सरकार ने इंटरऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (आईसीजेएस) भी लॉन्च किया है, जिसके ज़रिये अदालतों, पुलिस, अभियोजन, जेलों और फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं के बीच डाटा के आदान-प्रदान की प्रक्रिया त्वरित हो सकेगी और जल्द न्याय का रास्ता खुलेगा। यौन उत्पीडऩ के मामलों में पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने के दो महीने के भीतर पुलिस जाँच पूरी करने के लिए सरकार ने इंवेस्टिगेटिंग ट्रैकिंग सिस्टम फॉर सेक्सुअल ऑफेंसेज (आईटीएसएसओ) पोर्टल के माध्यम से सीसीटीएनएस डाटा का उपयोग करते हुए जाँच पर नज़र रखी जा सकेगी। आईटीएसएसओ कानून से जुड़ी प्रवर्तन एजेंसियों के लिए उपलब्ध है और इसमें लम्बित मामलों का विवरण रहता है। इसके साथ ही सरकार ने कानून से जुड़ी एजेंसियों के लिए यौन अपराधियों का भी एक राष्ट्रीय स्तर का डाटा बेस तैयार किया है। एनडीएसओ ऐसे यौन अपराधियों पर नज़र रखती है, जो बारम्बार अपराध करते हैं; साथ ही इनसे बचाव की पहल भी शुरू की गयी है। एक साइबर क्राइम पोर्टल भी काम कर रहा है।
भारतीय संविधान के अनुसार, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर राज्य के विषय हैं। इसमें पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए राज्यों की मदद की योजना के तहत सम्बन्धित राज्यों की पुलिस फोर्स को अधुनिक उपकरणों से लैस करने की ज़रूरत है, ताकि उनको अपराधियों से निपटने में आसानी हो सके। राज्यों की पुलिस के आधुनिकीकरण की योजना के तहत राज्यों को केंद्र से सहयोग मिलता है, जिसके तहत गैजेट का प्रशिक्षण प्रदान करना, उन्नत संचार, पुलिस भवन, आवास फॉरेंसिक उपकरण शामिल हैं। इसमें राज्य सरकारों के पास प्राथमिकताओं और ज़रूरतों के आधार पर चुनाव करने का भी विकल्प है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के लिए कॉमन कॉज और लोकनीति प्रोग्राम की तैयार ‘भारत में पुलिस बल की स्थिति रिपोर्ट-2019’ में स्थितियों में नीति निर्धारण का ज़िक्र किया है कि किस तरह से भारतीय पुलिस काम करती है। इसमें पुलिसकर्मियों की संवेदनशीलता और सेवा शर्तों के साथ ही संसाधनों का भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है। इसके साथ ही इस रिपोर्ट में पुलिस तंत्र के बुनियादी ढाँचे, आम लोगों से सम्पर्क व उनके नियमित कार्य और राज्य की पुलिस के कामकाज की स्थिति की जानकारी प्रदान की गयी है।
अपर्याप्त क्षमता
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) के आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में पुलिस अपनी स्वीकृत क्षमता के 77 फीसदी या अपनी ज़रूरी क्षमता के महज़ तीन-चौथाई हिस्से पर काम कर रही है। कांस्टेबल स्तर से लेकर सीनियर रैंक तक के अधिकारियों के लिए रिक्तियाँ की जानी हैं। यह तथ्य है कि केवल दो राज्यों पश्चिम बंगाल और बिहार से इतर पद्मनाभ समिति की सिफारिश के अनुसार, हर चार कांस्टेबल पर प्रति वरिष्ठ अधिकारी का अनुपात है। बाकी सभी राज्यों में हर अफसर की तुलना में कांस्टेबल की संख्या कहीं ज़्यादा है। पिछले पाँच वर्षों में औसतन केवल 6.4 फीसदी पुलिस बल को इन-सर्विस प्रशिक्षण प्रदान किया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को कांस्टेबल स्तर के कर्मियों की तुलना में इन-सर्विस प्रशिक्षण कहीं ज़्यादा प्रदान किये गये। 22 राज्यों के 70 पुलिस स्टेशनों में वायरलेस डिवाइस तक नहीं हैं, 214 पुलिस स्टेशनों में टेलीफोन की सुविधा नहीं है और 24 पुलिस स्टेशनों में न तो वायरलेस और न ही टेलीफोन की पहुँच है। भारत में पुलिस स्टेशनों में औसतन प्रति थाने में छ: कम्प्यूटर होते हैं, लेकिन असम और बिहार जैसे राज्यों में औसतन हरथाने से एक से कम कम्प्यूटर है।
22 राज्यों के करीब 240 पुलिस स्टेशनों में वाहनों की पहुँच नहीं है। आरक्षित पदों पर भारी रिक्तियों के साथ पुलिस में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व न के बराबर है। यूपी और हरियाणा में एससी के आरक्षित पदों के लिए क्रमश: 60 और 53 फीसदी पद रिक्त पड़े हैं। ये रिक्तिया राज्य के कुल पदों की तुलना में काफी अधिक हैं। रिपोर्ट बताती है कि एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को सामान्य पुलिसकर्मियों की तुलना में अधिकारी स्तर की भर्ती / तैनात किये जाने की सम्भावनाएँ भी बेहद कम हैं। हालाँकि, दो साल से कम समय में एसएसपी और डीआईजी स्तर के अधिकारी का स्थानांतरण 2007 से काफी कम हो गया है। 2016 तक अखिल भारतीय स्तर के 12 फीसदी अफसरों का तबादला दो साल से भी कम समय में कर दिया गया। हरियाणा और यूपी में दो साल से कम समय में तबादले सबसे ज़्यादा देखे गये। चुनावी राज्यों में समय से पहले स्थानांतरण के मामले सबसे अधिक देखने को मिलते हैं।
14 घंटे तक की ड्यूटी
रिपोर्ट बताती है कि पुलिसकर्मी औसतन 14 घंटे काम करते हैं, जिसमें लगभग 80 फीसदी पुलिसकर्मी 8 घंटे से अधिक काम करते हैं। नागालैंड को छोडक़र सर्वे किये गये 21 राज्यों में पुलिसकर्मियों के काम करने के औसत घंटे 11 से 18 के बीच हैं। लगभग हर दो में से एक पुलिसकर्मी नियमित रूप से ओवरटाइम काम करता है, जबकि 10 में आठ पुलिसकर्मियों को ओवरटाइम का कोई भुगतान नहीं किया जाता है। तकरीबन पाँच में से तीन के परिवार वाले सरकार द्वारा उपलब्ध कराये आवास से संतुष्ट नज़र नहीं आये। आधे पुलिसकर्मियों को कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता है। चार में से तीन कर्मियों का मानना है कि उनके काम के बोझ के चलते उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हर चार में से एक पुलिसकर्मी ने बताया कि उनका सीनियर अफसर अपने जूनियर से अपने घर / व्यक्तिगत काम करवाता है; जबकि यह उनका काम नहीं होता है। एससी, एसटी और ओबीसी कर्मियों को अन्य जाति समूहों की तुलना में इस तरह का काम करवाने के मामले अधिक पाये गये हैं। हर पाँच में से दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पुलिस वालों से बदतमीजी से बात करते हैं। 37 फीसदी पुलिसकर्मी नौकरी मिलने पर किसी और पेशे में जाने को तैयार हैं, भले ही इसके लिए उन्हें इतना ही वेतन और भत्ता मिले।
संसाधनों की कमी
12 फीसदी कर्मियों ने बताया कि उनके पुलिस थानों में पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं है। 18 फीसदी ने कहा कि साफ शौचालय नहीं है और 14 फीसदी ने माना कि लोगों के लिए बैठने की जगह नहीं है। करीब 46 फीसदी कर्मचारियों के लिए ऐसी परिसिथतियाँ आती हैं कि उन्हें सरकारी वाहन की आवश्यकता होती है, लेकिन ये उपलब्ध नहीं होते हैं। इसके अलावा 41 फीसदी पुलिसकर्मी अक्सर ऐसी स्थितियों में रहते हैं, जहाँ वे कर्मचारियों की कमी के चलते समय पर अपराध या घटना वाली जगह पर नहीं पहुँच पाते हैं। डिजिटल और तकनीकी की उपलब्धता का विस्तार अभी न कि बराबर हुआ है। आठ फीसदी कर्मियों ने कहा कि कम्प्यूटर पर काम करने की उपलब्धता कभी नहीं होती है। 17 फीसदी ने कहा कि सीसीटीएनएस सुविधा सुविधा नहीं है। 42 फीसदी बोले कि थानों में फोरेंसिक तकनीक की सुविधा है ही नहीं। पश्चिम बंगाल के 31 फीसदी और असम के 28 फीसदी पुलिसकर्मियों ने कहा कि काम करने योज्य एक भी कम्प्यूटर उनके पुलिस स्टेशन / कार्य स्थल पर नहीं मिला। इन तमाम तथ्यों के बावजूद एनसीआरबी के जारी आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, सीसीटीएनएस के अनुपालन के मामले में असम सबसे आगे है। रिपोर्ट बताती है कि तीन में से एक पुलिसकर्मी को कभी भी फोरेंसिक तकनीक का प्रशिक्षण नहीं मिला।
साइबर क्राइम, मनी लॉन्ड्रिंग, आतंकवाद और उग्रवाद के नये तरीके के खतरे उभर रहे हैं, जिनसे निपटना खुफिया एजेंसियों और पुलिसिंग के लिए नयी चुनौतियाँ हैं। दुनियाभर में पुलिस के लिए प्रशिक्षण और दक्षता के नए स्तरों का प्रयोग किया जा रहा है, इनमें रीयल टाइम डाटा, मानवीय पर प्रभावी तरीके से पूछताछ की तकनीक और निगरानी के लिए पारदर्शी उपकरण शामिल हैं।
साइबर क्राइम जैसे-फिशिंग (मसलन, जंक ई-मेल के ज़रिये फँसाना), जानकारी चुराना, ऑनलाइन बैंकिंग धोखाधड़ी से पुलिस को निपटने के लिए आधुनिक तकनीक के साथ खुद को अपडेट रखना मजबूर है। इसके लिए पुलिसिंग को आधुनिक और डिजिटल बनाये जाने की तत्काल आवश्यकता है। डिजिटल इंडिया जैसे अभियान तब तक खोखले होंगे, जब तक पुलिस तक कम्प्यूटर व ज़रूरी सॉफ्टवेयर के साथ-साथ कुशल और प्रशिक्षित कर्मचारी न हों।
काम का दबाव
निष्पक्ष प्रतिनिधित्व और विविधता बरतने से इतर पुलिस में महिलाओं का एकीकरण, पुलिस संरचना पर सकारात्मक सुधार है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि पुलिस में बढ़ता महिलाओं का प्रतिनिधित्व सीधे तौर पर औरतों के िखलाफ हिंसक अपराधों की रिपोॄटग और घरेलू हिंसा में कमी का सबब बन रहा है। इसका असर प्रभावित क्षेत्र व अपराध के स्तर और कर्मचारियों की मौज़ूदगी के हिसाब से अलग-अलग हो सकता है। पड़ताल में कर्मियों के अनुभव और उनकी अड़चनों के बारे में जानना चाहा जैसे कि बाहरी दबाव या राजनेताओं, मीडिया, जनता आदि का हस्तक्षेप। इसके अलावा ऐसे तमाम तरह के दबावों के बावजूद नियमों का पालन करते हुए सामान्य परिणाम हासिल करना। 36 फीसदी पुलिसकर्मियों के अनुसार, पिछले दो-तीन वर्षों में अपराध में वृद्धि दर्ज की गयी। इसके पीछे बड़ा कारण बेरोज़गारी और शिक्षा की कमी जैसे सामाजिक कारण माने गये हैं। जो लोग सोचते हैं कि अपराध के मामले कम हुए हैं, तो वे इसका श्रेय बेहतर पुलिसिंग (पुलिस अधिक सक्रिय, सख्त इत्यादि) बनाने की सम्भावनाओं को कम कर रहे हैं। 28 फीसदी पुलिसकर्मियों का मानना है कि राजनेताओं का दबाव अपराधियों की जाँच करने में सबसे बड़ी बाधा तीन में से एक पुलिसकर्मी ने माना कि आपराधिक जाँच के दौरान उन्होंने कई बार राजनीतिक दबाव का अनुभव किया। 38 फीसदी पुलिसकर्मियों ने रिपोर्ट के लिए बताया कि प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े अपराध के मामलों में हमेशा राजनेताओं का दबाव रहता है। पाँच में से तीन कर्मियों ने ऐसे बाहरी दबावों का अनुपालन नहीं करने के चलते तबादला किये जाने से परिणाम भुगते।
पुलिस बल में महिलाएँ
इस अध्याय में लिंग के आधार पर पुलिसिंग को देखा गया। हम एक तरफ पुलिस बल के भीतर महिलाओं के अनुभवों को परखते हैं, साथ ही महिलाओं को लेकर पुलिसकर्मियों की सोच और काम के तौर तरीकों को परखते हैं। दूसरी ओर, हम महिलाओं और लिंग आधारित हिंसा के िखलाफ अपराधों की शिकायतों के बारे में कर्मियों की धारणाओं को देखते हैं। महिला पुलिसकर्मियों को घर के कार्यों में लिप्त होने की सम्भावना के चलते जैसे रजिस्टरों, डेटा आदि को बनाये रखने की होती है, जबकि पुरुष कर्मियों के क्षेत्र-आधारित कार्यों में शामिल होने की अधिक ज़्यादा सम्भावना रहती है, जैसे कि जाँच, गश्त, कानून-व्यवस्था का पालन आदि।
पाँच में से एक महिलाकर्मी ने अपने पुलिस स्टेशन / कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए अलग शौचालय न होने की जानकारी प्रदान की। चार पुलिसकर्मियों में से एक ने माना कि उनके पुलिस स्टेशन / अधिकार क्षेत्र में कोई यौन उत्पीडऩ समिति नहीं बनायी गयी थी। आधे से अधिक कर्मियों (पुरुषों और महिलाओं दोनों) को लगता है कि पुलिस बल में पुरुषों और महिलाओं को पूरी तरह से समान व्यवहार नहीं किया जाता। उच्च रैंक पर पुलिसकर्मी भेदभाव की रिपोर्ट करने की अधिक सम्भावना रहती हैं। बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पुलिस बल में महिलाओं के िखलाफ पूर्वाग्रह का स्तर सबसे अधिक है। इन राज्यों के कर्मियों को सबसे ज़्यादा लगता है कि महिला पुलिसकर्मी कम मेहनती, कम कुशल होती हैं और उनको अपने घरेलू कामों पर ध्याना देना चाहिए। पाँच में से लगभग एक पुलिसकर्मी की राय ये है कि लिंग भेदभाव या इससे जुड़ी हिंसा की शिकायतें झूठी हैं और किसी को फँसाने के लिए की जाती हैं। आठ फीसदी पुलिसकर्मियों की राय है कि ट्रांसजेंडर स्वाभाविक रूप से बहुत कम ही अपराध में शामिल होते हैं।
यौन उत्पीडऩ के मामले देखने के लिए नहीं है कोई कमेटी
2013 के कार्यस्थल अधिनियम में महिलाओं का यौन उत्पीडऩ के मामले में सभी कार्यस्थलों के लिए एक समिति का गठन करना अनिवार्य बना दिया गया है। किसी भी कार्यस्थल पर महिला कर्मचारियों द्वारा यौन उत्पीडऩ की शिकायतों के लिए यह समिति विचार करेगी। सर्वेक्षण में सामने आया कि पुलिस महिलाओं में से लगभग एक-चौथाई (24 फीसदी) ने अपने कार्यस्थल या अधिकार क्षेत्र में इस तरह की समिति की न होने की सूचना दी। इस मामले में पूरे देश में स्थिति निराशाजनक है। सर्वेक्षण किये गये राज्यों में से 13 में यानी तीन-चौथाई से भी कम में महिला पुलिसकर्मियों ने ऐसी किसी समिति के होने के बारे में जानकारी दी। बिहार की स्थिति सबसे ज़्यादा खराब थी, जहाँ पर 76 फीसदी महिला पुलिसकर्मियों ने ऐसे किसी समिति न होने की बात कही। दिल्ली, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा की स्थिति इस मामले में थोड़ी बेहतर है, जहाँ 79 फीसदी या इससे अधिक महिला पुलिसकर्मियों ने माना कि उनके यहाँ ऐसी समिति है। तकरीबन हर पाँच में से दो महिला पुलिसकर्मियों (37 फीसदी) ने कहा कि वे पुलिस बल छोडऩे और किसी अन्य नौकरी के लिए जाने की इच्छुक हैं, भले ही उनको वेतन और भत्ते उतने ही क्यों न मिलें, जितने इसमें मिल रहे हैं। इससे उनके पेशे को लेकर असंतोष को समझा जा सकता है। यूपी में 63 फीसदी महिला पुलिसकर्मी कोई दूसरी नौकरी मिलने पर अपनी जॉब छोडऩे को तैयार हैं, जो उन्हें समान वेतन और भत्तों के साथ प्रदान करती है। मामले में उत्तर प्रदेश टॉप पर है, इसके बाद उत्तराखंड (54 फीसदी) और हिमाचल प्रदेश (52 फीसदी) का नम्बर आता है। गुजरात, छत्तीसगढ़ और केरल में भी असंतोष का स्तर काफी ज़्यादा था, जहाँ पर महिला पुलिसकर्मी अपनी नौकरी छोडऩे के लिए तैयार थीं। इससे ऐसा लगता है कि पुलिस विभाग में महिला कर्मियों के लिए उचित माहौल नहीं बन सका है। महिला और ट्रांसजेंडर के मामले में अभी पुलिस बल में समानता के लिए लम्बा सफर तय करना होगा।
महिला पुलिसकर्मियों में पहली दफा गर्भाधान बेहद कम देखने को मिला। यहाँ तक कि महिलाओं के काम के प्रोफाइल जो मौज़ूदा पुलिस बल का हिस्सा हैं, उनको कमज़ोर माना जाता है। लिंग समानता के बीच के अंतराल को पाटकर पुलिस की दक्षता को बेहतर किया जा सकेगा। लिंग-समावेशी पुलिस बल होने से कानून व सम्बन्धित एजेंसियों और लोगों के बीच भरोसा बढ़ सकता है। इससे पुलिस और आम लोगों के बीच काम करना भी आसान होगा। अगर थानों में पर्याप्त महिलाएँ होंगी, तो महिलाओं का उन तक पहुँचना भी आसान हो जाएगा, लेकिन इसमें अभी लम्बा समय लग सकता है।