भारत में हमारी क्रिकेट टीम का कप्तान होना शायद ऐसा है जैसे आपको लगातार अग्निपरीक्षाओं से गुजरना हो. ये परीक्षाएं कभी-कभी भारत के प्रधानमंत्री के सामने आ रही चुनौतियों से भी बड़ी हो सकती हैं. यहां सफलता का जश्न मनाया जाता है तो असफलता बर्दाश्त के बाहर होती है. हालांकि इस समय भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी टीम चयनकर्ताओं के उस बने-बनाए फॉर्मूले को चुनौती दे चुके हैं जिसके तहत टीम की असफलता के लिए कप्तान जिम्मेदार होता है.
इस समय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) या चेन्नई सुपरकिंग्स के ड्रेसिंग रूम से जुड़े लोगों को छोड़ दें तो बाहर उन लोगों की तादाद तेजी से कम हुई है जो इस सोच से सहमति रखते हों कि धोनी को आगे भी भारतीय टीम की कप्तानी करनी चाहिए. गली-मोहल्लों में रहने वाले क्रिकेट के मुरीद, टीवी पर क्रिकेट के पंडित (जिनमें इस आलेख का लेखक का भी शामिल है और जिन्हें ज्यादातर मौकों पर गंभीरता से नहीं लिया जाता) और देसी व विदेशी टीमों के पूर्व कप्तान इस समय उनके नेतृत्व पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि इसका चयनकर्ताओं, बीसीसीआई या खुद धोनी पर कोई असर हो रहा है.
यदि आपने धोनी के नेतृत्व में भारतीय टीम को खेलते हुए गौर किया हो तो आपकी स्मृति में उनके चेहरे की दो भाव-भंगिमाएं स्थायी होंगी. मंद-मंद मुस्कुराता हुआ चेहरा जो अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है तो दूसरा सपाट और थका हुआ हताशा से भरा चेहरा, जो तब दिखता जब टीम की हार लगभग तय हो चुकी होती हो. उनकी कप्तानी को भी ऐसे ही दो बिंदुओं के बीच रखा जा सकता है. एक ऐसा खिलाड़ी जो ‘फंसे’ हुए एकदिवसीय मैचों का भरोसेमंद फिनिशर है और जिसने कई टी-20 मैंचों में अपनी बल्लेबाजी से मैचों के नतीजे बदले हैं. एक ऐसा कप्तान जिसने गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण में चतुराई भरे बदलाव करके अपनी विरोधी टीम को कई मौकों पर चौंकाया, छकाया और हराया है. लेकिन जब टेस्ट मैचों की बारी आती है तो क्रिकेट का यही जादूगर ऐसा लगने लगता है मानो अपनी जादुई छड़ी ड्रेसिंग रूम में भूलकर आया हो.
कई पूर्व कप्तान इस समय भारतीय क्रिकेट टीम के चयनकर्ताओं द्वारा इस दूसरे ‘ धोनी ‘ को नजरअंदाज करने के रवैये पर बहुत हैरान हैं. यहां हम जिस जादूरहित धोनी की चर्चा कर रहे हैं उसके नेतृत्व में ही भारतीय टीम विदेशी मैदानों पर खेलती है. ऑस्ट्रेलिया के सबसे आक्रामक कप्तानों में शामिल और अब कमेंटेटर बन चुके इयान चैपल, कुछ उन्हीं की तरह के खिलाड़ी और भारतीय टीम में जीत का भरोसा जगाने वाले सौरव गांगुली और कपिल देव तक धोनी के बारे में कह चुके हैं कि कम से कम टेस्ट मैचों में टीम की कमान धोनी के बजाय किसी और को देनी चाहिए. यही नहीं बयानबाजी और चर्चा से दूर रहने वाले राहुल द्रविड़ भी लगभग यही राय जता चुके हैं. दर्शकों और विश्लेषकों-पत्रकारों की उपेक्षा की जा सकती है क्योंकि हर बात पर सवाल खड़े करना उनकी फितरत में माना जाता है लेकिन चैपल, गांगुली, कपिल या द्रविड़ के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जा सकता.
1989-90 के बाद से क्रिकेट की हर सीरीज के बाद भारत का दबदबा इस खेल में बढ़ता गया है. इसमें प्रदर्शन से ज्यादा इस बात का योगदान था कि भारतीय टीम जिस टूर्नामेंट में शामिल होती थी उसमें बाकियों से कहीं ज्यादा पैसा क्रिकेट के संचालकों को मिलता था. उस दौर में पाकिस्तान में खेली गई एक सीरीज, जहां कृष्णमाचारी श्रीकांत कप्तान थे, के बाद भारतीय टीम को सात कप्तान मिल चुके हैं. मोहम्मद अजहरुद्दीन, सचिन तेदुलकर, गांगुली, द्रविड़, वीरेंद्र सहवाग, अनिल कुंबले और धोनी. इनमें धोनी को 2008 में तब मौका मिला जब अनिल कुंबले को चोट की वजह से रिटायर होना पड़ा.
अजहरुद्दीन काफी लंबे समय तक कप्तान रहे. लेकिन इसी समय भारतीय टीम पर यह लेबल चस्पा कर दिया गया कि ‘घर में शेर, बाहर ढेर’. उनके नेतृत्व में विदेशी मैदानों पर टीम ने कुल 27 मैच खेले और उसे सिर्फ एक में जीत मिली. जहां तक भारतीय मैदानों की बात है तो यहां अजहरुद्दीन की टीम ने 13 टेस्ट मैच जीते हैं. कुल मिलाकर बतौर कप्तान उनकी जीत-हार का रिकॉर्ड 47 टेस्ट के लिए 14-14 का है. इसे भारतीय क्रिकेट की एक पहेली ही कहा जाएगा कि कप्तान के रूप में तेंदुलकर का प्रदर्शन काफी फीका रहा. उनके नेतृत्व में भारतीय टीम ने 25 टेस्ट मैच खेले जहां सिर्फ चार में वह जीत पाई. नौ मैच भारतीय मैदानों पर खेले गए और टीम के खाते में आई कुल चार जीत भी इन्हीं में से हैं. तेंदुलकर जब कप्तान थे तब भारत की टीम विदेशी जमीन पर एक भी टेस्ट मैच नहीं जीत पाई.
पहली बार भारतीय टीम ने विदेशी जमीन पर टेस्ट मैचों को जीतना तब शुरू किया जब टीम की कमान गांगुली के हाथ में आई. उनकी अगुवाई में टीम ने विदेशी जमीन पर 11 टेस्ट मैच जीते वहीं 10 में उसे हार का मुंह देखना पड़ा. इस तरह पहली बार जीत-हार का अनुपात भारत के पक्ष में आया. उस समय की एक उपलब्धि यह भी रही कि दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड को छोड़कर टीम ने सभी टेस्ट खेलने वाले देशों में जाकर कम से कम एक मैच जरूर जीता. हालांकि जिंबॉब्वे और बांग्लादेश के खिलाफ जीत को उतना भाव नहीं दिया जाता, लेकिन इस दौर में भारतीय टीम ने वेस्टइंडीज (2001-02), इंग्लैंड (2002), ऑस्ट्रेलिया (2003-04) और पाकिस्तान (2003-04) जैसी टीमों को भी टेस्ट मैचों में शिकस्त दी है. द्रविड़ के कप्तान के बनने बाद भी यह सिलसिला चलता रहा. उनके नेतृत्व में भारत को जिन आठ मैचों में जीत मिली उनमें से पांच मैच विदेशी जमीन पर खेले गए थे. इस टीम को जिन छह मैचों में हार मिली उनमें से भी सिर्फ एक मैच घरेलू मैदान पर हुआ था. कुंबले की कप्तानी में भारतीय टीम ने तीन मैच जीते थे इनमें भी दो मैच विदेशी जमीन पर खेले गए थे. बेगलुरु के इस खिलाड़ी की कमान में पांच मैच भारतीय टीम हारी लेकिन उनमें से सिर्फ एक टेस्ट मैच भारत में खेला गया था.
अनिश्चितताओं से भरे खेल में आंकड़े किसी खिलाड़ी की योग्यता मापने का सही पैमाना नहीं हो सकते. लेकिन इसके बाद भी इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारतीय टीम विदेशों में लगातार चार टेस्ट सीरीज हार चुकी है. पहले भारत 0-4 से इंग्लैंड के खिलाफ हारा, फिर इसी अंतर से उसे ऑस्ट्रेलिया ने हराया. इसके बाद 0-1 के अंतर से दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड के खिलाफ धोनी ब्रिगेड को सीरीज गंवानी पड़ी. इन सभी मैचों में सिर्फ एक, जो ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एडीलेड (बॉक्स देखें) में हुआ था, में वीरेंद्र सहवाग कप्तान रहे थे. बाकी की अगुवाई धोनी ने की थी.
भारत विदेशी जमीन पर खेलते हुए पिछले 12 टेस्ट मैचों में से 10 हार चुका है. दो मैच ड्रॉ रहे. हालांकि ऐसा कभी नहीं रहा कि विदेशों में भारतीय टीम लगातार टेस्ट मैच जीती हो और उसका दबदबा कायम हो गया हो, लेकिन हाल के दिनों में ऐसी हार के दोहराव से भी उसका सामना नहीं हुआ है. हाल की पराजयों के पहले भी धोनी के ही नेतृत्व में भारतीय टीम ने 2010-11 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ तीन टेस्ट मैचों की सीरीज एक-एक से बराबर की थी और अपेक्षाकृत कमजोर समझी जाने वाली वेस्टइंडीज को जून-जुलाई में संपन्न हुई तीन मैचों की सीरीज में 1-0 से हराया था.
भारतीय टीम का विदेशी जमीन पर हाल का सिलसिला दिसंबर, 2011 से शुरू होकर इस साल फरवरी तक चलता रहा है. हालांकि इस बीच में घरेलू मैदान पर उसे जीत भी मिली. भारत ने न्यूजीलैंड को दो मैचों की सीरीज में 2-0 से हराया तो ऑस्ट्रेलिया चार मैचों की सीरीज में चारों मैच हारा. इसी तरह वेस्टइंडीज भी दो मैचों की सीरीज में दोनों मैच हार गया. इनमें से एक सीरीज में टीम को इंग्लैंड के खिलाफ 2-1 से हार का सामना भी करना पड़ा. यह सीरीज 2012 के आखिर में हुई थी.
विदेशी जमीन पर ऐसे रिकॉर्ड, विवाद, उनके द्वारा खिलाड़ियों का टीम में ‘पक्षपाती’ चयन और अति रक्षात्मक नेतृत्व के बाद भी यह बात चकित करती है कि धोनी अब भी टेस्ट टीम का नेतृत्व संभाल रहे हैं. वे टीम से कभी-कभार बाहर होते हैं लेकिन वह तब जब वे चोटिल हो जाएं.
भारतीय क्रिकेट का अतीत बताता है कि टीम की असफलता की जिम्मेदारी हमेशा कप्तानों पर आती रही है. 1970 के आस-पास विदेशों में टेस्ट मैच जीतना भारत के लिए विशेष उपलब्धि हुआ करती थी. अजीत वाडेकर की कप्तानी में 1971 में भारत ने वेस्टइंडीज और इंग्लैंड दोनों को 1-0 से हराया था. इसके बाद जब इंग्लैंड की टीम भारत आई तो वाडेकर की टीम ने लगातार तीसरी टेस्ट सीरीज जीतते हुए इंग्लैंड को 2-1 से हराया था. लेकिन 1974 में इंग्लैंड के मैदानों पर खेलते हुए भारत टेस्ट सीरीज 0-3 से हार गया तो इसकी गाज वाडेकर पर ही गिरी. गुस्साए क्रिकेट प्रेमियों ने उनके और चयनकर्ताओं के घरों पर पत्थर फेंके. नतीजा? जल्द ही बोर्ड हरकत में आ गया और वाडेकर की जगह मंसूर अली खान पटौदी को 1974-75 की एक सीरीज के लिए कप्तान बना दिया गया. इसके कुछ दिन बाद ही पटौदी ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया. इसी साल श्रीनिवास वेंकटराघवन ने टीम की कमान संभाली और घरेलू मैदान पर टीम वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ सीरीज हार गई. लेकिन 1979 में जब इंग्लैंड में उसी के सामने भारतीय टीम 1-0 से सीरीज हारी तब वेंकटराघवन को भी अपनी कप्तानी गंवानी पड़ी.
फिर बिशन सिंह बेदी जब टीम के कप्तान थे उस दौर में सुनील गावस्कर की अगुवाई में भारतीय टीम ने न्यूजीलैंड के खिलाफ एक टेस्ट और घरेलू मैदानों पर लगातार तीन सीरीजों में जीत दर्ज की. बेदी जब टीम का नेतृत्व कर रहे थे तब भारतीय टीम इंग्लैंड के खिलाफ एक टेस्ट सीरीज हारी और उसके बाद विदेशी जमीनों पर ऑस्ट्रेलिया (2-3 ) और पाकिस्तान (0-2) के खिलाफ भी उसे हार का सामना करना पड़ा. बेदी की कप्तानी इसके बाद चली गई और सुनील गावस्कर नए कप्तान बने. इंग्लैंड में हार (पांच टेस्ट मैचों की सीरीज में 1-2 से) के बाद भारतीय टीम की कमान कपिल देव को सौंप दी गई. फिर 1986-87 में पाकिस्तान में उसके खिलाफ जब पांच टेस्ट मैचों की सीरीज भारत 0-1 से हारा तो इस ऑल राउंडर और एक समय भारतीय टीम को विश्व कप जिताने की गौरवशाली उपलब्धि दिलाने वाले कपिल को भी कप्तानी छोड़नी पड़ी.
दिलीप वेंगसरकर को वेस्टइंडीज में 3-0 से परास्त होने के बाद कप्तानी गंवानी पड़ी, रवि शास्त्री ने भारत में खेले गए एक टेस्ट मैच में टीम का नेतृत्व किया और श्रीकांत ने 1989-90 में पाकिस्तान में चार टेस्ट मैचों की सीरीज में टीम की कप्तानी की जो बराबरी पर छूटी. उसके बाद अजहरुद्दीन टीम के कप्तान बने. तब से लेकर धोनी के कप्तान बनने तक टीम का नेतृत्व छह लोगों के हाथ में गया. एक के बाद एक सीरीजों में हार की बात करें तो धोनी का रिकॉर्ड किसी भी अन्य कप्तान की तुलना में खराब रहा है.
लेकिन हालात हमेशा इतने बुरे नहीं थे. धोनी की कप्तानी में हमने वर्ष 2007 में टी-20 विश्व कप और 2011 में एकदिवसीय क्रिकेट का विश्व कप जीता. लेकिन वह समय ऐसा था जब धोनी के अंदर निरंतर नए प्रयोग करने की इच्छा नजर आती थी. यह यकीन करना थोड़ा मुश्किल है कि वही धोनी टेस्ट मैचों में इतने रक्षात्मक हो गए हैं. कई लोगों का कहना है कि वे अक्सर चीजों को केवल और केवल अपने तरीके से अंजाम देना चाहते हैं.
याद कीजिए किस तरह उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ टी-20 विश्व कप के फाइनल में लगभग अनजाने खिलाड़ी जोगिंदर सिंह को गेंदबाजी का जिम्मा सौंपा था! या फिर श्रीलंका के खिलाफ एकदिवसीय विश्व कप फाइनल में खुद को बैटिंग ऑर्डर में ऊपर लाकर मैच को अंजाम तक पहुंचाया था! यह एक प्रेरक नेतृत्वकर्ता का प्रदर्शन था. यहां तक कि वर्ष 2010-11 में दक्षिण अफ्रीका और फिर वेस्ट इंडीज में भी टेस्ट मैचों में भी उनको ठीक-ठाक सफलता हासिल हुई थी.
लेकिन दिसंबर, 2011 के बाद से अचानक हमें एक नए धोनी का दीदार होने लगा. खेल के लंबे प्रारूप यानी टेस्ट मैचों में सफलता उनसे दूर होने लगी. इस दौरान सहवाग, गौतम गंभीर और वीवीएस लक्ष्मण जैसे दिग्गज खिलाड़ी जिनमें कप्तान बनने की काबिलियत थी, टीम से बाहर कर दिए गए. ऐसी चर्चाएं सामने आने लगीं कि गांगुली, द्रविड़ और यहां तक कि लक्ष्मण भी और खेलना चाहते थे लेकिन धोनी की कप्तानी में उन्हें ऐसा करना कठिन प्रतीत हुआ. लक्ष्मण ने तो खुलकर कहा कि जब वे अपने भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करना चाह रहे थे तब उनका कप्तान उपलब्ध ही नहीं था.
लेकिन इसके बावजूद धोनी अपनी जगह पर बने रहे. एक साल पहले तक कहा जाता था कि वरिष्ठ खिलाड़ियों के एक समूह की विदाई के बाद धोनी का कोई विकल्प नहीं है. लेकिन अब विराट कोहली के रूप में एक विकल्प हमारे सामने है. विराट बारे में कहा जा सकता है कि वे महेंद्र सिंह धोनी के संरक्षण में पनपे हैं. उसी समय से धोनी की नई टीम (कुछ लोग इसे धोनी के लड़के भी कहते हैं) का दबदबा है. कोहली के शानदार प्रदर्शन को छोड़ दिया जाए तो टीम में ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिनको एक के बाद एक विफलताओं के बावजूद लगातार मौके दिए गए. जबकि उनके वरिष्ठ खिलाड़ियों को ऐसे अवसर नहीं मिल सके थे. यह कुछ ऐसा मामला था मानो धोनी उन वरिष्ठ खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाना चाहते थे और बोर्ड तथा चयनकर्ताओं ने इसे सुनिश्चित किया.
मैदान पर भी धोनी छोटे प्रारूप में ही नियंत्रण में नजर आते हैं. टेस्ट मैचों में जैसा कि इयान चैपल ने लिखा भी है, धोनी बहुत अधिक वक्त लेते हैं और खेल को बहक जाने देते हैं. उनकी कोशिश रहती है कि सामने वाले की गलती का इंतजार करें. विशेषज्ञ याद दिलाते हैं कि वेस्टइंडीज में उन्होंने नई गेंद लेने का मौका होने के बावजूद काफी देर तक ऐसा नहीं किया और अभी हाल ही में न्यूजीलैंड में उन्होंने आक्रामक रुख न अपनाकर ब्रेंडन मैककुलम और बीजे वाल्टिंग के बीच एक मैचजिताऊ साझेदारी हो जाने दी.
अपने प्रिय खिलाड़ियों से इतर किसी और पर ध्यान न देने की उनकी प्रवृत्ति के चलते ही भारतीय क्रिकेट की यह दशा हुई है. उदाहरण के लिए सुरेश रैना ने 17 टेस्ट खेले हैं (सभी मार्च, 2013 के पहले). उन्हें एस बद्रीनाथ और मनोज तिवारी पर तवज्जो दी गई जबकि इन दोनों खिलाड़ियों ने घरेलू क्रिकेट में काफी अच्छा प्रदर्शन किया था. गेंदबाजी की बात करें तो स्पिनरों के चयन में रविचंद्रन अश्विन को हमेशा प्राथमिकता दी गई. यहां तक कि प्रज्ञान ओझा और अमित मिश्रा जैसे मंझे हुए स्पिन गेंदबाजों की जगह रविंद्र जडेजा को तवज्जो दी गई. उमेश यादव, वरुण एरॉन और अभी हाल ही में ईश्वर पांडेय जैसे गेंदबाजों को हाशिये पर डाल दिया गया. यह सूची और लंबी हो सकती है. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि धोनी के ‘लड़कों’ को प्राथमिकता दी गई. एक बात यह है कि इनमें से कई चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाड़ी थे. रोहित शर्मा जैसे कुछ खिलाड़ियों को भी जरूरत से बहुत अधिक मौके दिए गए.
लेकिन अब हार का सिलसिला शुरू होने के बाद क्या धोनी का आकलन उन्हीं पैमानों पर नहीं होना चाहिए जिन पर उनके पूर्ववर्तियों का किया गया? यह कोई रहस्य नहीं है कि चेन्नई सुपरकिंग्स (वह टीम जिसमें बीसीसीआई के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन की अच्छी-खासी हिस्सेदारी है) के कप्तान के रूप में उनकी स्थिति ने उनकी मदद की है. जो बातें अब तक केवल फुसफुसाहट थीं वे अब तेज हो गई हैं: भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान का आईपीएल की एक टीम का कप्तान होना उसकी मार्केटिंग के लिए बढि़या है और जब बीसीसीआई प्रमुख ही उस टीम का मालिक हो तो फिर कहना ही क्या. ऐसे में हितों के टकराव को एक पल के लिए किनारे किया जा सकता है.
अब जबकि धोनी एक बार फिर चोटिल हैं तो कप्तानी का भार कोहली को सौंपा गया है. अनेक लोग उनके बारे में कह रहे हैं कि वे वर्तमान कप्तान के सही उत्तराधिकारी हैं. कोहली की शुरुआत भी ठीक ही रही है. एशिया कप में बांग्लादेश की धीमी पिच पर उन्होंने पहले ही मैच में मेजबान टीम के खिलाफ न केवल शतक जड़ा बल्कि टीम को जीत भी दिलाई. हालांकि श्रीलंका और पाकिस्तान के साथ टीम को नजदीकी मुकाबलों में हार का स्वाद चखना पड़ा. लेकिन इस बार की उम्मीद बहुत ज्यादा है कि भविष्य में थोड़े और अच्छे प्रदर्शन से वे चयनकर्ताओं को अपनी ओर कर सकते हैं. पर सवाल अब भी यह है: क्या बोर्ड देश के खेल जगत में मार्केटिंग के लिहाज से सबसे सफल खिलाड़ी का स्थानापन्न तलाश कर सकेगा? या उसने कर लिया है?