राजनीतिक तौर पर लालू प्रसाद के लिए अभी खुशी में मगन रहने जैसा माहौल था. कुछ माह पहले महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह की जीत के रूप में लगातार हताशा-निराशा के गर्त में जाने के बाद उन्हें और उनकी पार्टी को ऑक्सीजन जैसा कुछ मिला था. इस जीत के बाद हुए कुछ सर्वेक्षणों में उन्हें बढ़त मिलने की उम्मीद भी जतायी जा रही थी. एक के बाद एक आ रही सुखद खबरों से लालू को नई ऊर्जा मिल रही थी. और वे इस ऊर्जा से लबलबाए हुए मीडिया के सामने बोलने-बतियाने भी लगे थे. बिहार में लगातार घट रही घटनाएं और नीतीश कुमार द्वारा समय पर सही कदम न उठा सकने से राज्य में बनता माहौल, उपजता आक्रोश भी उनके लिए एक राजनीतिक उम्मीद सरीखा ही था.
लेकिन 13 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने लालू प्रसाद को एक बार फिर निराशा-हताशा में ढकेल दिया है. चारा घोटाले की सुनवाई आखिरी दौर में है और लालू प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट में यह अर्जी लगा रखी थी कि सीबीआई के विशेष न्यायाधीश को हटाया जाए, वे बिहार के शिक्षा मंत्री पीके शाही के रिश्तेदार हैं, इसलिए फैसला आग्रहों-पूर्वाग्रहों से भरा हो सकता है. उच्चतम न्यायालय ने उनकी सिर्फ अर्जी ही खारिज नहीं की बल्कि अगले माह तक फैसले सुनाने का संकेत भी दे दिया. लालू प्रसाद और उनके समर्थक परेशान हैं.
अदालती और कानूनी पेंच में मामले को फंसाये जाने की कोशिशें जारी है विशेषज्ञ कह रहे हैं कि लालू प्रसाद को जेल हो सकती है. लालू प्रसाद और उनके समर्थकों को जेल जाने से डर नहीं, क्योंकि उससे तो एक माहौल ही बनेगा कि देश में कितने बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं, होते रहे हैं, उसमें दोषियों का कुछ नहीं हो रहा लेकिन लालू प्रसाद को फंसाकर भेजा गया है. डर अब दूसरा है. एक बार सजा सुनायी गयी और लालू प्रसाद जेल गये तो फिर चुनाव लड़ने के अधिकारी नहीं रहेंगे. लालू प्रसाद यादव की मुश्किल यह है कि वो बाल ठाकरे की तरह अपने संगठन को नहीं चलाते कि चुनाव लड़े या नहीं लड़े, उनके राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता. लालू प्रसाद को खुद चुनाव नहीं लड़ने की स्थिति में किसी को सामने करना होगा. दूसरे किसी नेता पर उनका भरोसा नहीं रहता, यह बिहार में बार-बार वे दिखा चुके हैं.
अपनी पत्नी, अपने दोनों सालों के बाद कुछ माह पहले अपने दोनों बेटों को राजनीति में उतारकर वे बताते रहे हैं कि वो पार्टी को घरेलू तरीके से चलाने में ज्यादा भरोसा रखते हैं. तेजप्रताप और तेजस्वी भले राजनीति में आ चुके हैं लेकिन इनके नेतृत्व में राजद के कई नेता चुनाव लड़ने को तैयार नहीं होंगे, ऐसी प्रबल संभावना है. लालू की बेटी मीसा भारती भी आगामी लोकसभा चुनाव में दस्तक देनेवाली है लेकिन अब तक लालू प्रसाद ने मीसा को राजनीति में उताड़ने की घोषना नहीं की है, इसलिए यह थोड़ा मुश्किल होगा कि कि बेटी को राजनीति में लाने की घोषणा करने के तुरंत बाद उसे पार्टी का नेतृत्व भी सौंप दें, रामकृपाल यादव, जयप्रकाश यादव जैसे लालू के खास सिपहसलार तो किसी भी नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगे लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह, जगतानंद सिंह, राजद कोटे से नए-नए सांसद बने प्रभुनाथ सिंह जैसे नेता इसके लिए तैयार नहीं होंगे. लालू प्रसाद जानते हैं कि अगर वे अपने परिवार के ही सदस्य को अपनी जगह आगे नहीं लाएंगे तो उनका जो कोर वोट बैंक यादवों का है, दरक भी सकता है.
आखिरी में एक विकल्प राबड़ी देवी बचेंगी. राबड़ी देवी पिछले विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर परास्त हो चुकी हैं. सामने विधानसभा चुनाव का मामला होता तो राबड़ी को फिर भी आगे कर लालू प्रसाद यादव सब मैनेज कर सकते थे लेकिन सामने लोकसभा चुनाव है. और लोकसभा में राबड़ी देवी को नेतृत्व सौंपकर लालू कोई चांस नहीं लेना चाहेंगे. सूचनाएं दूसरे किस्म की बहुत दिनों से हवा में फैली हुई हैं. वे सूचनाएं पहले से ही रह-रहकर लालू प्रसाद यादव को परेशान करते रहती हैं. कहा जाता है कि लालू प्रसाद यादव के दल से कुछ वरिष्ठ नेता लोकसभा चुनाव आते-आते नीतीश के पाले में जा सकते हैं. लालू प्रसाद का साथ छोड़कर नीतीश के खेमे में जानेवाले नेताओं की फेहरिश्त काफी लंबी रही है, इसलिए इसे कोई अनहोनी भी नहीं माना जा सकता. लालू प्रसाद दुविधा में हैं. 13 अगस्त के फैसले से पटना के राजद कार्यालय में दूसरे किस्म का माहौल बना दिया है. बिहार सरकार की नाकामी पर राजनीति करने की तैयारी में लगी राष्ट्रीय जनतादल पार्टी का खुद का क्या भविष्य होगा? निश्चिततौर पर आज यह सवाल लालू प्रसाद यादव को परेशान कर रहा होगा.