कांग्रेस जब ठंडी पड़ी थी, तब भी उसकी चर्चा थी। अब उठने की कोशिश कर रही है, तो भी उसकी चर्चा है। लेकिन कांग्रेस में सोनिया गाँधी बनाम राहुल गाँधी के दौर के बाद अब राहुल गाँधी बनाम प्रियंका गाँधी की चर्चा है। कारण, उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी की सक्रियता ने कांग्रेस के भीतर और बाहर हलचल मचा दी है। क्या प्रियंका गाँधी की सफलता राहुल गाँधी की राजनीति को अँधेरे में ले जाएगी? या क्या वह राहुल पर भारी पड़ेंगी? ऐसी ही सम्भावनाओं और सवालों पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी का यह विश्लेषण :-
पिछले सात साल में समर्थन की बड़ी ज़मीन और संगठन के स्तर पर बहुत कुछ खोने वाली कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की क़वायद क्या फलीभूत हो पाएगी? उत्तर प्रदेश में महिलाओं को 40 फ़ीसदी टिकट देने की प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी की घोषणा और अक्टूबर के मध्य में कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के तेवर बता रहे हैं कि पार्टी अब संगठन और चुनाव के स्तर पर गम्भीरता से काम करना शुरू कर रही है।
पार्टी की इस क़वायद के बीच यह साफ़ दिख रहा है कांग्रेस के लिए राजनीतिक रूप से उत्तर प्रदेश अब केंद्र की राजनीति में पहुँचने और पार्टी का आधार मज़बूत करने का बड़ा केंद्र बन रहा है। जिस तरह कांग्रेस ने प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश के चुनाव में आगे किया है, उससे ज़ाहिर होता है कि वह एक बड़ा राजनीतिक जोखिम लेने के लिए ख़ुद को तैयार कर चुकी है। कांग्रेस के सामने इससे भविष्य में बड़ी पेचीदा स्थिति भी आ सकती है। बड़ा सवाल यही है कि यदि प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को करिश्माई तरीक़े से ज़्यादा सीटें दिलाने में सफल हो जाती हैं, तो क्या कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी की राजनीतिक भूमिका पर सवाल खड़ा हो जाएगा।
दो दशक से भी ज़्यादा वक़्त के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनाव पर बहुत गम्भीरता से फोकस करती दिख रही है। लेकिन प्रियंका गाँधी की इस सक्रियता की जितनी कांग्रेस से बाहर चर्चा है, उतनी ही कांग्रेस के भीतर भी है। कांग्रेस के कुछ नेताओं से ‘तहलका’ की बातचीत का सार यह निकलता है कि कांग्रेस महासचिव और कार्यकर्ता प्रियंका गाँधी की इस सक्रियता से न सिर्फ़ उत्साहित हैं, बल्कि उनमें नयी ऊर्जा भी आयी है।
हालाँकि प्रियंका गाँधी बनाम राहुल गाँधी इस की इस चर्चा से कांग्रेस के भीतर बेचैनी भी है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व किसी भी सूरत में यह चर्चा नहीं चाहता है। ख़ुद प्रियंका गाँधी जब कुछ करती हैं, तो इसे राहुल गाँधी की योजना का हिस्सा बताती हैं। लेकिन इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की सफलता कांग्रेस के भीतर प्रियंका गाँधी को एक अलग शक्ति केंद्र (पॉवर सेंटर) के रूप में उभार सकती है। ऐसे में कांग्रेस के सामने बड़ी पेचीदगी वाली स्थिति बन सकती है।
कांग्रेस में राहुल गाँधी के नेतृत्व पर सवाल उठाने वाले नेता प्रियंका गाँधी को राष्ट्रीय स्तर का ज़िम्मा देने की माँग कर सकते हैं; भले आज की तारीख़ में कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी को नेतृत्व का ज़िम्मा देने वाले नेताओं की संख्या कहीं ज़्यादा है। लेकिन यदि हाल के घटनाक्रम को देखें, तो यह भी हक़ीक़त है कि जी-23 के नेताओं ने उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी की सक्रियता, ख़ासकर लखीमपुर खीरी में उनके तेवर के बाद ही पार्टी के प्रति अपना रूख़ बदला है।
लखीमपुर कांड में जिस तरीक़े से कांग्रेस ने आक्रामक रूख़ अख़्तियार किया, उसे लेकर कांग्रेस के असन्तुष्ट नेताओं में शामिल पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा ने न सिर्फ़ कांग्रेस के आक्रामक रवैये की तारीफ़ की, बल्कि उसका खुलकर समर्थन भी किया। इसी तरह लखीमपुर कांड में जब प्रियंका गाँधी और राहुल गाँधी राष्ट्रपति से मिलकर ज्ञापन देने गये, तो असन्तुष्ट नेताओं में शामिल रहे गुलाम नबी आज़ाद उनके साथ थे। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ भी पार्टी में नाराज़ नेताओं को मुख्यधारा में लाने की क़वायद में आलाकमान के साथ जुड़े रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जिस तरह भाजपा ने अपने सोशल मीडिया के ज़रिये राहुल गाँधी की छवि को नुक़सान पहुँचाया है, उसके कारण हाल के वर्षों में उन्हें जनता के बीच एक ऐसी अलोकप्रियता झेलनी पड़ी, जिसके वह वास्तव में हक़दार नहीं थे। राहुल गाँधी की छवि को तब ज़रूर ठेस पहुँची थी, जब सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ख़राब हार के बाद उन्होंने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।
बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि उन्हें भावुकता की जगह दृढ़ता से भाजपा के ख़िलाफ़ डटे रहना चाहिए था। हालाँकि अन्य जानकारों का मानना है कि राहुल गाँधी के इस्तीफ़े की वजह अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का नकारात्मक रोल था, जिससे राहुल बहुत आहत थे। राहुल उस समय अपने प्रति भाजपा के लगातार दुष्प्रचार का भी सामना कर रहे थे और अपने नेताओं के असहयोग ने उन्हें निराश किया था।
राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा के दुष्प्रचार के कारण राहुल गाँधी अपनी जबरदस्त सक्रियता के बावजूद मोदी सरकार के ख़िलाफ़ अपने अभियानों में उतना प्रभाव नहीं डाल पाये, जितना हक़ीक़त में डालना चाहिए था। हालाँकि हाल के घटनाक्रमों, जिनमें कोरोना वायरस की दूसरी लहर में फैली अव्यवस्था और आसमान छू रही महँगाई के कारण केंद्र सरकार के प्रति जनता में फैल रही निराशा में राहुल गाँधी का केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ विरोध ख़ासा चर्चा में रहा है। अब प्रियंका गाँधी जो कुछ भी कर रही हैं, वह चर्चा का विषय बन रहा है। इसकी वजह उनकी आक्रामक शैली और लोगों, ख़ासकर महिलाओं से खुलकर मिलने की सोच है। वह सत्तापक्ष पर मुखर ढंग से आक्रमण भी करती हैं। प्रियंका जनता के बीच लोकप्रियता के लिए वह सब कर लेती हैं, जो राहुल गाँधी नहीं करते। राहुल गाँधी एक गम्भीर राजनेता के रूप में जनता के सामने रहते हैं, जिनका ज़्यादा फोकस मुद्दों पर रहता है।
ऐसा नहीं कि प्रियंका गाँधी गम्भीर राजनेता नहीं हैं; लेकिन जनता को ऐसी चीज़ें ज़्यादा आकर्षित करती हैं, जो प्रियंका कर लेती हैं। जैसे लखीमपुर खीरी जाते हुए जेल में बन्द होने पर झाड़ू लगाना, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की इस पर की विवादित टिप्पणी को भुनाते हुए इसे वाल्मीकि समाज के ख़िलाफ़ दिखाना और वाल्मीकि मंदिर में सफ़ार्इ करना, एक दलित की पुलिस स्टेशन में मौत पर पीडि़त परिवार से मिलने आगरा जाते हुए रास्ते में एक घायल लडक़ी को अपनी गाड़ी से फस्र्ट ऐड बॉक्स निकालकर उसकी मरहम पट्टी करना जैसी चीज़ें प्रियंका को राहुल से अलग करती हैं। हालाँकि इससे राहुल गाँधी का राजनीतिक महत्त्व घट नहीं जाता।
राहुल बनाम प्रियंका
यह सवाल लाज़िम है कि यदि प्रियंका गाँधी को कोई बड़ी सफलता मिलती है, तो क्या राहुल गाँधी को कांग्रेस में किनारे होना पड़ेगा? कांग्रेस के भीतर भी यह सवाल है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने नाम न छपने की शर्त पर ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘इसकी बिल्कुल भी सम्भावना नहीं। राहुल गाँधी ही कांग्रेस के स्वाभाविक नेता हैं। भाजपा के दुष्प्रचार के आधार पर आप राहुल गाँधी का क़द तय नहीं कर सकते। वह मुद्दों पर गम्भीरता से बात करने वाले नेता हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने हमेशा मोदी सरकार की मुद्दों पर आधारित आलोचना की है, भाजपा नेताओं की तरह भद्दी व्यक्तिगत टिप्पणियाँ नहीं की हैं।’
पार्टी के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा- ‘राहुल गाँधी की भाषा लुभावनी नहीं हो सकती है। लेकिन वह चुटकुलों की भाषा वाले राजनेता कभी नहीं रहे। उन्हें चीज़ें की गहन समझ है और जो उनके प्रिय विषय हैं, वही देश के असली मुद्दे भी हैं। लेकिन भाजपा इन मुद्दों में नाकाम है। लिहाज़ा वह जनता का ध्यान इनसे हटाने के लिए राहुल गाँधी पर व्यक्तिगत आक्रमण करती है और वह भी झूठ से भरा होता है।’
हालाँकि पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष रह चुकीं अनीता वर्मा ने कहा कि प्रियंका गाँधी की छवि इंदिरा गाँधी जैसी है और वह उत्तर प्रदेश में जिस तरह पार्टी को मज़बूत कर रही हैं, उससे कांग्रेस के भीतर उन्हें लेकर बहुत उम्मीद है और राज्य में आने वाले चुनाव में पार्टी बड़ा कमाल कर सकती है। लेकिन इसे कांग्रेस के बीच किसी तरह का मुक़ाबला कहना सिर्फ़ मीडिया की उपज है। उन्होंने कहा कि राहुल और प्रियंका, दोनों कांग्रेस को मज़बूत कर रहे हैं।
दलितों को लुभाने की कोशिश
यह अब साफ़ है कि कांग्रेस अब अपने पुराने जनाधार- दलित और पिछड़ों को फिर अपने साथ जोडऩे के लिए पूरी ताक़त झोंक रही है। हाल के दशकों में यह वर्ग उससे छिटककर उससे दूर चला गया है। उत्तर प्रदेश के आगरा में दलित की पुलिस थाने में मौत के मसले को जिस तरह प्रियंका गाँधी ने उठाया और पीडि़त परिवार से मिलने आगरा गयीं, उससे भाजपा में बड़ी बेचैनी है। आगरा जाते हुए रास्ते में प्रियंका गाँधी ने जिस तरह अपना क़ाफ़िला रोककर एक घायल लडक़ी को ‘फस्र्ट ऐड’ दिया, उसने तो उन्हें काफ़ी चर्चा में ला दिया और कई दिन तक सोशल मीडिया में इसकी चर्चा होती रही।
कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि प्रियंका गाँधी तेज़ी से एक राजनेता के रूप स्थापित होने की तरफ़ बढ़ा रही हैं। ऐसे में ज़ाहिर है पार्टी के भीतर उनकी तुलना राहुल गाँधी से होगी। अब यह भी साफ़ दिख रहा है कि कांग्रेस प्रियंका गाँधी को चर्चा के केंद्र में लाना चाहती है, और दिख रहा है कि अपनी मेहनत से उन्होंने इसमें सफलता पायी है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में अचानक प्रियंका गाँधी की लोकप्रियता बढ़ रही है। जिस तरह उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में किसान न्याय रैली की और जैसी भीड़ उसमें जुटी, उससे कांग्रेस उत्साहित है। यह अभी साफ़ नहीं है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गाँधी को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में सामने लाएगी या नहीं? लेकिन यह लगभग तय है कि चुनाव उनका चेहरा आगे करके ही लड़ा जाएगा।
उनकी सक्रियता से गाँवों तक में उनकी चर्चा आम लोगों में होने लगी है। उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने वाले कहते हैं कि ठीक है कि देश के इस सबसे बड़े राज्य में कांग्रेस संगठन के नाम पर कमज़ोर है; लेकिन प्रियंका गाँधी की लोकप्रियता जिस तरह बढ़ रही है, वो कांग्रेस को चुनाव में आश्चर्यजनक नतीजे भी दिला सकती है। उत्तर प्रदेश में संगठन और आधार वाली पार्टियाँ भाजपा, सपा और बसपा में इससे बेचैनी है। प्रियंका गाँधी की मार्फ़त उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक बड़ा राजनीतिक प्रयोग कर रही है। इसमें उनकी सफलता राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के लिए नयी शुरुआत का रास्ता खोल सकती है। चुनाव में बेहतर नतीजे इसकी बड़ी शर्त होगी।
प्रियंका योजनावद्ध तरीक़े से आगे बढ़ रही हैं। वह जातिगत समीकरणों से लेकर हर चीज़ का ख्याल रख रही हैं। आने वाले समय में प्रियंका उत्तर प्रदेश में पार्टी और ख़ुद को स्थापित करने के लिए यात्रा कार्यक्रम बनाने वाली हैं, ताकि जनता तक अधिक-से-अधिक पहुँचा जा सके। जानकारी के मुताबिक, प्रियंका गाँवों पर ज़्यादा फोकस करने की तैयारी कर रही हैं।
कांग्रेस में परिवर्तन
लम्बे समय तक सोयी रहने के बाद कांग्रेस में परिवर्तन दिख रहा है। पार्टी अपने संगठन चुनाव से पहले भीतर की असन्तुष्ट गतिविधियों को शान्त करना चाहती है, ताकि अध्यक्ष का चुनाव निर्विरोध हो। सीडब्ल्यूसी में सोनिया गाँधी के तेवर के बाद गुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा जैसे नेता फिर नेतृत्व के आगे हाथ बाँधे खड़े दिखने लगे हैं। यह दोनों नेता हाल के महीनों में असन्तुष्ट गतिविधियों के अगुआ की भूमिका में दिखे थे। गाँधी परिवार के लिए आज़ाद का असन्तुष्टों के साथ जाना किसी झटके से कम नहीं था; क्योंकि उन्हें हमेशा से गाँधी परिवार का क़रीबी माना जाता है। हालाँकि आज़ाद फिर से पार्टी कामों में सक्रिय दिख रहे हैं। हाल में लखीमपुर के मामले में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी जब राष्ट्रपति को ज्ञापन देने गये थे, तो ए.के. एंटनी के साथ गुलाम नबी आज़ाद भी उनके साथ थे।
कांग्रेस महसूस कर रही है कि मोदी सरकार का जलवा कम हो रहा है, देश में बढ़ रही समस्यायों से लोगों में सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है और निराशा की धूल झाडक़र कांग्रेस के पास अपने संगठन को खड़ा करने का यह सही समय है। अगले साल जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, कांग्रेस उन पर ज़्यादा फोकस कर रही है। कांग्रेस की कोशिश राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करके विपक्ष का नेतृत्व करने की है। राज्यों के चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा अवसर हैं। पार्टी का इन चुनावों में एक से ज़्यादा राज्यों में सीधे भाजपा के मुक़ाबला है; लिहाज़ा उसके लिए सम्भावनाएँ तो हैं ही।
कांग्रेस जानती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर निकलता है। पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक कमज़ोर संगठन रहा है। ऐसा नहीं है कि प्रियंका गाँधी राज्य में रातोंरात कोई उलटफेर कर देंगी; लेकिन जिस तरह वह उत्तर प्रदेश में आकर जम गयी हैं, उससे सत्तारूढ़ भाजपा ही नहीं, विरोधी दलों सपा और बसपा में भी हलचल है। इसे प्रियंका गाँधी की सफलता माना जाएगा कि राज्य में बिना किसी मज़बूत संगठन के उन्होंने कांग्रेस को जबरदस्त चर्चा में ही नहीं ला दिया है, बल्कि अपनी चतुर रणनीति से अन्य राजनीतिक दलों के लिए धीरे-धीरे गम्भीर चुनौती बनती दिख रही हैं।
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से यह साफ़ हो गया है कि पार्टी नेतृत्व अब अनुशासन के साथ-साथ ज़मीनी स्तर पर भी सक्रियता बढ़ाना चाहता है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस आने वाले समय में देश के विभिन्न मुद्दों को लेकर बड़ा आन्दोलन शुरू करने की तैयारी कर रही है। राहुल गाँधी जिन युवा नेताओं को कांग्रेस में ला रहे हैं, उनकी एक टीम बनाकर वे आन्दोलन खड़ा करना चाहते हैं। चूँकि कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव अगले साल है, इसलिए सम्भावना यही है कि यह आन्दोलन उसके बाद ही शुरू होगा। यदि राहुल गाँधी इससे पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनने को तैयार हो जाते हैं, तो हो सकता है कि अगले साल के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह आन्दोलन शुरू हो।
कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि भाजपा इन चुनावों में उतनी सफलता हासिल नहीं कर पाएगी। ऐसा सोचने के पीछे कांग्रेस के अपने कारण हैं। हालाँकि इसके लिए अब वह ख़ुद को सक्रिय करना चाहती है, ताकि यूपीए के सहयोगी दलों के सहारे से बाहर निकलकर अपनी ज़मीन मज़बूत कर सके। कुछ राज्यों में तो हालत यह है कि वह सहयोगी दलों की पिछलग्गू मात्र बनकर रह गयी है। पार्टी इस स्थिति से ख़ुद को बाहर निकालना चाहती है। इसके लिए ज़रूरी है कि वह ख़ुद को राज्यों में खड़ा करे।
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कोशिश ज़्यादा-से-ज़्यादा राज्य जीतने की है। इसके लिए वह इस बार नये तेवर के साथ चुनाव में दिखेगी। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर अपने युवा नेताओं, जिनमें महिला नेता भी हैं; को इस बार चुनाव में विशेष रणनीति के तहत मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है। इनमें वे नेता शामिल रहेंगे, जो केंद्र सरकार की नीतियों पर तथ्यों के साथ जबरदस्त आक्रमण कर सकते हों। उनकी बाक़ायदा एक टीम बनाकर उन्हें चुनाव प्रचार में झोंका जाएगा।
पार्टी उत्तर भारत के क्षेत्र में यहाँ के तेवर वाले जबकि दक्षिण, पश्चिम और उत्तर पूर्व क्षेत्र में वहाँ के तेवर वाले नेताओं को ज़िम्मा सौंपेगी। राहुल गाँधी इस तरह की टीम बना रहे हैं। अब यह साफ़ हो गया है कि राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की सक्रियता ने कांग्रेस में निराशा से भरे वरिष्ठ असन्तुष्ट धड़े को ख़ामोश कर दिया है और वह अब महसूस करने लगा है कि युवा नेतृत्व के साथ आगे जाने का प्रयोग ठीक रहेगा।
नेतृत्व सँभालने की कशमकश
लखीमपुर में प्रियंका गाँधी ने जो झलक दिखायी है, उसका व्यापक असर कांग्रेस के भीतर और बाहर विपक्ष तक में हुआ है। राहुल और प्रियंका गाँधी की इस आक्रामक सक्रियता ने कांग्रेस के भीतर उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में नये प्राण फूँक दिये हैं। देखा जाए, तो आज देश भर में पूरे विपक्ष में ऐसा कोई नेता नहीं, जो इस तरह के तेवर के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की आक्रामक शैली का मुक़ाबला कर सके। कांग्रेस के पास नेतृत्व की यह बढ़त ज़रूर दिखने लगी है, जिसका उसे लाभ मिलेगा। कांग्रेस के सहयोगी दलों में राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व का वास्तव में टोटा है। शरद पवार जैसे नेता हैं; लेकिन आयु और स्वास्थ्य उनके आड़े हैं।
तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को छोड़ दें, तो यूपीए दलों में ऐसा कोई नहीं, जिसके पास राष्ट्रीय छवि वाले नेता हों। टीएमसी चूँकि यूपीए का हिस्सा नहीं है, कांग्रेस को इस मामले में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के रूप में बढ़त है। वैसे यह माना जाता है कि टीएमसी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए से ज़्यादा तीसरे मोर्चे पर फोकस करती रही है। यहाँ तक कि हाल के महीनों में उसने कांग्रेस के नेताओं को तोडक़र अपने साथ मिलाया है। दूसरे ममता बनर्जी की अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ हैं, जिन्हें वह और उनकी पार्टी सार्वजनिक तौर पर ज़ाहिर करते रहे हैं। देखा जाए, तो टीएमसी वास्तव में कांग्रेस की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं की राह में सहयोगी सी है। हाँ, यह हो सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव में यदि कांग्रेस राष्ट्रीय फलक पर फिर उभरे तो टीएमसी उसके साथ चली जाए। कांग्रेस अब राज्यों में सरकारें बनाकर नेतृत्व वाली बढ़त को और मज़बूत करना चाहती है। लिहाज़ा वह इन चुनावों में पूरी ताक़त झोंकेगी। उसे पता है कि यदि वह चुनावी राजनीति में अब भी नाकाम रहती है, तो उसके सहयोगी दल छिटककर तीसरे मोर्चे में जा सकते हैं, जिसके अगले साल के आख़िर तक या 2023 में आकार लेने की सम्भावना है।
राज्यों में अभी भी ऐसे कई क्षेत्रीय दल हैं, जो वास्तव में भाजपा के एनडीए या कांग्रेस के यूपीए में से किसी के साथ नहीं हैं। लिहाज़ा तीसरे मोर्चे के गठन के लिए दलों की कमी नहीं है। ऐसे में कांग्रेस अभी से ज़मीन पर उतरने की तैयारी कर रही है, ताकि यूपीए की ताक़त के मज़बूत किया जा सके। अगला साल कांग्रेस के लिए काफ़ी अहम है। उसे आधा दर्ज़न से ज़्यादा विधानसभा चुनाव का सामना करना है। नया अध्यक्ष चुनना है और उसके बाद पुराने, नये और युवा लोगों के साथ संगठन को नया रूप देना है। यह चुनौती वाला काम होगा। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल और प्रियंका की टीम में नये लोगों की भरमार होगी।
“यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है, तो 12वीं पास छात्राओं को स्मार्ट फोन और स्नातक पास छात्राओं को इलेक्ट्रॉनिक स्कूटी दी जाएगी। हम पहले ही 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने का वादा कर चुके हैं। मैं कुछ छात्राओं से मिली। उन्होंने बताया कि उन्हें पढऩे और सुरक्षा के लिए स्मार्टफोन की ज़रूरत है। मुझे ख़ुशी है कि घोषणा समिति की सहमति से उत्तर प्रदेश कांग्रेस ने निर्णय किया है कि सरकार बनने पर इंटर पास लड़कियों को स्मार्टफोन और स्नातक की लड़कियों को इलेक्ट्रॉनिक स्कूटी दी जाएगी। हमारा पूरा फोकस जनता के मुद्दों पर है। प्रदेश में जिस तरह लोगों की हत्याएँ हुई हैं। क़ानून व्यवस्था का दिवाला पिटा है। इस स्थिति को सत्ता में आकर हम बदल देंगे।”
प्रियंका गाँधी
कांग्रेस महासचिव (ट्विटर पर)
“हमारे सामने कई चुनौतियाँ आएँगी; लेकिन अगर हम एकजुट और अनुशासित रहते हैं और सिर्फ़ पार्टी के हित पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो मुझे पूरा विश्वास है कि हम अच्छा करेंगे। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए हमारी तैयारियाँ आरम्भ हो चुकी हैं।”
सोनिया गाँधी
कांग्रेस अध्यक्ष (सीडब्ल्यूसी में)
जी-23 का अस्तित्व ख़त्म!
अक्टूबर में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जैसे तेवर अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने दिखाये, उससे ज़ाहिर हो गया है कि पार्टी के बीच असन्तुष्ट गतिविधियों के लिए अब जगह मुश्किल होगी। उसका असर भी साफ़ दिख रहा है। कथित नाराज़ नेता शान्त हो गये हैं। दूसरे पार्टी अध्यक्ष ने इनमें से कुछ को पार्टी के बीच ओहदे देकर शान्त कर दिया है। जो इक्का-दुक्का विरोध में बचे भी हैं, वे अलग-थलग पड़ चुके हैं। कार्यसमिति की बैठक में यह कथित असन्तुष्ट जिस तरह अलग-थलग दिखे, उससे ज़ाहिर हो गया कि अब चीज़ें बदल चुकी हैं।
गुलाम नबी आज़ाद को सोनिया गाँधी पार्टी में अहम भूमिका दे चुकी हैं, जबकि हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के सांसद बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा को उत्तर प्रदेश की स्क्रीनिंग कमेटी में सदस्य तो बनाया ही गया है। हाल में लखीमपुर खीरी में जिस तरह प्रियंका गाँधी ने उन्हें अपने साथ रखा, उससे पार्टी में उनका महत्त्व बढ़ा है। कार्यसमिति की बैठक में आज़ाद ने मुक्त कण्ठ से सोनिया गाँधी के नेतृत्व की तारीफ़ की और हाल के अपने रूख़ के विपरीत नेतृत्व का कोई सवाल नहीं उठाया। आनंद शर्मा को भी सोनिया गाँधी ने असन्तुष्ट ख़मे से बाहर निकालने के लिए महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ देने का सूत्र अपनाया। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी कांग्रेस के नाराज़ नेताओं में शामिल थे। लेकिन भूपेंद्र हुड्डा को कांग्रेस की कुछ महत्त्वपूर्ण कमेटियों में ज़िम्मेदारी दी गयी है। याद रहे इसी साल जब गुलाम नबी आज़ाद की जम्मू में एक रैली हुई थी; जिसमें हुड्डा ख़ासतौर पर शामिल हुए थे। उस रैली को कांग्रेस के असन्तुष्टों के शक्ति परीक्षण के रूप में प्रचारित किया गया था। हुड्डा की तरह ही महाराष्ट्र के नेता मुकुल वासनिक को कांग्रेस की कई अहम समितियों में स्थान देकर महत्त्व दिया गया है। पिछले कुछ समय से वे असन्तुष्ट ख़मे से पूरी तरह कट चुके हैं। उधर वरिष्ठ नेता और कई बार मंत्री रह चुके वीरप्पा मोइली तो पहले ही असन्तुष्टों से कट गये थे, जब उन्होंने कहा कि जी-23 नेताओं वाली चिट्ठी पर उन्होंने एक काग़ज़ पर दस्तख़त कांग्रेस को नुक़सान करने के लिए नहीं, बल्कि मज़बूत करने के समर्थन के लिए किये थे।