उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, प्रदेश की सभी पार्टियाँ कमर कसती नज़र आ रही हैं। लेकिन इन पार्टियों को इस बार के चुनाव में कड़ी चुनौती किसान, ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसान दे रहे हैं। यही वजह है कि सभी पार्टियाँ अपना-अपना अस्तित्व बचाने की चिन्ता सताने लगी है।
अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें, तो वहाँ सिर्फ़ जाट ही नहीं, दूसरी जाति के किसान भी भाजपा से सख़्त नाराज़ हैं। जाटों के साथ-साथ इन मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाने में जुटे हैं- छोटे चौधरी यानी चौधरी जयंत सिंह। उन्हें किसान आन्दोलन के चलते बल मिला है। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें अपने पिता चौधरी अजित सिंह के गुजर जाने के बाद पिछले कई चुनावों में बुरी तरह कमज़ोर पड़ चुकी अपनी पार्टी की साख और उसके अस्तित्व को बचाना होगा। इसके लिए उत्तर प्रदेश के आगामी साल के विधानसभा चुनाव जयंत के लिए स्वर्णिम अवसर के रूप में सामने हैं, जिन्हें उन्हें अपने राजनीतिक विवेक से जनता में एक नया जोश और विश्वास पैदा करके हर हाल में हासिल करना होगा, अन्यथा अगर यह अवसर उन्होंने गँवा दिया, तो उन्हें भविष्य में राजनीति में अपना क़द और पार्टी का अस्तित्व बचाये रखने की चुनौती हमेशा रहेगी। इसके लिए भले ही वह सपा से गठबन्धन कर लें; लेकिन अपना क़द छोटा करके समझौता न करें।
जानकारी के मुताबिक, रालोद के लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से 40 सीटों की जो माँग की थी, जिसमें 32 सीटें मिलने पर सहमति बनने की बात सामने आ रही है। माना जा रहा है कि 21 नवंबर को मुलायम सिंह के जन्मदिन पर कार्यक्रम के दौरान सपा के रालोद से गठबन्धन की औपचारिक घोषणा हो सकती है। उनके कार्यकर्ताओं का मानना है कि उससे कम में उन्हें किसी हाल में नहीं मानना है, भले ही यह गठबन्धन हो या न हो। हालाँकि अभी तक तो यही बात सामने आ रही है कि जयंत को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बेल्ट की 32 सीटें सपा छोड़ रही है, जिसका उन्हें राजनीतिक फ़ायदा मिल सकता है। क्योंकि कृषि क़ानूनों के विरोध में आन्दोलन कर रहे किसानों, जिनमें जाट भी शामिल हैं; ने उन्हें रस्म पगड़ी के दौरान जो ज़िम्मेदारी दी है, उससे यह साफ़ है कि जाट मतदाता चौधरी जयंत सिंह की तरफ़ जाटों के नेतृत्व करने वाले नेता की नज़र से देख रहे हैं, जिनसे जाट किसानों को बड़ी उम्मीदें हैं।
ज़ाहिर है कि रालोद की ज़िम्मेदारी अब पूरी तरह चौधरी जयंत सिंह पर आ चुकी है और पार्टी अध्यक्ष के तौर पर यह उनका पहला बड़ा इम्तिहान है, जिसमें जाटों के साथ-साथ मुस्लिम मत भी रालोद के खाते में जाएँ, तो उनकी जीत पक्की है। ऐसा माना जा रहा है, जिसके बग़ैर जाटलैंड में किसी भी पार्टी की जीत सम्भव नहीं है। इसके अलावा अगर दलित वोट का भी कुछ प्रतिशत वोट रालोद को मिल गया, तो फिर उसे अच्छी ख़ासी सीटों पर आसानी से जीत हासिल हो सकती है। केवल जाटों के दम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 20-22 फ़ीसदी सीटें तो जीती जा सकती हैं; लेकिन 100 फ़ीसदी तो क़तर्इ नहीं।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अधिकतर जाटों का भाजपा प्रेम अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है, जिसकी वजह भाजपा में जाट नेताओं का होना भी है। अगर जाट नेता भाजपा का दामन छोड़ दें, तो बचे-खुचे भाजपा समर्थक जाटों का भी भाजपा मोह भंग हो जाएगा और इससे भाजपा को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में ही नहीं, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी तगड़ा झटका लग सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को राष्ट्रीय लोकदल का गढ़ माना जाता रहा है। किसान मसीहा चौधरी चरणसिंह से लेकर जयंत चौधरी तक छपरौली, बाग़पत सीना ताने खड़े रहे हैं। तमाम नाराजगी और रूठने मनाने के बावजूद छपरौली ने कभी भी इन परम्परागत सियासत दानों का सिर नीचा नहीं होने दिया। लेकिन सन् 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगे और टिकट के ग़लत बँटवारे के चलते रालोद की नाव डूब गयी। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि रालोद सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में एकमात्र छपरौली की सीट बचा पायी। लेकिन अब रालोद को एक बेहतरीन मौक़ा मिला है, जिसे चौधरी जयंत सिंह को बचना है, जो कि थोड़ा मुश्किल भले है, लेकिन नामुमकिन नहीं। इसके लिए जयंत को खुलकर किसान आन्दोलन के साथ डटकर खड़े रहना होगा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में एक विश्वास जगाना होगा। हालाँकि यह भी सच है कि किसान आन्दोलन के दौरान जयंत ने किसानों का समर्थन देकर कार्यकर्ताओं में जोश डालने का कार्य किया है। इस दौरान की गयी मेहनत और हाथरस के लाठीचार्ज के परिणामस्वरूप ही वह लोगों में चर्चा का विषय भी बने। लेकिन उन्हें पार्टी को वन मैन आर्मी के तंत्र (मॉडल) से बाहर निकालकार असलियत में लोकतांत्रिक बनाना होगा। फ़िलहाल सवाल यही है कि क्या रालोद का अस्तित्व बचा पाएँगे चौधरी जयंत सिंह?
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)