मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव को कितना करेगी प्रभावित?
साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील मुज़फ़्फ़रनगर हमेशा हाशिये पर रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले मुज़फ़्फ़रनगर की किसान महापंचायत ने इसे सारे पुराने हिसाब पूरे करने का अवसर दे दिया है। किसानों की इस महापंचायत में ‘वोट से चोट’ का नारा राजनीतिक गलियारों में गूँजने लगा है। भाजपा भले इसे किसान आन्दोलन का राजनीतिकरण बताये, सच यह है कि वोट से चोट का किसानों का नारा यदि आम आदमी का नारा बन गया, तो सत्तारूढ़ भाजपा को लेने-के-देने भी पड़ सकते हैं।
उत्तर प्रदेश के किसानों की योगी सरकार से भी नाराज़गी कुछ कम नहीं है। हाल के वर्षों में योगी की मुश्किलें भी बढ़ी हैं। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के बड़े नेताओं, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी, दोनों शामिल थे; ने जो वादे राज्य के किसानों से किये थे, उनमें ज़्यादातर अधूरे ही रह गये हैं और चुनाव फिर आ चुके।
किसान बातचीत में अपने इस दर्द को छिपा नहीं पाते। मुज़फ़्फ़रनगर के एक युवा किसान अब्बास काज़मी, जो ख़ासतौर पर महारैली में आये थे; ने अपनी कठिनाइयों को व्यक्त करते हुए सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार बताया। काज़मी ने कहा- ‘हर महीने डीजल और पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ जाती हैं। किसान खेती कैसे करेंगे? जब हमारे ट्रैक्टर और मशीनें घर पर रखने होंगे। आख़िर मशीनें और ट्रैक्टर ईंधन से ही चलते हैं। ग़रीब किसान कैसे यह कर सकेगा?’ अब्बास ने आगे कहा कि सरकार एमएसपी लागू नहीं कर रही है। बिहार में धान की क़ीमत 800 रुपये कुंतल है और धान की लागत लगभग 11,000 रुपये प्रति बीघा है। किसान क्या बचाएगा? 30 साल के इस किसान ने कहा- ‘सरकार ने 400 रुपये प्रति कुंतल गन्ना देने का वादा किया था, जो पिछले चार साल से 325 रुपये प्रति कुंतल है। हम इस सरकार को फिर से क्यों चुनेंगे?’
संयुक्त किसान मोर्चा की मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत में जिस तरह लाखों किसान एक साथ आये, उससे उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल है। महापंचायत में बड़े पैमाने पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दोआबा इलाक़े (गंगा और जमुना नदियों के बीच का क्षेत्र) के किसानों का ख़ासा वर्चस्व रहा था। महापंचायत का समय भी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यह फ़सल के मौसम से पहले हुआ है। उच्च मुद्रास्फीति और बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी से आमजन में अलग से गहन निराशा है। कई इलाक़ों को अभी भी कोरोना के प्रतिबंधों के प्रभाव से उबरना बाक़ी है।
उल्लेखनीय है कि राज्य में गन्ने की क़ीमतों में स्थिरता से गन्ना किसान परेशान हैं। किसान इस बात से नाराज़ हैं कि पिछले कुछ वर्षों में डीजल के साथ-साथ उर्वरक खादों, कीटनाशकों और बीजों की क़ीमतों में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है। बाज़ारों में खाद्यान्नों की क़ीमतें भी बढ़ी हैं; लेकिन किसानों को वही पुराना भाव मिलता है।
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि जाट किसान और मुसलमान फिर एक होते हैं, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने गढ़ों में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए एक गम्भीर राजनीतिक चुनौती पैदा हो जाएगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट एक निर्णायक कारक हैं और उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से कम-से-कम 120 सीटों पर उनका काफ़ी प्रभाव है। इसके अलावा प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी जाट और सिख किसान रहते हैं। इसके अतिरिक्त दलित समुदाय, विशेष रूप से जाटव और अन्य जातियों के मतदाता भी किसान आन्दोलन का बड़ा हिस्सा हैं। जाट, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के परिदृश्य पर हावी हैं; क्षेत्र में काफ़ी प्रभावशाली हैं। इस क्षेत्र की अधिकांश आबादी खेती से जुड़ी है। ऐतिहासिक रूप से गन्ना उत्पादक क्षेत्र का राजनीतिक दलों पर गहरा प्रभाव है। ऐसे में किसानों की मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत उत्तर प्रदेश में राजनीतिक समीकरण बदल सकती है। यह धरती वैसे भी किसान आन्दोलनों की उर्वर भूमि है। राकेश टिकैत के पिता किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद पूरे राज्य में 30 से अधिक यूनियनों का गठन किया गया था। इसके अलावा सन् 1978 में भारतीय लोक दल का गठन पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में हुआ था। सन् 1996 में महेंद्र सिंह टिकैत ने चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह के साथ गठबन्धन किया, जिन्होंने किसान कामगार पार्टी बनायी। उस साल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में गठबन्धन ने 14 सीटें जीती थीं। हालाँकि अगले साल महेंद्र सिंह टिकैट इस साझेदारी से अलग हो गये।
आज की तारीख़ में महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत और नरेश टिकैत किसान आन्दोलन का बड़ा चेहरा बन गये हैं। राकेश ने संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले राजनीतिक नारेबाज़ी करके निश्चित ही उत्तर प्रदेश की राजनीति का पारा चढ़ा दिया है। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद इस निर्वाचन क्षेत्र के दामन में दाग़ लग गया था। इसने रिश्तों में गहरी दरार भी पैदा कर दी थी। लेकिन हो सकता है कि यह साझा लक्ष्य इस खाई को पाट दे। अगर यह हुआ, तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में यह एक नयी चुनौती होगी।