोविड-19 जैसे संकटकाल और लोगों के महामारी के खौफ के बीच इसका निर्णय किया, ताकि किसी तरह के विरोध प्रदर्शनों की गुंजाइश ही न रहे। उसने उन किसान संगठनों के साथ कोई विचार-विमर्श नहीं किया, जो अध्यादेशों के प्रति आशंकित थे और जिन्होंने जून में ही इसका विरोध शुरू कर दिया था। चूँकि विरोध-प्रदर्शन केवल पंजाब में शुरू हुए थे और कि किसान संगठनों द्वारा केवल तीन मुख्यधारा के राजनीतिक दलों- कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी (आप) ने ज़ुबानी सहानुभूति जतायी थी। कांग्रेस और आप के मामले- अध्यादेशों को गलत ठहराना, जैसा कि शिअद द्वारा किया गया था; को केंद्र सरकार ने गम्भीरता से नहीं लिया।
पंजाब में आन्दोलन 26 सितंबर से अपने अगले चरण में तभी प्रवेश कर गया था, जब किसान संगठनों ने पटरियों पर बैठकर ‘रेल रोको’ आन्दोलन शुरू किया था। किसानों को तुरन्त सुनने के बजाय केंद्र ने उन्हें फिर से थकाने की कोशिश की। हालाँकि जब रेल रोको आन्दोलन अक्टूबर के मध्य में पहुँचा, तब सरकार ने उन्हें नये कानूनों के लाभ समझाने के लिए बुला लिया। बाद में एक चाल के तहत केंद्र ने आक्रामक रवैये में मालगाडिय़ों को फिर से शुरू करने में देरी की, जबकि रेल रोको आन्दोलन दिल्ली कूच के साथ ही थम गया था। यह स्पष्ट रूप से व्यापारियों और उद्योगपतियों के साथ-साथ शहरी आबादी की दृष्टि में किसानों को खलनायक बनाने के उद्देश्य से किया गया।
दिल्ली मार्च
केंद्र सरकार ने 26 नवंबर को ‘दिल्ली मार्च’ के आह्वान को बहुत हल्के में लिया। सरकार स्पष्ट रूप से आश्वस्त थी कि उसके पास हरियाणा का सुरक्षित क्षेत्र है, और खट्टर सरकार मार्च को आगे नहीं बढऩे देगी। इसके लिए खट्टर ने हाईवे पर अत्यंत गहरे गड्ढे करा दिये, मानो दुश्मन देश ने चढ़ाई कर दी हो। खट्टर का यह बहुत गलत कदम था। इससे पहले हरियाणा में प्रवेश करने से पहले ही पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की ट्रैक्टर रैली को रोक दिया गया था। हरियाणा के साथ-साथ केंद्र ने भी लम्बे समय से मार्च की तैयारी कर रहे किसानों को धैर्य के साथ प्रतिक्रिया नहीं दी और उन्हें बलपूर्वक खदेडऩे का हर सम्भव प्रयास किया। किसानों ने ट्रैक्टर-ट्राली और पानी बरसाती तोपों में मार्च शुरू किया और तमाम बाधाओं को दूर किया और यहाँ तक कि सिंघू और टिकरी में दिल्ली की सीमाओं तक पहुँचने के लिए सड़कों पर बने विशाल गड्ढों को पार किया। इस सफलता ने आन्दोलन को गति दी और हज़ारों किसानों ने सीमाओं पर पहुँचना शुरू कर दिया और अब भी क्रम के आधार पर आ रहे हैं। अब तक लगभग 40 हज़ार किसान सिंघू और टिकरी में खड़े हैं। जबकि 32 संगठनों के 32 प्रतिनिधियों को सिंघू में रखा गया है। टीकरी की सीमा पंजाब के सबसे बड़े किसान संगठन भारतीय किसान संघ (उग्राहन) द्वारा संचालित की जा रही है।
केंद्र की लीपापोती
बिना किसी नतीजे के आन्दोलनकारी किसानों के साथ पाँच दौर की वार्ता हो चुकी है। पहले की दो वार्ताएँ पूरी तरह खोखली थीं। इसके बाद 14 अक्टूबर को केंद्रीय कृषि सचिव द्वारा कृषि संगठनों के प्रतिनिधियों को बुलाकर उन्हें नये कानूनों के फायदे बताये गये। वे बस वॉकआउट कर गये। फिर 13 नवंबर को दूसरी बैठक में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर, पीयूष गोयल और सोम प्रकाश ने किसानों को आश्वासन दिया कि उनके प्रतिनिधियों सहित एक उच्च स्तरीय समिति बनायी जाएगी और उन्हें अपने आन्दोलन को स्थगित करने के लिए कहा गया। इस पर सहमति नहीं बनी। किसानों के लिए एकमात्र वास्तविक ठोस पहल पहली दिसंबर को की गयी, जब केंद्र सरकार अपने कानूनों में कुछ संशोधन करने के लिए सहमत हो गया। यद्यपि यह प्रस्ताव कागज़ पर अच्छा था और उचित प्रतीत होता था; लेकिन दो कारण थे, जिनके चलते इसे स्वीकार नहीं किया गया। एक कारण यह था कि मुख्य किसान संगठन बीकेयू (उग्राहन) को वार्ता के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। दूसरे सिंघू सीमा पर ज़मीन पर चीज़ें बदल गयी थीं, जहाँ 32 किसान संगठन आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। यह निर्णय उन युवाओं के हाथ में था, जिन्होंने अपने नेताओं को अधिनियमों को निरस्त करने के अलावा कुछ भी स्वीकार करने के लिए मना किया था। इसके परिणामस्वरूप किसान संगठनों की चर्चित ‘हाँ या नहीं’ प्रतिक्रिया हुई। हालाँकि गृह मंत्री अमित शाह द्वारा गतिरोध को तोडऩे के लिए 8 दिसंबर को एक और प्रयास किया गया; लेकिन किसान संगठन अपने रुख पर अड़े रहे। फिर 20 दिसंबर को किसानों को बातचीत का एक और न्यौता दिया गया; लेकिन तब तक तनाव काफी बढ़ गया और कोई बातचीत नहीं हुई।
पानी अब ज़्यादा और दलदल वाला हो गया है। मुख्य रूप से केंद्र सरकार द्वारा, जो इस मुद्दे के हल करने के लिए समय पर नहीं जागी; यदि आन्दोलन को शुरुआती चरण में किसान संगठनों के साथ गम्भीर बातचीत करके हल किया होता, तो शायद कृषि कानूनों में संशोधन स्वीकार्य हो सकते थे। हालाँकि आन्दोलन के लोकप्रिय होने के साथ ही किसान संगठनों ने भी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया है। ऐसे में विरोध-प्रदर्शन के लम्बे समय तक जारी रहने की सम्भावना है; जब तक कि केंद्र को यह महसूस नहीं हो जाता कि इसने राष्ट्रीय समर्थन हासिल कर लिया है और वह अपनी हार नहीं मान लेती।
विरोध की राजनीति
यह पंजाब और हरियाणा के इतिहास में पहली बार है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दल विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं। कमान सीधे किसानों और किसान संगठनों के हाथ में है, और यह स्पष्ट रूप से राजनीतिक दलों के लिए बहुत निराशाजनक है कि इसमें कांग्रेस, शिअद या आप नहीं हैं। कांग्रेस के सांसदों, जिनमें गुरजीत औजला और रवनीत बिट्टू शामिल हैं; सहित कांग्रेस सदस्यों ने आन्दोलन में जुडऩे की कोशिश की, लेकिन तुरन्त पीछे हटना पड़ा। वे अब जंतर-मंतर पर डेरा डाले हुए हैं और पूरी तरह से लोकप्रिय माहौल से दूर हैं। शिअद को तो एक ही बात में घेरा जाता है कि उसकी केंद्रीय मंत्री हरसिमरत बादल ने तो कृषि कानूनों के समर्थन में इंटरव्यू तक दिये थे। अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी तीन महीने तक कानूनों का बचाव किया और उनका रुख तभी पलटा, जब उन्होंने देखा कि माहौल कृषि कानूनों के खिलाफ है। अब अकाली दल दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन में घुसने की पूरी कोशिश कर रहा है; लेकिन किसान उनके खिलाफ गोलबन्द हैं। पंजाब की आम आदमी पार्टी की इकाई ने विरोध-प्रदर्शन के पक्ष में बहुत अधिक आवाज़ उठायी; लेकिन इसके संयोजक भगवंत मान को भी जल्दबाज़ी में पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। हरियाणा में कांग्रेस पार्टी के साथ यही स्थिति है और वह आन्दोलन को ज़ुबानी समर्थन दे रही है।
भाजपा की बात करें, तो उसके नेता पंजाब और हरियाणा में किसानों के गुस्से का सामना कर रहे हैं और वे गाँवों में प्रवेश करने तक में असमर्थ हैं। विशेष रूप से पंजाब में, पार्टी एक अवसर ढूँढ रही है। भाजपा को लगता है कि किसान आन्दोलन मुख्य रूप से जाटों, सिखों का एक आन्दोलन है और यह आंशिक रूप से सही भी है। जाट राज्य की आबादी का लगभग 22 फीसदी हिस्सा हैं, और शिअद और कांग्रेस के बीच विभाजित हैं। ये अन्य मतदाताओं के एक बड़े हिस्से से अलग हैं, जिन्हें विशेष रूप से हिन्दू और शहरी समुदाय की 40 फीसदी आबादी और 32 फीसदी अनुसूचित जातियाँ शामिल हैं। पंजाब भाजपा बादल परिवार और साथ ही कांग्रेस पार्टी पर चौटाला जैसा प्रयोग करना चाहती है, जो जाट-सिख समुदाय का नेतृत्व कर रही है और आक्रामक रूप से हिन्दू और दलित आबादी को साध रही है। कांग्रेस पार्टी उम्मीद कर रही है कि आन्दोलन के प्रति मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का नरम रुख उसे मज़बूत स्थिति में रखेगा।
महिलाओं में पाँच समानताएँ
◆ महिलाओं के लिए रोल मॉडल बनकर ग्रामीण और शहरी परिदृश्य में बदलाव की अग्रदूत होने का मज़बूत अर्थ- प्राकृतिक नेत्री।
◆ बड़े पैमाने पर विवादास्पद कृषि कानूनों का अध्ययन करना। महिलाएँ एक निष्कर्ष पर पहुँचती हैं और मुद्दों पर व्यापक चर्चा कर सकती हैं।
◆ सेवा करने की प्रबल इच्छा- मानवता की सेवा। विभिन्न भूमिकाओं के लिए उन्होंने स्वेच्छा से काम किया है और निर्णायक रूप से उनका कार्यभार सँभाला है।
◆ वे सभी व्यक्तिगत हैसियत से यहाँ हैं और किसी समूह विशेष या राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं हैं। लेकिन एक समान विचारों के लोगों, जो उन्हें इस आन्दोलन के दौरान ही मिले हैं; के साथ एक टीम की तरह काम कर रही हैं।
◆ वे यहाँ रहने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। वे तब तक काम करेंगी, जब तक कि यह विरोध अपनी परिणति तक नहीं पहुँच जाता।
ज़मीनी परिवर्तन
अगर किसी को इस किसान आन्दोलन के सबसे प्रेरित सामाजिक पहलू को इंगित करना चाहिए, तो वह लिंग भूमिकाओं और रूढिय़ों में निश्चित और निर्णायक सुधारात्मक परिवर्तन को समझे। महिलाओं ने असंख्य नेतृत्व किये हैं, रणनीतिक भूमिकाएँ निभायी हैं। किसान भी उनकी इस भूमिका के उलट होने को सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं। सहायक से लेकर प्रमुख भूमिकाओं तक, क्रान्तिकारी महिलाओं ने एक लम्बा सफर तय किया है।
एक दिन स्वयंसेवक के साथ
सिंघू बॉर्डर पर विरोध-प्रदर्शन स्थल 10 किलोमीटर लम्बा है। प्रभजोत के लिए अगले हफ्तों में हर रोज़ 20 किलोमीटर या उससे अधिक पैदल चलना, उनकी दिनचर्या बन गयी है। इसकी शुरुआत उनके दिल्ली स्थित अपने घर से सुबह 8:00 बजे होती है। रात में लोगों को शरण देने के लिए विरोध स्थल पर तम्बुओं (टेंटों) की एक बस्ती बन गयी है और प्रभजोत इसका विस्तार करने और प्रबन्धन करने वाली टीम का हिस्सा हैं। वह कहती हैं- ‘इन तम्बुओं को आवंटित करने का प्राथमिकता क्रम पहले महिलाओं, फिर वरिष्ठ नागरिकों और फिर अन्य सभी के लिए है। यह मुख्य रूप से परिवारों और महिला प्रदर्शनकारियों और छोटे बच्चों वाले परिवारों की गोपनीयता, सुरक्षा और गरिमा से जीने में मदद करने के लिए स्थापित किया गया है। हर दिन आने के बाद वह जाँचती हैं कि कितने तम्बू खाली हैं? कितनी आवश्यकता है? और कितने उनके पास बचे हैं? वहाँ रहने वालों की क्या ज़रूरत है? कितनी वस्तुएँ दान में आयी हैं? उनकी एक सूची बनाती हैं। लंगर और अन्य आवश्यक वस्तुओं को वितरित करना, तम्बू को दिन में दो बार साफ करना और टीकरी में अपने समकक्षों से सम्पर्क रखना और उन्हें सिंघू की जानकारी भेजना भी उनकी ज़िम्मेदारियों का हिस्सा है। इसके लिए वह सिंघू के अलग-अलग केंद्रों पर घूमती हैं और सामान को दूसरी जगह भेजने के लिए इकट्ठा करती हैं। वह कहती है कि कुछ भी बर्बाद नहीं होने दिया जाता। अपने स्टॉक पर नज़र रखने के अलावा उनका ज़िम्मा चोर-उचक्कों के प्रति भी सतर्कता बनाये रखना भी है। यही नहीं, इस तम्बू शहर में उनकी टीम शान्ति और सुकून भी बनाये रखती है। उनके कर्तव्यों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है कि वहाँ के शौचालयों में महिलाओं के लिए उचित स्वच्छता सुविधाओं को बनाये रखा जाए। सैनिटरी नैपकिन का वितरण और शौचालयों की नियमित रूप से सफाई करना उसका काम भी है। इसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि कोई वाहन तम्बू वाले क्षेत्र के प्रवेश द्वार के सामने खड़ा न हो। अपने खुद के भोजन की परवाह किये बगैर हफ्तों तक इस तरह का अथक परिश्रम क्यों करती हैं? पूछने पर प्रभजोत कहती हैं- ‘सेवा! मानवता की सेवा। यह मेरे विश्वास का सिद्धांत है। हमें अपने गुरुओं और बड़ों के द्वारा निर्देश दिया गया है कि हम किसी ज़रूरतमंद की मदद करें, चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो। और मैं एक उचित कारण का समर्थन कर रही हूँ।’ उन्होंने कहा कि ये कानून किसान विरोधी, मानवता विरोधी हैं; इसलिए मैं इस विरोध में अपना योगदान दूँगी। और फिर हम दिल्ली के पंजाबी ही यहाँ नहीं हैं, बल्कि हरियाणा, हिमाचल और उत्तर प्रदेश के युवा तक यहाँ हैं।’ एक मुस्कान के साथ प्रभजोत कहती हैं- ‘यह सभी राज्यों के भाइयों के लिए ऐसा कर रहे हैं। ऐथे (यहाँ) एक्ता वाला महौल है।’ यह पूछे जाने पर कि वह ऐसा कब तक करती रहेंगी? वह आत्मविश्वास के साथ जवाब देती हैं- ‘मोर्चा फतेह करके (लड़ाई जीतकर) ही हटेंगे।’
इक चिंगारी, जेड़ी बन गयी नेहरी
घटनाक्रम : इक चिंगारी, जेड़ी बन गयी नेहरी (एक चिंगारी, जो बवंडर बन गयी है)। यह कहावत दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। इस बवंडर ने एक जनान्दोलन का रूप ले लिया है, जिसका प्रभाव पंजाब और हरियाणा से लेकर पड़ोसी राज्यों और यहाँ तक कि पूरे देश में दिखने लगा है, जो अन्नदाता की आत्मा को छू रहा है। यहाँ तक कि जब आन्दोलन का यह स्वरूप दिल्ली की सीमाओं पर दिख रहा है, एक बड़ा अहसास उभर रहा है कि किसानों को कृषि के वर्तमान स्वरूप को बचाये रखने के लिए देश भर में एकजुट होना होगा। किसान समझते हैं कि एनडीए सरकार कृषि ढाँचे को पूरी तरह से बदलना चाहती है। तीन कृषि कानून, जो निजी मंडियों की स्थापना करने और राज्य द्वारा व्यापारियों पर कर (टैक्स) हटाने के अलावा अनुबन्ध कृषि की सुविधा और कृषि उपज की जमाखोरी की अनुमति देने की बात करते हैं; सभी उद्योगों को लाभ पहुँचाने के लिए हैं। यही कारण है कि कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर सहित भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने दोहराया है कि ‘एमएसपी है, और रहेगी’, पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।
किसानों द्वारा अपनी उपज को कहीं भी बेचने की अनुमति देने के लिए नये कानून लाने की भव्य व्याख्या एमएसपी की तुलना में कहीं अधिक कीमतों पर किसानों को उपहास के साथ मिल रही है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान यह समझते हैं कि सुनिश्चित सरकारी खरीद से जुड़ा एमएसपी एकमात्र तत्त्व है, जो कृषि को प्रभावित करता है। वे (किसान) पहले से ही जानते हैं कि बिहार में इस तत्त्व को हटाने और इसके बाद कृषि उत्पादन विपणन समितियों (एपीएमसी) के विनाश ने राज्य के किसानों को प्रवासी मज़दूरों में बदल दिया। इसलिए वे कृषि प्रणाली को बचाने के लिए लड़ रहे हैं।
एनडीए सरकार इस प्रणाली को जारी रखने की अनुमति देने के लिए कोई लिखित करार करने के लिए तैयार नहीं है। तीन कृषि विपणन कानूनों का सार कृषि क्षेत्र में निजी निवेश के प्रवेश की सुविधा है। किसानों का कहना है कि इससे कृषि बुनियादी ढाँचे की गिरावट होगी। वे इस बात का उदाहरण देते हैं कि कैसे सरकारी स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी ढाँचे को निजी खिलाडिय़ों को प्रोत्साहित करने के लिए खत्म होने दिया जा रहा है।
ऐसे में किसानों की लड़ाई एनडीए सरकार और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अंबानी और अडानी के खिलाफ लड़ाई बन गयी है। यहाँ तक कि केंद्र भी बैठकों की एक शृंखला के माध्यम से प्रदर्शनकारियों को आन्दोलन खत्म करने की कोशिश कर रहा है। किसान संगठन अपने आन्दोलन को देशव्यापी बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। युद्ध की रेखाएँ खिंची हुई हैं। वार्ता के बहाने और किसानों को बार-बार आमंत्रित करके सरकार केवल समय व्यतीत कर रही है। अब तक किसानों को आतंकवादी और नक्सलियों के रूप में चित्रित करने का प्रयास विफल रहा है। अब सरकार उन्हें उन समूहों के रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रही है, जो बात नहीं करना चाहते हैं और केवल अराजकता फैलाना चाहते हैं। भाजपा की दुष्प्रचार मशीनरी इस पर पूरी तरह से काम कर रही है। दूसरी ओर किसान संगठनों को पंजाब और हरियाणा के किसानों का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त है। उन्होंने अपना खूँटा गाड़ दिया है और घोषणा की है कि वे तीन कृषि कानूनों को पूरी तरह से निरस्त करने से कम पर कोई समझौता नहीं करेंगे।
कांग्रेस का किसान मार्च
संसद में कृषि कानून जल्दबाज़ी में और विपक्ष को किनारे करके पास करवाने का लगातार आरोप लगा रही कांग्रेस ने किसानों के हक में 24 दिसंबर को दिल्ली में अपने नेताओं राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी और अन्य के नेतृत्व में सड़कों पर आवाज़ बुलंद की। कांग्रेस किसानों के पक्ष में दो करोड़ हस्ताक्षरों वाले बंडल को लेकर विजय चौक से राष्ट्रपति भवन तक मार्च निकालने जा रही थी, लेकिन केंद्र सरकार ने धारा-144 लगाकर कांग्रेस दफ्तर से बाहर निकलते ही उन्हें रोक लिया। बाद में प्रियंका गाँधी को अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ हिरासत में ले लिया गया, जबकि राहुल गाँधी ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से भेंट करके किसानों के आन्दोलन और उनकी माँगों के हक में दो करोड़ हस्ताक्षरों वाला ज्ञापन उन्हें सौंपा। राहुल गाँधी ने इस मौके पर कहा- ‘करोड़ों लोग हैं, जो कृषि से जुड़े हुए हैं और यही लोग देश की रीढ़ हैं। हम मानते हैं कि कृषि क्षेत्र में सुधार होना चाहिए, लेकिन अगर कृषि को तबाह कर दिया जाएगा, तो करोड़ों लोगों को बहुत पीड़ा का सामना करना पड़ेगा। इन कृषि कानूनों से किसानों को जबरदस्त नुकसान होगा। इन्हें बस चार-पाँच उद्योगपतियों को फायदा पहुँचाने के लिए बनाया गया है। ये कानून किसान विरोधी हैं और इससे मज़दूरों और किसानों का बहुत नुकसान होने जा रहा है। देश का किसान इन कानूनों के खिलाफ खड़ा है। प्रधानमंत्री को यह नहीं सोचना चाहिए कि ये मज़दूर और किसान वापस चले जाएँगे। जब तक ये कानून वापस नहीं लिए जाते, तब तक ये किसान पीछे नहीं हटेंगे। आप संयुक्त सत्र बुलाइए और कानूनों को वापस लीजिए।’