क्यों नहीं आती लक्ष्मी पत्रकार के द्वार!

दीपावली का दिन या यूँ कहिए दीपावली की रात्रि। लोग खूब रौशनी करते हैं और अपने किवाड़ खुले रखते हैं, ताकि धन की देवी लक्ष्मी माता आराम से घर में प्रवेश कर सके। इस मामले में हम िकस्मत वाले हैं। घर में किवाड़ ही नहीं है। केवल चौखट है। उस चौखट पर दो कीलें लगाकर परदा टाँग दिया है। कुछ तो परदा रहे। पर कितनी दिवालियाँ और अमावस की रातें गुज़री पर धन की देवी के चरण हमारे इस हवादार जैसे मकान में नहीं पड़े। इस बार उम्मीद थी, क्योंकि साथ वाले बंगले में रहने वाले सेठ घनश्यामदास अपने पापों से मुक्ति के लिए परिवार सहित चार धाम की यात्रा पर थे। सोचा शायद इस बार देवी उनका बंद दरवाज़ा देखकर हमारे बिना पल्लों वाली चौखट को लांघकर अंदर आ जाए। वैसे भी आज तक इस चौखट के अंदर कर्ज़दारों अलावा किसी और के कदम नहीं पड़े हैं।

इस साल हमने अपने घर के बाहर अपने नाम की तख्ती भी लगा दी थी और नाम के नीचे लिख दिया ‘पत्रकार’। घर में बिजली नहीं थी। मोमबत्तियों की धीमी रौशनी में रोज़ की तरह काम हो रहा था। सही भी था कि जब दो-तीन महीने तक बिजली का बिल 250 रुपये का नहीं भरोगे, तो बिजली तो कटेगी ही। हम कोई पूंजीपति, उद्योगपति, मंत्री, विधायक या पार्टी के अध्यक्ष थोड़ा ही हैं, जिनका लाखों रुपये के बिल ‘बकाया’ होने पर भी बिजली नहीं कटती, क्योंकि वे देश हित में ऐसा करते हैं। पर एक बात ठीक हुई कि जो लोग हमारी औकात नहीं जानते थे उन्हें लगा होगा कि लक्ष्मी माता के स्वागत के लिए किवाड़ खुला छोडऩे की जगह पल्ले ही निकलवा दिए और घर में ‘कैंडल लाइट डिनर’ चल रहा है। अमीरों का कैंडल लाइट डिनर उनकी भव्यता का सुबूत है और हमारा ‘कैंडल लाइट डिनर’ है हमारी मुफलिसी की व्यथा। खैर दीपावली की पूरी रात बैठे रहे इंतज़ार में। वैसे तो घर के आँगन में अँधेरा था पर सेठ घनश्यामदास के बंगले पर लगी लडिय़ों की रौशनी के हम भी भागीदार थे, तो छनकर बिखर रही रौशनी में हमारी ‘नेम प्लेट’ पढ़ी जा रही थी। पर देवी नहीं आयी। दरवाज़े पर दो कीलों के सहारे लटक रहा परदा एक बार भी नहीं हिला, जिससे पता चलता कि कोई अंदर आया है। सुबह आँगन में देवी के पैरों के निशान भी तलाशे पर भारी जूतों और चप्पलों के अलावा वहाँ कोई निशान नहीं था। बैंक के खाते में 35-40 रुपये कम हो गये थे, क्योंकि दीपावली का सामान खरीदने के लिए जो पैसे एटीएम से निकलवाये थे, उनके एवज़ में बैंक ने अपनी दलाली काट ली थी। जो भी हो, देवी नहीं आयी, तो धन भी नहीं आया। उल्टे त्योहार पर खर्च और हो गया। सुबह ऑफिस गये वहाँ देखा एक जूनियर पत्रकार चमचमाती गाड़ी में आये। ड्राइवर ने उन्हें ऑफिस के गेट पर उतारा और गाड़ी पाॄकग में ले गया। हम हैरान-परेशान थे। हमें घर का खर्च चलाना दूभर है और ये साहिब चालक सहित गाड़ी में घूम रहे हैं। साथ से गुज़र रहे एक सहायक ने कहा- ‘क्या देखते हो जनाब, यह आप जैसा नहीं है। यह तो ‘गोदी-मीडिया’ का हिस्सा बन गया है।

हमने पूछा यह ‘गोदी मीडिया’ क्या चीज़ है? वह बोला जब आप अपनी कलम अपनी मर्ज़ी से नहीं, बल्कि किसी और की मर्ज़ी से चलाते हैं, तो आप ‘गोदी मीडिया’ की श्रेणी में आ जाते हो। बस थोड़ा-सा कलम का मुँह मोड़ दो फिर देखो पैसों की कैसी बरसात होती है। आपके आँगन में। उस जूनियर पत्रकार ने शायद मुझे यह भी समझाने का प्रयास किया कि अब पत्रकार की परिभाषा बदल गयी है। अब इसका अर्थ है पत्र और कार। यह बात कुछ-कुछ हमारी समझ में भी आयी। समझ में आने लगा कि देश में जो भी सौदेबाज़ी होती है, उसमें कोई-न-कोई बिचौलिया होता है। तो धन की देवी की हमारे साथ जो ‘डील’ है वह भी तो किसी बिचौलिए के द्वारा ही होगी। ये बिचौलिए हैं वे लोग जिनकी मर्ज़ी से आपका कलम चलेगा या आपकी आवाज़ निकलेगी। पर हम क्या करें हम तो उर्दू के महान् शायर मोमिन खान मोमिन के इस शेयर जैसे हैं-

‘उम्र तो सारी कटी इश्क-ए-बुतां में मोमिन

आािखरी वक्त में क्या खाक मुस्लमां होंगे’

घर में चाहे दरो-दीवार न हों, दीवारों के दरीचों से हवा आती हो, पर कलम जो मिला, वह अनमोल है। इस कारण यह बिकाऊ नहीं है। इसकी कीमत चुकाने वाला अभी इस धरती पर नहीं आया। लोगों की पहचान उनके रुतबे और धन-दौलत से होती है, पर हमारी पहचान तो यह कलम हैं। आदमी कैसा भी हो अपनी पहचान तो नहीं खोना चाहता। तो हम कैसे खो दें।