तीन कृषि क़ानूनों का जिस हद तक विरोध होने लगा है, उसकी कल्पना किसानों ने भले ही न की हो; लेकिन केंद्र सरकार ने बिल्कुल भी नहीं की होगी। क़रीब एक साल और दिल्ली की सीमाओं पर 10 माह के बाद आन्दोलन बदस्तूर जारी है और वह भी ज़बरदस्त तरीक़े से। आन्दोलन कब तक चलेगा और इसका पटाक्षेप कैसे होगा? यह कोई नहीं जानता।
अब आन्दोलन मुद्दों के साथ-साथ सरकार की हठधर्मिता पर किसानों की अडिगता और अस्मिता का बन गया है। किसान क़ानूनों को रद्द करने और सरकार इन्हें संशोधन सहित लागू करने पर अड़े हैं। बातचीत के दरवाज़े कमोबेश बन्द हो चुके हैं। कहने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके लिए एक फोन कॉल की दूरी बता चुके हैं। आज महीनों हो गये वह फोन कॉल सरकार ने नहीं की,तो फिर बर्फ़ की मोटी परत कैसे पिघलेगी?
हालाँकि संयुक्त मोर्चा ने यह तक कहा कि अगर सरकार बातचीत करना चाहे, तो किसान तैयार हैं। केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानूनों का सबसे पहले बड़ा विरोध इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने का था। आन्दोलन के शुरू में अगर केंद्र किसान संगठनों को भरोसे में लेकर बातचीत करती, तो आज यह नौबत नहीं आती। किसान संगठनों की नज़र में तीन कृषि क़ानून काले हैं और इनके लागू होने से कृषि क्षेत्र उनसे निकलकर बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथ में चला जाएगा और भविष्य में इसका ख़ामियाज़ा पूरे देश को उठाना पड़ेगा। सरकार मौखिक रूप से इसे नकार रही है, लेकिन इस पर बहस नहीं करना चाहती। वह ऐसा करने से क्यों बच रही है और क्यों जबरन क़ानूनों को लागू करना चाहती है? यह वही जाने।
सरकार ने इन क़ानूनों को किसान हितैषी बताकर इनकी प्रासंगिकता और भविष्य में इससे होने वाले फ़ायदों का मौखिक बयान करके ख़ूब कोशिश की कि किसान उसकी बात मान जाएँ, पर किसानों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
विगत में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के आन्दोलन विशुद्ध रूप से ग़ैर-राजनीतिक रहे हैं और लगभग सभी कमोबेश सफल रहे, तो उसका श्रेय किसानों की एकता और नेतृत्व को रहा। ये दोनों चीज़ें भी इस आन्दोलन में हैं। फिर क्या कारण है कि आन्दोलन इतना लम्बा खिंच गया और सरकार ने उनकी सुध भी नहीं ली? इसकी एक वजह सरकार की उद्योगपतियों के प्रति हित वाली सोच और किसानों की अनदेखी तो है ही; साथ ही अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग समस्याएँ भी हैं।
संयुक्त किसान मोर्चा में 40 से ज़्यादा किसान-मजदूर संगठन हैं। सभी की अपनी-अपनी सोच और हित हैं। कहने को संयुक्त किसान मोर्चा ही आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा है, कोई व्यक्ति विशेष नहीं; लेकिन क्या यह हक़ीक़त है कि कोई केवल किसानों के हित के लिए आन्दोलन से जुड़ा है? ऐसे में भविष्य में यह भी हो सकता है कि सरकार जिन राज्यों में चुनाव हों, वहाँ के किसानों को साधकर आन्दोलन को कमज़ोर कर दे।
दिल्ली सीमा पर भाकियू प्रवक्ता राकेश टिकैत की आँखों से छलके आँसुओं ने किसान आन्दोलन को जैसे नयी दिशा दे दी। टूट रहा आन्दोलन फिर से मज़बूत हुआ और टिकैत जैसे एकछत्र किसान नेता के रूप में उभरे, जो अब तक चले आ रहे हैं। आन्दोलन भाकियू के झण्डे तले हो रहा है, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत के बड़े बेटे नरेश टिकैत हैं। उनकी सोच और विचार काफ़ी कुछ अपने पिता से मिलते हैं। वह बातचीत से सम्मानजनक समझौता करने के पक्षधर रहे हैं और अब भी उनकी सोच वही है; लेकिन वह कभी-कभार ही सरकार को चुनौती देते दिखे हैं।
लम्बा खिंचता आन्दोलन देश में अस्थिरता पैदा कर सकता है। इसके उदाहरण हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश हैं, जहाँ अस्थिरता जैसा माहौल बन चुका है। इसके लिए किसानों से ज़्यादा ज़िम्मेदार सरकार है, जो बिना चर्चा के उस समय इन क़ानूनों को लायी, जब पूरे देश के लोग घरों में बन्द थे। और जब आन्दोलन हुआ, तो हरियाणा सरकार ने किसानों पर हमले कराये, लाठियाँ पड़वायीं, सडक़ें खुदवायीं, दुश्मन देश की सीमाओं की तरह बैरिकेड लगवाये और पानी की बोछारें करवाने के साथ-साथ आँसू गैस के गोले उन पर फिकवाये। केंद्र सरकार ने भी तो यही सब किया। हरियाणा में तो एसडीएम के आदेश पर पुलिस लाठीचार्ज में एक किसान की मौत भी हो गयी। अब जब किसान सरकार के पीछे पड़े हैं, तो मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री सरकारी कार्यक्रमों में या निजी कार्यों से खुलकर बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। जिस तरह हरियाणा में किसानों पर अत्याचार हुए, वैसे कहीं और नहीं हुए। वहाँ के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर कई तरह की चेतावनियाँ किसानों को दे चुके; लेकिन उनके शासन हुए व्यवहार से किसान इतने ग़ुस्से में हैं कि कई जनप्रतिनिधियों का वे घेराव कर चुके हैं, जो माफ़ी माँगकर या फ़ज़ीहत कराकर ही पीछा छुड़ा सके हैं।
हिसार और करनाल में पुलिस लाठीचार्ज के बाद आन्दोलनकारियों ने सरकार पर दबाव बनाकर कुछ माँगें मनवा लीं। लेकिन हरियाणा सरकार ने आरोपी एसडीएम और पुलिस के ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठाया। कब, कहाँ, किसके बयान पर या पुलिस कार्रवाई पर थानों या सचिवालय का घेराव हो जाए? कुछ पता नहीं है।
आन्दोलन से पंजाब भी कम प्रभावित नहीं है। लेकिन वहाँ के हालात हरियाणा के कुछ बेहतर हैं। इसकी एक वजह वहाँ कांग्रेस सरकार का होना है, जो किसानों के प्रति काफ़ी नरम रही है और कृषि क़ानूनों को ग़लत बताती रही है। वहाँ भी नेताओं को डर है; लेकिन किसान मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायकों और नेताओं का हरियाणा के किसानों की तरह पीछा नहीं करते। कांग्रेस ने पहले दिन से ही आन्दोलन को समर्थन दे रखा है, इसलिए भी वहाँ के किसान उस पर हमलावर नहीं रहे। राज्य में नये मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने तो शपथ लेते ही सबसे पहले किसान आन्दोलन को पूरा समर्थन देने की घोषणा करने में देरी नहीं की।
उनसे पहले निवर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का भी कमोबेश यही रूख़ था। उन्होंने किसी तरह किसान संगठनों से तालमेल बनाये रखा और राज्य में अस्थिरता पैदा नहीं होने दी। लेकिन वहाँ भी असली परीक्षा तो 2022 में विधानसभा चुनावों के दौरान ही होगी। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पार्टियों, ख़ासकर भाजपा के लिए यह परीक्षा और भी बेचैन करने वाली तथा ख़ास होगी। संयुक्त मोर्चा के पंजाब से जुड़े कुछ किसान-मज़दूर संगठनों को राजनीति में आने से ज़्यादा परहेज़ नहीं है। हरियाणा भाकियू अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी तो बाक़ायदा लुधियाना में कारोबारियों की गठित एक पार्टी में शिरकत कर चुके हैं। जीत के बाद चढ़ूनी को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान भी हो चुका है।
चढ़ूनी तो किसानों को राजनीति के मैदान में उतरने का आमंत्रण दे रहे हैं, ऐसा होने की प्रबल सम्भावना भी है। लेकिन कुल मिलाकर भाजपा का विरोध तय है। पश्चिम बंगाल में भाजपा का विरोध इसका ताज़ा उदाहरण है। इसी के चलते भाजपा में बेचैनी तब और बढ़ी है, जब मुज़फ़्फरनगर में किसान महापंचायत हुई, जिसमें लाखों किसान आकर जुटे और उन्होंने केंद्र सरकार समेत हर राज्य की भाजपा सरकार को चुनौती दे डाली।
पंजाब में आन्दोलनकारी किस पार्टी को समर्थन देंगे? सत्तासीन कांग्रेस को? प्रमुख विपक्षी दल आम आदमी पार्टी (आप) को? या शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को? अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ये सभी पार्टियाँ किसान आन्दोलन की समर्थक हैं। अगर किसान संगठनों की ओर से कोई पार्टी वजूद में आती है, तो फिर तो स्थिति स्पष्ट ही है, अन्यथा हर पार्टी समर्थन हासिल करने के लिए पूरा ज़ोर लगा देगी। किसानों का समर्थन हासिल करने के लिए कसौटी क्या रहेगी? कौन इसे तय करेगा? और क्या उसको पूरी तरह माना भी जाएगा? यह भी अभी से नहीं कहा जा सकता। पंजाब से पहले उत्तर प्रदेश मिशन तो बाक़ायदा शुरू हो गया है। विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सरगर्मियाँ बढऩे लगी हैं। किसान आन्दोलन दो ही मुद्दों पर टिका है- एक तीनों कृषि क़ानून रद्द हों और दूसरा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सरकार क़ानूनी जामा पहनाये।
केंद्र सरकार एमएसपी पर मौखिक आश्वासन तो दे रही में है; लेकिन उसे क़ानूनी का रूप देने या फिर लिखित में करने को तैयार नहीं है। किसान संगठन तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी सरकार से चाहते हैं। उनकी राय में ऐसा होने की स्थिति में ही वे आन्दोलन को समाप्त कर सकते हैं। इसके पहले घर वापसी की कोई सम्भावना नहीं है। वहीं सरकार कृषि क़ानूनों को संशोधन सहित बहाल रखने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के मौखिक वादे समेत अन्य मुद्दों को सुलझाने की मंशा रखती है।
अगर अपनी हठ छोडक़र केंद्र सरकार किसानों से बातचीत की राह अब भी निकाले और उन्हें सुने तथा नये कृषि क़ानूनों पर बिन्दुवार बात करे, तो सम्भव है कि किसानों द्वारा क़ानूनों में निकाली जा रही कमियों और अमान्य शर्तों की सच्चाई सामने आये और समाधान निकल सके। इससे सरकार और किसानों की नीयत, दोष, एक-दूसरे पर दोषारोपण की परतें भी खुलेंगी और देश के सामने एक साफ़ तस्वीर उजागर होगी। लेकिन किसानों की कृषि क़ानूनों पर चुनौतियों के बावजूद सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया और न ही क़रीब एक दर्ज़न की विफल बातचीत के बाद दोबारा बातचीत की कोई पहल ही की है। किसान नेता सरकार की उपेक्षा से बहुत नाराज़ हैं। उन्हें लगता है कि इतने बड़े और लम्बे आन्दोलन का भी उस पर कोई असर नहीं है। ऐसा जान-बूझकर किया जा रहा है, ताकि धीरे-धीरे आन्दोलन दम तोड़ जाए; लेकिन हो इसके विपरीत रहा है। आन्दोलन भले ही बीच में कमज़ोर और दिशाहीन लगा हो, लेकिन दोबारा से जब पूरे उफान पर आया, तो केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारों के कान खड़े हो गये और उन्हें एक डर भी सताने लगा।
मुज़फ़्फरनगर महापंचायत के बाद भारत बन्द के ऐलान ने भाजपा और उसके केंद्रीय नेतृत्व समेत भाजपा शासित राज्यों के नेतृत्व की नींद उडऩे लगी है। क़रीब एक साल में भी कठिन परिस्थितियों, सरकार की नाफ़रमानी और ज़्यादतियों के बाद भी उनके हौंसले पस्त नहीं हुए। इसे सरकार भी अच्छी तरह जानती है। आन्दोलन को नाकाम करने के लिए सरकार के साम, दाम, दण्ड, भेद सब नाकाम हो चुके हैं। ऐसे में बातचीत ही सुगम रास्ता है। इसकी पहल किसान संगठनों को नहीं, बल्कि सरकार को करनी चाहिए। मौजूदा स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन हैरानी की बात उन्होंने अब तक कोई पहल नहीं की। यह सही फ़ैसला नहीं कहा जा सकता।