क्या 2014 में मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बन सकते हैं?

मुलायम सिंह यादव भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. जितना लंबा समय उन्होंने भारतीय राजनीति को दिया है उसके मद्देनजर इसमें कोई बुराई भी नहीं है. उनका लंबा-चौड़ा राजनीतिक अतीत है, तीन-तीन बार वे देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लोकसभा में उनके पास 22 सांसद हैं, उनका बेटा उत्तर प्रदेश के इतिहास में सबसे बड़े बहुमत की सरकार चला रहा है. अकेले मुलायम सिंह के परिवार में चार सांसद हैं. इस लिहाज से उनका प्रधानमंत्री पद के बारे में सोचना लाजिमी है.

लेकिन क्या सिर्फ इन आंकड़ों के सहारे उनका प्रधानमंत्री पद का दावा मजबूत माना जा सकता है? आंकड़े ये भी हैं कि 2004 में मुलायम सिंह के पास 35 सांसद थे. तब वे उत्तर प्रदेश की सत्ता में भी थे. इसके बावजूद यूपीए-एक की सरकार में अपने लिए एक सम्मानजनक जगह तक नहीं बना सके थे. 2004 में केंद्र की राजनीति में हाशिये पर धकेल दिए गए मुलायम सिंह यादव उस निराशा में पूर्व प्रधानमंत्री और वरिष्ठ समाजवादी नेता चंद्रशेखर से मिलने पहुंचे थे. चंद्रशेखर ने उन्हें सांत्वना के साथ यह कहकर साहस दिया कि हम तो इधर-उधर से चालीस सांसद जोड़कर प्रधानमंत्री बने थे आपके पास तो अपने चालीस सांसद हैं, निराश क्यों हो रहे हैं, आपका समय आएगा. मुलायम सिंह ने चंद्रशेखर की वह बात और प्रधानमंत्री पद की अपनी इच्छा, दोनों को गांठ में बांध लिया. पर उनके संघर्ष के दिन अभी खत्म नहीं हुए थे. 2009  का साल उनके लिए और बड़ी निराशा लेकर आया. यूपीए को 2004 से भी बड़ा जनमत मिला. मुलायम सिंह संसद में 22 सीटों पर सिमट गए. एक बार फिर उनकी इच्छा धरी रह गई. उनके पास यूपीए को मुद्दा-आधारित समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

असल में मुलायम सिंह की आशा-निराशा के बीज साल 1996 में छिपे हुए हैं. उस साल बनी संयुक्त मोर्चे की सरकार में देवगौड़ा से पहले ज्योति बसु और मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे. लेकिन तब उनके सजातीयों (शरद, लालू) ने उनका खेल खराब कर दिया था. बिल्ली और बंदर वाली कहानी की तर्ज पर यादवों की लड़ाई में देवगौड़ा ने बाजी मार ली थी. इस चूक की टीस और चंद्रशेखर का भरोसा मुलायम सिंह के मन में कायम है. 2012 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव ने उनकी उम्मीदों को नई परवाज दी है. देश एक बार फिर से उसी मोड़ पर खड़ा है जहां से मुलायम सिंह के लिए सात रेसकोर्स की राह निकल सकती है, यानी लोकसभा चुनाव. यूपी के इस क्षत्रप की गतिविधियां एक बार फिर से बढ़ गई हैं. मुलायम को भी पता है कि वे अपनी आखिरी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन 2012 में अखिलेश यादव के सत्ता में आने के बाद से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में काफी बदलाव आए हैं. 90 के दशक के पूर्वार्ध से थम चुके सांप्रदायिक दंगों की एक नई बाढ़ इस दौरान प्रदेश में देखने को मिली है और मोदी के रूप में एक नए फैक्टर का उदय हुआ है. उधर युवाओं के बीच टैबलेट, लैपटॉप और भत्ते की एक नई राजनीति भी इस दौरान चल रही है और पिछड़ा राजनीति का एक नया अध्याय इसी दौरान मुलायम सिंह ने शुरू किया है. मुलायम सिंह की प्रधानमंत्री पद की संभावनाओं को आंकने के लिए उनकी राजनीति के तमाम कलपुर्जों की पड़ताल करना जरूरी है. वे कलपुर्जे जो मुलायम सिंह की उम्मीदों को बड़े पंख देते रहे हैं.

मुसलमान
मुसलमान मुलायम सिंह की राजनीति की सबसे मजबूत धुरी है. 1992 में रामजन्मभूमि-बाबरी विवाद के बाद से ही यह तबका मुलायम सिंह के साथ रहा है. 2009 तक इसका समर्थन एकमुश्त मुलायम सिंह के साथ ही रहा था. लेकिन 2009 में हालात बदल गए. उस साल हुए लोकसभा चुनावों में सपा का एक भी मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा में नहीं पहुंच सका. इसकी कुछ वजहें थीं- कल्याण सिंह को सपा में शामिल करना, आजम खान को बाहर करना आदि. मुलायम सिंह यादव ने तत्काल ही इन खामियों को दूर करके एक बार फिर से मुसलमानों का विश्वास जीता. 2012 में उन्हें इसका नतीजा भी मिला. छिटका हुआ मुसलमान उनसे फिर से आ जुड़ा. पूर्व समाजवादी नेता और पत्रकार शाहिद सिद्दीकी के शब्दों में, ‘मुसलमान मुलायम से इसलिए नहीं जुड़ा है कि वे उसे बेहतर गवर्नेंस या तरक्की देते हैं, मुसलमान उनसे सिर्फ इसलिए जुड़ा क्योंकि वे उसे सुरक्षा का भरोसा देते थे.’

जिस बात से सिद्दीकी अपनी बात खत्म करते हैं, वहीं से मुलायम सिंह यादव की मुसीबतें शुरू होती हैं. जिस सुरक्षा के भरोसे मुसलमान मुलायम सिंह यादव के साथ जुड़ा था, वह बीते डेढ़ सालों के दौरान बुरी तरह से टूटा है. मुजफ्फरनगर के शाहपुर विस्थापित कैंप में रह रहे इमरान अहमद कहते हैं, ‘हम तो सोचते थे कि हमारी सरकार है. लेकिन ये भी भाजपा वालों की तरह ही हैं.’ मोहभंग की यही भावना सैकड़ों किलोमीटर दूर आजमगढ़ में रहने वाले शायर सलमान रिजवी की बातों से भी झलकती है, ‘कदम-कदम पर अपनी ही जमीन पर हमें शक की निगाहों से देखा जा रहा है और इसका सिलसिला बढ़ता जा रहा है. आज पूरी उस कौम के अंदर एक खौफ बैठ गया है जिसने आज़ादी के आंदोलन में अपने घरों को लुटवाया था. सिर्फ साठ सालों के अंदर देखते ही देखते उसको तोहमतों से ढक दिया गया है. पूरी कौम अपने को बेचारगी के आलम में फंसा महसूस कर रही है. लोगों के अंदर पुलिस और स्टेट का खौफ भर दिया गया है, अब हमें ऐसे राजनीतिक विकल्प को तलाशना और खड़ा करना होगा जो पूरी तरह सेक्युलर और ईमानदार हो.’

ये विचार अचानक से नहीं बदले हैं. उत्तर प्रदेश में 2012 में सपा की सरकार बनने के बाद से प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गई है. मुजफ्फरनगर में हुए हालिया दंगों के बाद से हालात सपा के हाथ से एकदम निकले हुए दिखाई देते हैं. यहां करीब 60 लोगों की मौत हुई है जिनमें 40 के करीब मुसलमान हैं. इमरान अहमद जैसे हजारों लोग आज भी अपनी जड़ों से उखड़ कर विस्थापन शिविरों में रहने को मजबूर हैं. मीडिया और सोशल मीडिया में आ रही विस्थापन की तस्वीरें बार-बार समाज को ठेस पहुंचा रही हैं और उन्हें हर दिन के साथ मुलायम से दूर और दूर ले जा रही हैं. जो भरोसा सपा हमेशा मुसलमानों को देती आई थी, वह टूट गया है. हालांकि सपा नेता कमाल फारुखी का यकीन कुछ और है, ‘लोकसभा चुनावों में अभी काफी वक्त है. नेताजी इतनी आसानी से मुस्लिमों को नाराज नहीं छोड़ेंगे. जल्द ही वे कोई न कोई रास्ता खोज लेंगे.’

मुलायम सिंह यादव रास्ता खोजने में लगे हुए हैं. 1993 के बाद से वे अपने हर चुनावी अभियान का श्रीगणेश खासी मुस्लिम आबादी वाले आजमगढ़ से करते रहे हैं. 14 सितंबर,1993 को अपने चुनावी अभियान की शुरुआत के साथ ही उन्होंने इस जिले को एक यादगार तोहफा दिया था, इसे  मंडल (कमिश्नरी) बना कर. तब वे लखनऊ से कमिश्नर को अपने साथ हेलिकॉप्टर में लेकर आए थे. बदले में इस इलाके की बड़ी मुस्लिम और यादव आबादी ने भी लगातार मुलायम सिंह का साथ दिया. आज भी आजमगढ़ से उनके नौ विधायक और एक सांसद है. इस बार भी उन्होंने यहीं से अपने अभियान की शुरुआत की. लेकिन इस बार नजारा अलग था. मुलायम सिंह की चुनावी रैली में एक लाख के करीब लोग इकट्ठा हुए. लेकिन उनकी राजनीति के लिए सबसे अहम मुसलमान इस सभा से पूरी तरह नदारद थे. यह नदारदगी मुजफ्फरनगर की नाराजगी है. सिद्दीकी कहते हैं, ‘अब मुसलमान आंख बंद करके मुलायम को वोट नहीं देगा. वो स्ट्रैटेजिक वोटिंग करेगा. अब ये उम्मीदवार पर निर्भर करेगा. उसकी पहली पसंद बीएसपी या कांग्रेस होगी.’

अगर ऐसे हालात बनते हैं तो मुलायम सिंह का ख्वाब एक बार फिर से टूट जाएगा. उत्तर प्रदेश में देश की सबसे घनी मुस्लिम आबादी, लगभग 19 फीसदी, रहती है. बिना इनके शत-प्रतिशत सहयोग के मुलायम सिंह दिल्ली नहीं पहुंच सकते. वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान बताते हैं, ‘मुजफ्फरनगर और इस दौरान हुए तमाम दंगे सपा के लिए काउंटर प्रोडक्टिव हो गए हैं. ये तभी दिल्ली पहुंच सकते थे जब इन्हें मुसलमानों का पूरा वोट मिल जाता. आज की तारीख में इन्हें मुसलमान वोट नहीं दे रहा है. मुलायम सिंह को लग रहा है कि मुजफ्फरनगर का असर सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होगा. यह उनकी गलतफहमी है.’

सरकती जमीन का अहसास नेताजी को भी है, इसीलिए उन्होंने आजमगढ़ की सभा में मंच पर पीछे की कतार में बैठे अबू हाशिम आजमी को एक अतिरिक्त कुर्सी लगवाकर आगे की कतार में अपने साथ बिठाया. अपने संबोधन में नेताजी ने बार-बार आजम खान का जिक्र किया. बदले में आजम खान ने भी एक बार फिर से मुलायम सिंह को रफीकुल मुल्क (देश की धरोहर) की उपाधि दी. लेकिन जिस तबके को लेकर यह सारी रस्साकशी चल रही थी वह तबका ही इस सभा से नदारद था.

यादव और अन्य पिछड़ा वर्ग
मुलायम सिंह की राजनीतिक सफलता के सूत्र उनकी जातीय और धार्मिक समीकरणों को गहराई से समझने और उन्हें साधने की चमत्कारिक प्रतिभा में छिपे हैं. मुसलमानों के छिटकने की हालत में भी यादव तबका काफी हद तक मुलायम सिंह के साथ बना रहेगा. पर इसमें भी कुछेक कारणों से सेंध लग सकती है. पहली वजह हो सकती है मोदी से मिलने वाली चुनौती और दूसरी हाल के कुछ सालों में तैयार हुआ युवा वोट बैंक. यादवों में युवा वोटरों की एक बड़ी संख्या आज ऐसी है जो जात-बिरादरी से ज्यादा मोदी के बहाव में है. गोरखपुर की पिपराइच विधानसभा से आजमगढ़ की सभा में आए 20 वर्षीय महाबली यादव से हुई छोटी-सी बातचीत पर ध्यान दीजिए-

तहलका– मुलायम सिंह का भाषण सुना आपने. कैसा लगा?
महाबली यादव– ठीक था.
तहलका– तो अगले चुनाव में इन्हें वोट देंगे या नहीं?
महाबली यादव– वोट के बारे में अभी सोचा नहीं है.
तहलका– किसी को देने का मन तो होगा?
महाबली यादव– मोदी को भी दे सकते हैं. इस समय तो वही सबसे बढ़िया नेता है जो देश को बचा सकता है.
तहलका– क्यों मुलायम सिंह क्यों नहीं…
महाबली यादव– मोदी के सामने ये लोग कुछ नहीं हैं.

यह विचार पूर्वी उत्तर प्रदेश के उस युवा यादव वोटर का है जिसे अब तक मुलायम सिंह का घनघोर सहयोगी माना जाता था. इन्हीं के सहारे मुलायम सिंह ने ‘माई’ का अकाट्य फॉर्मूला ईजाद किया था. यादवों के मन में सपा के प्रति आई नाराजगी की एक वजह शरत प्रधान और बताते हैं, ‘जिस तरह से उत्तर प्रदेश में सरकार बनने के बाद परिवार को आगे बढ़ाने की कोशिश हुई है उससे भी यादवों में एक तरह की निराशा है. आम यादवों के काम बिना पैसा दिए हो नहीं पा रहे. उनमें तेजी से यह भावना पैठ बना रही है कि यह सरकार कहने को उनकी सरकार है पर बिना पैसे दिए किसी की सुनवाई यहां नहीं हो रही. इसके बावजूद ये नहीं कह सकते कि यादव मुलायम सिंह से पूरी तरह विमुख हो जाएगा.’

यादवों की नाराजगी और इससे हो सकने वाले नुकसान का इल्म मुलायम सिंह और पार्टी को है. लिहाजा मुलायम सिंह ने सामाजिक न्याय के फॉर्मूले को एक नई धार देने की कोशिश की है. केंद्र सरकार को भेजे गए एक संस्तुति पत्र के माध्यम से उत्तर प्रदेश सरकार ने ओबीसी में शामिल 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग की है. इन जातियों में कहार, कश्यप, केवट, मछुआ, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर, राजभर, बियार, बाथम, गोंड, तैरहा आदि शामिल हैं. स्वयं मुलायम सिंह यादव ने इस राजनीति को धार देने के लिए पूरे प्रदेश में दो रथयात्राओं की शुरुआत की है. यह उसी तर्ज की राजनीति है जिसका प्रयोग बिहार में नीतीश कुमार ने महादलित के रूप में एक नया वोटबैंक अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए किया था. ये वे पिछड़ी जातियां हैं जो आम तौर पर सपा से दूर रही हैं और परंपरागत रूप से भाजपा-बसपा को वोट करती रही है. अगर मुलायम सिंह का यह दांव सफल रहता है तो निश्चित रूप से वे अपने और पार्टी के लिए एक नया वोटबैंक खड़ा करने में सफल रहेंगे. उत्तर प्रदेश की पिछड़ी जातियों में शामिल इन 17 जातियों की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा ही है.

अगड़ी जातियां
2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को जो असाधारण सफलता मिली थी उसमें उसके परंपरागत वोटबैंक के अलावा अगड़ी जातियों के वोट की भी अहम भूमिका रही थी. इसको एक आंकड़े से समझा जा सकता है. 2007 के विधानसभा चुनाव में राजपूतों के कुल वोट का 20 फीसदी सपा को मिला था जबकि 2012 में यह आंकड़ा बढ़कर 26 फीसदी हो गया. इसी तरह से ब्राह्मण वोट 2007 में 10 फीसदी था जो 2012 में बढ़कर 19 फीसदी तक जा पहुंचा. सपा को मिली 224 सीटें भी इस बात की तस्दीक करती हैं कि सपा को लगभग सभी वर्गों के वोट मिले थे.

लेकिन सपा इस भरोसे नहीं बैठ सकती है. स्थितियां 2012 से काफी हद तक बदल चुकी हैं. ब्राह्मण कभी भी सपा का परंपरागत वोटर नहीं रहा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में सवर्ण वोटों की राजनीति करने वाली भाजपा और कांग्रेस के पतन के बाद से सूबे की दो महत्वपूर्ण ठाकुर और ब्राह्मण जातियों ने अपने लिए अलग ठिकाने ढूंढ़ लिए हैं. ब्राह्मण जहां बसपा के करीब हुआ वहीं ठाकुर सपा के साथ खड़ा हो गया. लेकिन 2012 में ब्राह्मणों ने बसपा के ऊपर सपा को तरजीह दी. उसकी कुछ वजहें थीं. प्रधान बताते हैं, ‘मायावती के शासन में सबको लगता था कि ब्राह्मणों की पूछ बढ़ गई है लेकिन सच्चाई ये थी कि सिर्फ सतीश मिश्रा के परिजनों और रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाया जा रहा था.’ 2012 में जो ब्राह्मण वोट सपा को मिला वह असल में मायावती के खिलाफ दिया गया था न कि सपा के समर्थन में. इस बीच डेढ़ सालों के दौरान सपा की जो छवि बनी है उसने ब्राह्मणों को तेजी से सपा से दूर किया है. छवि यह कि सपा सरकार तुष्टीकरण की हद तक जाकर मुसलमानों को खुश करने में लगी हुई है बाकी किसी की सुनवाई नहीं हो रही.

दूसरी तरफ जो ठाकुर मतदाता पिछले काफी समय से सपा के साथ खड़ा था वह भी कुछ हद तक लोकसभा चुनावों में सपा से दूर हो सकता है. मुलायम सिंह ने ठाकुरों को अपने साथ जोड़ने के लिए राजा भैया समेत कुछ लोगों को सरकार में मंत्री बानाकर उन्हें खुश करने की कोशिश जरूर की है लेकिन उत्तर प्रदेश के ठाकुरों में इस समय एक दूसरी हवा चल रही है. उत्तर प्रदेश में क्षत्रियों के सबसे बड़े नेता राजनाथ सिंह इस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और चुनाव बाद की कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम पर भी विचार हो सकता है. सो उत्तर प्रदेश में एक लहर भाजपा की तरफ से ऐसी बनाई जा रही है कि एक बार फिर से ठाकुर को प्रधानमंत्री बनाना है. स्वाभाविक है अगर भाजपा का यह दांव चल गया तो सपा को नुकसान हो जाएगा. इसकी एक बानगी कुछ दिन पहले लखनऊ की सड़कों पर लगे होर्डिगों में दिखी. भाजपा के ठाकुर नेताओं ने राजा भैया के समर्थन में पोस्टर लगवाए ‘सत्य परेशान हो सकता है किंतु पराजित नहीं’. इसके बाद आनन-फानन में अखिलेश यादव ने राजा भैया को उत्तर प्रदेश की कैबिनेट में फिर से शामिल कर लिया. शाहिद सिद्दीकी इसे इस तरह से देखते हैं कि पूरे के चक्कर में मुलायम सिंह के हाथ से आधा भी निकल गया है.

तीसरा मोर्चा
तीसरा मोर्चा भानुमति का वह कुनबा है जिसकी ईंट और रोड़े चुनाव के बाद तो जुड़ सकते हैं, चुनाव के पहले यह असंभव है. कमाल फारुखी को विश्वास है कि तीसरा मोर्चा जरूर बनेगा. उनके मुताबिक, ‘कांग्रेस आज की तारीख में अकेले तो सरकार बना नहीं सकती. भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए उसे किसी न किसी का समर्थन करना ही होगा.’ खुद मुलायम सिंह यादव भी चुनाव से पहले कोई गठजोड़ या मोर्चा खड़ा करने की इच्छा नहीं रखते. आजमगढ़ की चुनावी सभा में उन्होंने खुद सबसे कहा, ‘चुनाव के बाद तीसरा मोर्चा ही सत्ता में आएगा. अगर आप लोगों ने मुझे मजबूत करके दिल्ली भेजा तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि हम दिल्ली में इस बार चमत्कार कर देंगे.’

तीसरे मोर्चे के गठन और मुलायम सिंह को इसका नेता बनने की स्थितियों में थोड़ा फर्क है. इसलिए इस पर दो तरह से सोचने की जरूरत है. मुलायम सिंह यादव के अलावा वाममोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, बीजेडी, डीएमके, एडीएमके, टीडीपी, एनसीपी आदि तीसरे मोर्चे की संभावित पार्टियां हैं. इनमें से सबसे अहम हैं वामपंथ वाली पार्टियां. ले-देकर इनका राजनीतिक वजूद केरल और प. बंगाल में है. केरल में इतनी सीटें नहीं हैं कि कोई उसके दम पर केंद्र में आने की सोच सके. पश्चिम बंगाल में जो राजनीतिक स्थितियां हैं उनमें एक बार फिर से ममता बनर्जी के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है. कांग्रेस विरोध की राजनीति तो ममता बनर्जी भी करती हैं और इस लिहाज से वे तीसरे मोर्चे की स्वाभाविक साझेदार हो सकती हैं. लेकिन मुलायम सिंह के साथ उनका हालिया इतिहास इतना कड़वा है कि शायद ही वे मुलायम सिंह का कोई भी सपना साकार होने दें. राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने 24 घंटे के अंदर ममता बनर्जी को गच्चा देकर कांग्रेस का हाथ थाम लिया था.

कर्नाटक में करुणानिधि के बजाय जयललिता के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है. पर उनकी नरेंद्र मोदी के लिए नरमाहट जगजाहिर है. इस लिहाज से अगर तीसरे मोर्चे की संभावित पार्टियों में से तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी पार्टियां अगर साथ न दें तो तीसरा मोर्चा और उसका नेता किस जमीन पर खड़ा होगा?

मुलायम सिंह को तीसरे मोर्चे का नेता बनने के लिए एक और लड़ाई लड़नी होगी सीटों की संख्या के स्तर पर. मुलायम सिंह तीसरे मोर्चे के नेता तभी बन सकते हैं जब वे ‘फर्स्ट अमंग ईक्वल’ हों यानी इसमें शामिल सभी पार्टियों में सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाले बन जाएं. मुलायम सिंह ऐसा सोच भी सकते हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं. इस लिहाज से अगर वे 35-40 सीटें जीतने में कामयाब होते हैं तो वे तीसरे मोर्चे के नेता बन सकते हैं. यदि वे ‘वन अमंग ईक्वल’ रह जाते हैं यानी 20-22 सीटों तक सीमित रह जाते हैं तब शायद ही कोई उन्हें नेता मानने को तैयार होगा. मुलायम सिंह की दिक्कत यह है कि आज की हालत में वे अधिकतम 20-22 सीटों तक पहुंचते ही दिख रहे हैं. सपा के एक वरिष्ठ नेता के शब्दों में, ‘मुजफ्फरनगर के बाद हमारा मिशन 2014, मिशन 14 सीट पर सिमट कर रह गया है. मुजफ्फरनगर दंगे के बाद पूरा दृश्य बदल गया है. आज की तारीख में तीसरा मोर्चा नॉन स्टार्टर है.’

तीसरा मोर्चा यथार्थ से इसलिए भी दूर है कि जिन नेताओं के भरोसे इसके गठन की बात की जा रही है वे कभी भी एक-दूसरे की मुसीबत में साथ खड़े होते नहीं दिखते. आज यदि लालू प्रसाद यादव जेल में हैं तो मुलायम सिंह, चंद्रबाबू, नवीन पटनायक, करुणानिधि आदि किसी भी नेता की तरफ से संवेदना जताने वाला एक भी बयान देखने-सुनने को नहीं मिलता है. इसी तरह जब मुलायम सिंह को बार-बार यूपीए सरकार के दौरान सीबीआई के जरिए ब्लैकमेल किया गया तब भी इनमें से ज्यादातर ने थोड़े-बहुत मुंह-जबानी खर्च के अलावा ज्यादा कुछ करने की कोशिश नहीं की. कहने का अर्थ है कि बेहद सीमित सरोकारों वाले इस मोर्चे की नियति इसके बनने से पहले ही तय है.

उत्तर प्रदेश का अंकगणित
उत्तर प्रदेश को अमूमन तीन हिस्सों में बांटकर देखें तो इसके राजनीतिक यथार्थ को समझने में थोड़ी सहूलियत हो जाएगी – पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश. इनमें से पूर्वी और मध्य वाले हिस्से परंपरागत रूप से मुलायम सिंह के मजबूत गढ़ रहे हैं जबकि पश्चिमी हिस्सा आम तौर पर उनसे रूठा ही रहा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब 26 जिले आते हैं जिनमें कुल 27 लोकसभा सीटें हैं. मौजूदा समय में इनमें से नौ सपा के पास हैं. यह तब है जब सपा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में बहुत बुरा प्रदर्शन किया था. अब हम मध्य यानी अवध वाले क्षेत्र पर नजर डालते हैं. इस इलाके में लोकसभा की करीब 21 सीटें आती हैं. यह इलाका भी मुलायम सिंह का परंपरागत समर्थक रहा है. फिलहाल यहां की 21 में से सपा के कब्जे में पांच सीटें हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 24 लोकसभा सीटें हैं. फिलहाल इनमें से सपा के पास सिर्फ पांच सीटें हैं. इसके अलावा छोटे-छोटे दो और इलाके हैं रुहेलखंड और बुंदेलखंड जहां लोकसभा की चार-चार सीटें हैं. बुंदेलखंड से सपा के दो सांसद हैं जबकि रुहेलखंड से एक सांसद है.

सीटों के ये आंकड़े 2009 के लोकसभा चुनाव के हैं. इसके बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने अपनी स्थिति में चमत्कारिक सुधार किया था. कहें तो इस सुधार ने ही मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने की उम्मीद दी थी. लेकिन डेढ़ सालों के दौरान ही हालात हाथ से निकल गए लगते हैं. पश्चिम की 24 में से लगभग 20 सीटें ऐसी हैं जिन पर मुस्लिम आबादी 40 फीसदी के ऊपर है. इन सीटों पर सपा का वजूद पहले से भी ज्यादा डगमगाता दिख रहा है. इसी तरह से पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश की करीब 15 सीटों पर मुसलमान 35 फीसदी या इससे ऊपर हैं. अगर आजमगढ़ की सभा को संकेत मानें तो यहां भी सपा की हालत पतली होनी तय है. अगर ऐसा होता है तो मुलायम सिंह की सीटों का आंकड़ा किसी सूरत में 20-22 के आगे नहीं पहुंच सकता, और 30-35 का आंकड़ा पार किए बिना वे तीसरे मोर्चे के नेता बन नहीं सकते.

लेकिन मुलायम सिंह यादव सिर से पैर तक विशुद्ध रूप से राजनीतिज्ञ हैं. उन्होंने पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में में शामिल कराने की कोशिश के जरिए जो दांव फेंका है वह अगर कामयाब रहा तो मुस्लिम वोटों की भरपाई के साथ ही वे सामाजिक न्याय का नया समीकरण भी खड़ा करने में कामयाब होंगे. पिछड़ी जातियों में इन जातियों की जनसंख्या एक चौथाई से भी ज्यादा है और ये परंपरागत रूप से भाजपा और बसपा को वोट करती आई हैं. मुलायम सिंह सियासत के पंडितों पर यकीन करने के बजाय अपने राजनीतिक कौशल पर यकीन रखते हैं. उनकी अगाध श्रद्धा भारतीय वोटरों की उस अल्पजीवी याददाश्त में भी है जिसने उन्हें 2007 के कुशासन के बावजूद 2012 में फिर से सत्ता तक पहुंचाया है. उन्हें फिर से विश्वास है कि जो वोटर 1984, मेरठ, मलियाना, भागलपुर, 1992 को भूल चुका है वह मुजफ्फरनगर को भी भूल जाएगा. इसी विश्वास के दम पर वे कहते हैं कि एक बार वे मुजफ्फरनगर जाएंगे तो सबकी शिकायतें दूर हो जाएगीं.

लेकिन यह समय दूसरा है. अखिलेश यादव और राहुल गांधी को मुजफ्फरनगर में लोगों ने काले झंडे दिखाए और आज तक मुलायम सिंह वहां जाने का साहस नहीं जुटा सके हैं. उन्हें भी समझना होगा कि यह समय दूसरा है. आज 2002 के गुनहगारों को जनता भूलने के लिए तैयार नहीं है.

मुलायम सिंह को 2012 ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने का एक अवसर दिया था इससे इनकार नहीं किया जा सकता. मगर यह अवसर जिस तरह की जनाकांक्षाओं की बुनियाद से निकला था उसकी अनदेखी करके मुलायम ने न केवल अपने बल्कि कभी संभावनाओं के पुंज की तरह देखे जा रहे अखिलेश के भी भविष्य को अंधकार में डाल दिया. इसका नतीजा यह है कि फिलहाल मुलायम मार्का राजनीति का एक भी कलपुर्जा ठीक से काम नहीं कर रहा है. ऐसे में उनके सात रेसकोर्स पहुंचने की संभावना फिलहाल खत्म नहीं तो बेहद धूमिल जरूर दिखती है.