नई दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में जारी उठापटक, खासकर संसद सदस्यों द्वारा सदन की मर्यादा लांघने और सारे नियमों को ताक पर रखकर उसे ठप करने की कोशिशों ने एक बार फिर से संसदीय व्यवस्था से जुड़ी बहस को जिंदा कर दिया है – क्या ब्रिटेन से उधार लिए हुए हमारे संसदीय तंत्र की उपयोगिता हमारे लिए खत्म हो चुकी है?
पिछले कुछ समय के दौरान इस तर्क के पक्ष में कुछ बातें स्पष्ट दिखाई दी हैं: हमारी वर्तमान संसदीय प्रणाली ने हमें ऐसे सांसद और विधायक दिए हैं जिनमें से ज्यादातर कानून बनाने की योग्यता ही नहीं रखते. वे चुनाव या तो प्रशासनिक शक्तियों या उन्हें प्रभावित करने की क्षमता पाने के लिए लड़ते हैं. इस प्रणाली ने ऐसी सरकारों को बनवाया है जो नीतियों और अपने काम काज से ज्यादा राजनीति को तरजीह देती हैं. मतदाताओं की प्राथमिकताएं भी इससे बिगड़ी हैं. आज वे चुनाव के दौरान नीतियों की बजाय व्यक्ति विशेष को वरीयता देते हैं. इस प्रणाली ने ऐसे राजनीतिक दलों को जन्म दिया है जो विचारधारा और सिद्धांतों की बजाय निजी हितों के आधार पर एक से दूसरे गठबंधन में आते-जाते रहते हैं. इससे सरकारों को शासन की बजाय सत्ता बनाए रखने पर ज्यादा ध्यान देना पड़ता है. उसे ऐसी नीतियां बनानी पड़ती हैं जो गठबंधन में सभी को स्वीकार्य हों.
हर बार जब नारेबाजी से संसद ठप होती है तो नए चुनाव करवाने या इनसे बचने की बातें उठती हैं. लेकिन अगर इसमें होने वाले बहुत बड़े खर्चे को अलग रख भी दें तो भी ऐसा करने से क्या होने वाला है! क्या नए चुनावों से कोई चमत्कारी परिणाम की उम्मीद की जा सकती है? क्या हमें ऐसा महसूस नहीं होता कि समस्या खुद हमारी शासन प्रणाली में है?
भारत की कई समस्याओं के समाधान के लिए आज हमें एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है जो निर्णायक तरीके से काम करने की छूट देती हो. हमें ऐसी सरकार की जरूरत है जिसके नेता सत्ता में बने रहने की बजाय शासन करने पर ध्यान दें. हमारी संसदीय प्रणाली शुरुआत से ही भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थी और यही हमारी सबसे बड़ी राजनीतिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार भी है. इस मसले पर मैंने जितने भी राजनेताओं से चर्चा की उनमें से शायद ही कोई इस पर विचार तक करने को तैयार हुआ हो. असल में वे जानते हैं कि वर्तमान प्रणाली में कैसे काम करना है, इसलिए वे इसमें कोई बदलाव नहीं लाना चाहते.
जब किसी विधेयक को मतदान के लिए सदन में पेश किया जाता है तो उसके पक्ष में समर्थन व्यक्त करने के लिए आज भी सांसद सामूहिक रूप से ‘आय’ कहते हैं, न कि ‘यस’ या ‘हां’
भारत में ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली अपनाए जाने की वजहें हमारे इतिहास में छिपी हैं. दो शताब्दी पहले की अमेरिकी क्रांति की तरह ही भारतीय राष्ट्रवादियों का संघर्ष भी ‘ब्रिटेन के नागरिकों जैसे अधिकार ‘ हासिल करने के लिए था. उनकी सोच थी कि अंग्रेजी सदनों जैसी व्यवस्था से ऐसा हो जाएगा. जब ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने ब्रितानी संविधान आयोग के सदस्य के तौर पर हमारे नेताओं को अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने का सुझाव दिया तो उनका कहना था, ‘मुझे लगा कि वे सोच रहे थे मैं उन्हें शुद्ध घी की जगह वनस्पति घी का प्रस्ताव दे रहा हूं.’ हमारे कई बुजुर्ग संसद सदस्य – जिनमें से कइयों की शिक्षा ब्रिटेन में हुई थी और जो वहां की संसदीय प्रणाली के प्रशंसक थे – ब्रिटेन की संसदीय परंपराओं के पालन में गर्व महसूस करते थे. हमारे यहां आज भी सांसद किसी प्रस्ताव का अनुमोदन ताली बजाकर नहीं बल्कि ब्रितानी संसद की तरह अपनी मेजें थपथपा कर करते हैं. जब किसी विधेयक को मतदान के लिए सदन में पेश किया जाता है तो उसके पक्ष में समर्थन व्यक्त करने के लिए आज भी सांसद सामूहिक रूप से ‘आय’ कहते हैं, न कि ‘यस’ या ‘हिंदी में हां’.
हालांकि पिछले छह दशकों में कुछ बड़े बदलाव भी आए हैं. ब्रिटेन की संसदीय परंपराओं का असर जहां कम हुआ है वहीं कुछ उल्टी-पुल्टी नितांत भारतीय आदतें यहां हावी हुई हैं. हमारी कुछ विधानसभाओं में तो विधायकों द्वारा फर्नीचर व माइक्रोफोनों की तोड़-फोड़ और एक-दूसरे पर चप्पल फेंकने की घटनाएं तक हो चुकी हैं. अभी तक संसद इनसे बची हुई है, यहां सभी नये सदस्यों को आचार संहिता के बारे में बताया जाता है. लेकिन वे इसका नियमित रूप से उल्लंघन करते हैं और यह उनके लिए नियमों के पालन से ज्यादा सम्मान की बात बन चुकी है. अजीब बात है कि वे खुद जमकर नियमों को तोड़ते हैं जबकि उन्हें चुना ही इनका पालन सुनिश्चित करने के लिए जाता है.
भारतीय जनतंत्र के इतिहास में ऐसा भी समय रहा है जब सदन की मर्यादा का उल्लंघन करने पर बेहद कड़ाई से पेश आया जाता था. समाचारपत्रों में दिलचस्पी रखने वाले मेरी पीढ़ी के लोगों को आज भी वह घटना याद होगी जब पूर्व पहलवान और समाजवादी सांसद राज नारायण को चार मार्शलों ने उठाकर सदन के बाहर कर दिया था. राजनारायण अपनी बारी से पहले बोलने की कोशिश कर रहे थे और लोकसभा अध्यक्ष के रोकने के बावजूद अपनी सीट पर नहीं बैठ रहे थे. बाद में किसी सांसद को बाहर निकालने की बजाय सदन को स्थगित करने को तरजीह दी जाने लगी. पिछले साल राज्यसभा के सभापति के आगे आकर प्रदर्शन करने, उनका माइक्रोफोन खींचने और पेपर फाड़ने पर पांच सांसदों को सदन से निलंबित कर दिया गया था. बाद में कुछ महीनों बाद हल्की-फुलकी क्षमा-याचना के बाद उनकी सदस्यता बहाल कर दी गई.
सांसदों के अमर्यादित व्यवहार के अलावा भी संसदीय प्रणाली की आलोचना करने की कई बुनियादी वजहें हैं. यह प्रणाली मूल रूप से ब्रिटेन में विकसित हुई है जहां पहले प्रति सांसद मात्र कुछ हजार मतदाता हुआ करते थे. आज भी वहां एक चुनाव क्षेत्र में एक लाख से कम मतदाता हैं. इस प्रणाली में वहां की परिस्थितियों को ध्यान में रखा गया है जबकि भारतीय परिस्थितियां इससे बिलकुल भिन्न हैं. इस प्रणाली में ऐसे राजनीतिक दलों की जरूरत है जिनकी अपनी-अपनी स्पष्ट विचारधाराएं, नीतियां और प्राथमिकताएं हों जिनके आधार पर उन्हें एक-दूसरे से अलग पहचाना जा सके. इसके उलट भारत में राजनीतिक दलों में शामिल होना और उन्हें छोड़ना ऐसा है जैसे फिल्मी कलाकार अपने कपड़े बदलते हैं. हमारे यहां मुख्य पार्टियां चाहे वे ‘राष्ट्रीय’ हों या क्षेत्रीय, सभी की विचारधाराएं अस्पष्ट हैं . हर पार्टी किसी न किसी रूप में उसी मध्यमार्गी लोकप्रिय विचारधारा पर चलती है जो कमोबेश पंडित नेहरू के समाजवाद पर आधारित है. हमारे यहां चुनाव आयोग ने 44 पंजीकृत दलों को मान्यता दी है और 903 पंजीकृत मगर गैरमान्यताप्राप्त दल हैं. इनमें आदर्श लोकदल से लेकर भारतीय राष्ट्रीय महिलावादी दल तक शामिल हैं. भाजपा और वामपंथी दलों को छोड़ दें तो कांग्रेस से अलग सभी गंभीर राजनीतिक दल या तो चुनावी गणित की उपज हैं या क्षेत्रीय पहचान की. इनकी कोई अलग स्पष्ट राजनीतिक सोच नहीं है.
जनता उस व्यक्ति को सीधे वोट नहीं देती जिसे वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. वह उस प्रत्याशी को वोट देती है जिसकी जीत से उसकी पसंद का नेता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बन सकता है
कुछ अपवादों को अगर छोड़ दें तो भारत के अधिकांश दल समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, मिश्रित अर्थव्यवस्था और गुट निरपेक्षता जैसे नारों से ही खुद को परिभाषित करते आए हैं. इसी कारण से वामदलों को यूपीए के पहले कार्यकाल में उसका समर्थन करने में कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. कथित बुर्जुआ साथियों द्वारा बनाए गए न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर दस्तखत करने में उन्हें किसी वैचारिक संकट का सामना नहीं करना पड़ा.
भाजपा को इस मामले में एक अपवाद के तौर पर देखा जाता था. लेकिन अगर राष्ट्रीय पहचान जैसे भावनात्मक मुद्दों को छोड़ दें तो भाजपा भी अपने राजनीतिक आधार के विस्तार को ध्यान में रखते हुए अन्य पार्टियों जैसा ही व्यवहार कर रही है.
हमारे राजनीतिक दल किसी विचारधारा में गुंथे और किसी राजनीतिक सिद्धांत से बहुत बंधे हुए नहीं दिखते. यही कारण है कि अपनी पार्टी बदलने या फिर अपनी पार्टी का किसी दूसरी में विलय करते वक्त उन्हें कोई वैचारिक बाधा महसूस नहीं होती. हमारे यहां जब कोई नेता अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाता है या फिर अपनी अलग पार्टी बनाता है तो हमें कोई खास हैरानी नहीं होती. जबकि यही घटना अगर दुनिया के किसी दूसरे संसदीय लोकतंत्र में घटित हो तो वहां की राजनीतिक व्यवस्था में हलचल मच सकती है. (अगर मुझे ठीक याद है तो उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता ने पिछले कुछ दशकों में नौ बार पार्टियां बदली हैं. लेकिन उनके मतदाता हमेशा उनके साथ रहे. उनके लिए हमेशा उनका नेता प्रमुख रहा न कि वह दल जिसमें वे गए थे.)
एक उचित पार्टी व्यवस्था के अभाव में मतदाता अपना मत देते समय दो दलों के बीच चयन नहीं करता कि उसे इनमें से किसे वोट देना है. वह प्रत्याशी का चयन करता है. उसकी जाति, छवि तथा अन्य व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर वोटर अपना मत देता है. यहां प्रत्याशी महत्वपूर्ण है पार्टी नहीं. लेकिन चूंकि चयनित प्रत्याशी उस बहुमत का एक हिस्सा है जिससे सरकार बनती है, ऐसे में पार्टी भी महत्वपूर्ण हो जाती है. मतदाता से कहा जाता है कि अगर वह इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री या फिर एमजीआर या एनटीआर को मुख्यमंत्री बनाना चाहता है तो वह उस प्रत्याशी को वोट दे जो इन नेताओं की पार्टियों से चुनाव लड़ रहा है. यानी जनता उस व्यक्ति को सीधे वोट नहीं देती जिसे वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. वह उस प्रत्याशी को वोट देती है जिसकी जीत से उसकी पसंद का नेता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बन सकता है. यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसे सिर्फ ब्रिटिश ही तैयार कर सकते थे. जहां आप विधायिका को कानून बनाने के लिए नहीं बल्कि कार्यपालिका का निर्माण करने के लिए चुनते हैं.
छोटे एवं क्षेत्रीय दलों की अधिकता के कारण आज हमारी केंद्र सरकार में दर्जन भर राजनीतिक दल शामिल हैं. इनमें से कइयों के पास केवल मुट्ठीभर ही सांसद हैं. 1989 में राजीव गांधी की हार के बाद से अब तक संसद में किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिल सका है. हाल ही में खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के मामले पर और तीन साल पहले भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के समय यह देखा गया कि किस तरह वर्तमान व्यवस्था में गठबंधन के सहयोगी दल जब चाहें तब सरकार की बांह मरोड़ सकते है. वर्तमान व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है कि इसमें गठबंधन में शामिल हर दल को साथ लेकर चलना ही चलना है. इसमें किसी निर्णायक कार्रवाई की गुंजाइश लगभग ना के बराबर है.
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा में जिस तरह की गिरावट आई है और जनता के मानस में राजनेताओं को लेकर जिस तरह का पूर्वाग्रह पनपा है उसकी जड़ें सीधे तौर पर संसदीय व्यवस्था की कार्यप्रणाली से भी जुड़ी हैं. जब कार्यपालिका अपने हिसाब से काम न कर सके और उसे गठबंधन के विभिन्न दलों के एजेंडों से बांध दिया जाए तब सरकार का अस्थिर होना स्वाभाविक ही है. गंभीर आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों से जूझने वाला भारत इस अस्थिरता को कैसे स्वीकार कर सकता है.यह तथ्य कि सरकारी ओहदा पाने के लिए ही लोग संसद में प्रवेश करते हैं, चार बड़ी समस्याओं को जन्म देता है…
पहली समस्या यह कि कार्यपालिका के पद या कहें कि मंत्रिपद उन लोगों तक सीमित हो जाते हैं जो योग्य नहीं बल्कि चुनाव जीतने के योग्य हों. प्रधानमंत्री की स्थिति ऐसी है कि वे अपनी पसंद की कैबिनेट का चयन नहीं कर सकते. अपनी पसंद के व्यक्ति को मंत्री नहीं बना सकते. गठबंधन के कारण उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की इच्छाओं का ध्यान रखना पड़ता है. काबिलियत नहीं बल्कि राजनीतिक दबाव उनके फैसलों को तय करता है. हालांकि राज्यसभा से लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल करने का विकल्प उनके पास है, लेकिन वर्तमान में वहां भी पूर्णकालिक राजनेताओं की भरमार है. तो ऐसी हालत में प्रधानमंत्री के पास काबिल लोगों के ज्यादा विकल्प नहीं होते.
बुनियादी तौर पर संसदीय व्यवस्था भारतीय राजनीतिज्ञों को इसलिए पसंद है कि उन्हें इस व्यवस्था को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना आता है
दूसरी समस्या यह कि इससे नेताओं की खरीद-फरोख्त और दलबदल की घटनाओं में इजाफा होता है. दलबदल विरोधी अधिनियम 1985 के आने का कारण था कि कई राज्यों (1979 के बाद केंद्रीय स्तर पर भी) में पैसे और मंत्री के पद के लिए पाला बदलना एक आम बात हो गई थी. लेकिन आज अगर कोई नेता ऐसा करता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है. तो बदले माहौल में तरीका भी बदल गया है. अब व्यक्ति की जगह पूरी पार्टी ही पाला बदल लेती है. आज जो राजनीति के हालात हैं उसमें मैं यह सोचकर ही चिंतित हो जाता हूं कि तब क्या होगा जब अगले चुनाव में 30 राजनीतिक दल संसद में पहुंचते हैं और गुणा-भाग करते हैं कि किस गठबंधन में रहने पर उन्हें कितना फायदा होगा. तो ऐसे में कितनी स्थायी और प्रभावी सरकार का गठन होगा?
तीसरी एक और बड़ी गंभीर समस्या विधायी कार्यों के प्रभावित होने की है. अधिकांश कानूनों का ड्राफ्ट कार्यपालिका द्वारा तैयार किया जाता है जो व्यावहारिक तौर पर नौकरशाही तैयार करती है. इसमें संसदीय दखल बहुत कम होता है. और आज स्थिति यह है कि पांच मिनट की बहस के बाद ही विधेयक पारित हो जाते हैं. सत्तारूढ. गढबंधन बिना नागा अपने सदस्यों को पार्टी व्हिप जारी करता है जिससे कि बिना किसी अवरोध के बिल पास किया जा सके. चूंकि व्हिप का उल्लंघन करने पर अयोग्य ठहराए जाने का खतरा है, इसलिए सांसद वहीं वोट करते हैं जहां उनकी पार्टी चाहती है. संसदीय व्यवस्था कार्यपालिका से अलग जाने वाली विधायिका के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती जो पूरी स्वतंत्रता के साथ देश के लिए कानून बनाने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा सके.
चौथी, गौर करने लायक बात यह है कि जो दल सरकार में शामिल नहीं हो पाते और जिन्हें पता है कि संसद में ज्यादातर मतदानों आदि का क्या नतीजा निकलना है, उनके लिए संसद किसी गंभीर और जरूरी विषय पर विचार करने की जगह नहीं है. वे संसद को अपनी ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. इस वजह से आम तौर पर पवित्र समझा जाने वाला सदन का गर्भ गृह नारेबाजी के मंच में तब्दील हो जाता है. बेलगाम सांसदों की भीड़ तब तक गर्भ-गृह में तख्तियां लहराती है और तेज आवाज़ में नारेबाजी करती है, जब तक थक-हार कर स्पीकर सदन को स्थगित न कर दे. भारतीय संसद के ज्यादातर विपक्षी सदस्यों का हमेशा से यह मानना रहा है कि अपनी भावनाओं की तीव्रता को दर्शाने का सबसे अचूक तरीका किसी कानून के बनने की प्रक्रिया को ही बाधित कर देना है, न कि उस कानून पर वाद-विवाद करना. पिछले साल, संसद का एक पूरा सत्र ऐसी ही नारेबाजियों की भेंट चढ़ गया था. इस साल के शीतकालीन सत्र के दौरान यह सिलसिला लगभग दो हफ़्तों तक बदस्तूर जारी रहा.
वर्तमान व्यवस्था के पैरोकारों का तर्क है कि इस व्यवस्था ने भारत के राजनीतिक भाग्य को तय करने में हर भारतीय की हिस्सेदारी को सुनिश्चित किया है. साथ ही देश को एक सूत्र में पिरोए रखने में भी भूमिका निभाई है. पर असल में तो यह लोकतंत्र ने किया है, संसद ने नहीं. किसी भी प्रकार की असली लोकतांत्रिक व्यवस्था यही करती. आम लोगों की बहुतायत में भागीदारी और चुनावों के बीच जवाबदेही असली लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी तत्व हैं. पर भारत जिस बिंदु पर दूसरे लोकतांत्रिक देशों से पिछड़ता है वह है, प्रभावी प्रदर्शन.
अमेरिका या फ्रांस की राष्ट्रपति शासन प्रणाली की खूबियों के समर्थन के लिए वर्तमान से बेहतर समय नहीं हो सकता. सरसरी निगाह से देखें तो राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली विधायिका का फ्रांसीसी मॉडल हमें ज्यादा आकर्षक लग सकता है. अगर इस मॉडल में राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच के शक्ति संतुलन को उलट दिया जाए, तो यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था से काफी मिलता-जुलता है. ब्रितानी लोकतांत्रिक व्यवस्था को त्यागने के बाद श्रीलंका ने भी इसी मॉडल को अपनाया था. पर भारत की कई दलों में बुरी तरह से बंटी हुई राजनीति पर ध्यान दें तो वह इस तरह के राष्ट्रपति को पूरी तरह से पंगु बनाने की क्षमता रखती है. इसलिए शासन के अमेरिकी या लैटिन अमेरिकी मॉडल हमारे लिए ज्यादा उपयुक्त हैं जिनमें एक ही व्यक्ति सरकार और राष्ट्र,दोनों का मुखिया होता है. ये दोनों मॉडल विधायी कार्यों को कार्यपालिका के कार्यों से अलग रखते हैं. और सबसे महत्वपूर्ण, कार्यपालिका और उसके अस्तित्व की विधायिका पर निर्भरता को समाप्त कर देते हैं. इससे फायदा यह होगा कि दिल्ली में बैठा एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी गठबंधन की रंग बदलती राजनीति पर निर्भर हुए बिना, स्थायित्व के साथ अपना काम कर पाएगा. उसका एक निश्चित कार्यकाल होगा और वह अपने मन के मुताबिक काबिल अधिकारियों की एक टीम खड़ी कर पाएगा. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वह और उसके साथी सिर्फ सरकार बचाने की बजाय अपनी पूरी शक्ति देश को बेहतर तरीके से शासित करने में लगा पाएंगे. भारतीय मतदाता सीधे उसी व्यक्ति को वोट देगा जिसके द्वारा वह शासित होना चाहता है. और राष्ट्रपति सही अर्थों में पूरे देश की आवाज बन सकेगा. इसके पांच साल बाद, जनता अपने जन प्रतिनिधियों का मूल्यांकन बेहतर प्रशासन के मापदंडों पर कर पाएगी.तो फिर, अध्यक्षीय शासन प्रणाली के सभी तर्कों को हमारे देश का राजनीतिक वर्ग सिरे से ख़ारिज क्यों कर देता है?
बुनियादी तौर पर संसदीय व्यवस्था को लेकर भारतीय राजनीतिज्ञों के आग्रह की वजह इस व्यवस्था का उनके लिए सुविधाजनक होना है. वे सभी इससे भलीभांति परिचित हैं और उन्हें इस व्यवस्था को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना आता है.
कुछ लोगों की तरफ से यह तर्क भी दिया जाता है कि राष्ट्रपति प्रणाली के साथ तानाशाही का खतरा जुड़ा रहता है. वे इसमें एक अभिमानी राष्ट्रपति की छवि गढ़ते हैं जिसे हार-जीत की चिंता नहीं होती और जो जनता की राय का खयाल किए बिना हुक्म देकर देश चलाता है. आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के कुछ नजदीकी लोगों ने संसदीय लोकतंत्र के स्थान पर अध्यक्षीय प्रणाली स्थापित करने का प्रयास किया था जिसकी वजह से भी यह व्यवस्था लोकतंत्र में आस्था रखने वाले कई भारतीयों की नजर में भरोसेमंद नहीं रही. लेकिन आपातकाल स्वयं इस भय का सबसे अच्छा जवाब है. यह दिखाता है कि संसदीय व्यवस्था को भी तो निरंकुश शासन में तब्दील किया जा सकता है.
राष्ट्रपति को सर्वशक्तिमान होने से बचाने के लिए राज्यों में भी प्रत्यक्ष रूप से एक मुख्यमंत्री या राज्यपाल चुना जाना चाहिए. ऐसा करना भारत जैसे बड़े देश के सही मायनों में विकेंद्रीकरण के लिए भी जरूरी है. और फिर राज्य भी उन्हीं समस्याओं से ही तो जूझ रहे हैं जो हमारी केंद्रीय व्यवस्था में हैं. जो लोग अध्यक्षीय व्यवस्था को तानाशाही के भय से खारिज करते हैं उन्हे इस बात के जरिए संतुष्ट किया जा सकता है कि राष्ट्रप्रमुख की शक्तियां राज्यों के सीधे चुने गए मुख्यमंत्रियों के होने पर संतुलित रहेंगी.
हमें मजबूत कार्यपालिका की जरूरत सिर्फ केंद्र या राज्यों में ही नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर भी है. यहां तक कि चीन जैसा साम्यवादी देश भी अपने स्थानीय निकायों को मजबूत करने के लिए उन्हें समुचित शक्तियां देता है. वहां अगर शहर में एक कारखाना लगाने के लिए किसी व्यवसायी और महापौर के बीच सहमति बन जाती है तो उसे इसके लिए ज़रूरी हर चीज – अनुमति, जमीन, पानी और करों में रियायत आदि अपने आप मिल जाती हैं. जबकि हमारे यहां महापौर एक कमेटी के चेयरमैन से कुछ ही ज्यादा हैसियत वाला लगता है. वास्तविक स्वशासन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए हमें प्रत्यक्ष तौर पर चुने गए महापौरों, पंचायत अध्यक्षों और जिला अध्यक्षों की ज़रूरत है जिनके पास वास्तविक अधिकार और संसाधन हों ताकि वे अपने इलाकों में बेहतर प्रदर्शन कर सकें.
वर्तमान व्यवस्था के पैरोकारों को लगता है कि यह भारतीय लोगों की विविधता का प्रतिनिधित्व करने और सभी को साथ लेकर चलने के लिहाज से बेहतरीन है. ऐसा राष्ट्रपति प्रणाली में संभव नहीं. लेकिन राष्ट्रपति को भी एक निर्वाचित विधायिका के साथ काम करना होगा जो आज की तरह ही तब भी देश की विविधता का प्रतिनिधित्व करेगी. और कोई भी राष्ट्रपति, जिसकी लोकतंत्र में जरा भी निष्ठा होगी, ऐसे मंत्रिमंडल का गठन करेगा जिसमें भारत की विविधता झलकती हो. जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा था कि मेरा मंत्रिमंडल अमेरिका जैसा दिखना चाहिए.
लोकतंत्र भारत के भविष्य के लिए बहुत जरूरी है. हमारी विविधता जो हम हैं उसका मूल है. लोकतंत्र अपने आप में ही एक उद्देश्य है और हमें इस पर गर्व भी है. लेकिन बहुत कम भारतीय ऐसे होंगे जिन्हें उस राजनीति पर गर्व होगा जिसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने हम पर थोप दिया है. राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने दुनिया की 1/6 आबादी को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने की चुनौती को देखते हुए हमें एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जरूरत है जिससे प्रगति का लाभ आम आदमी तक पहुंच सके. संसदीय व्यवस्था का अध्यक्षीय प्रणाली में परिवर्तन इस उद्देश्य को पाने का सबसे बढ़िया उपाय है.
मौजूदा संसदीय व्यवस्था में हम लोग उत्तरोत्तर इसी संकीर्णता में बंधते जा रहे हैं. भारतीय की अपेक्षा मुसलमान, बोडो, यादव होना यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है
कुछ लोग यह प्रश्न करते हैं कि क्या यह भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है. बाबा साहब ने संविधान सभा में यह कहा था कि संविधान निर्माताओं ने यह महसूस किया था कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली ‘जिम्मेदारी’ को ‘स्थिरता’ से ऊपर रखती है. जबकि राष्ट्रपति शासन इसका ठीक उलटा करता है. इससे प्रशासन की कार्यकुशलता और उसका प्रदर्शन बेहतर हो जाते हैं. तो आज जब हमारी वर्तमान व्यवस्था ने कथित तौर पर हमें एकता के सूत्र में मजबूती से बांधा हुआ है, क्या कार्यकुशलता और प्रदर्शन को हमारी व्यवस्था का पैमाना बनाए जाने की जरूरत है? मेरा जवाब है, हां! आजादी के साढ़े छह दशकों के बाद अब हम अपने लोकतंत्र और एकता को लेकर थोड़े निश्चित हो सकते हैं और अपने लोगों के लिए कुछ करने की दिशा में अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं.
कुछ लोग यह प्रश्न करते हैं कि उस स्थिति में क्या होगा यदि राष्ट्राध्यक्ष और विधायिका में एक-दूसरे के विरोधी लोग चुने जाएंगे? क्या इससे हमारी व्यवस्था की कुशलता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा? हां पड़ेगा जैसा, कि अभी हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हुआ है. लेकिन आज हम गठबंधनों के दौर में रह रहे हैं जहां राष्ट्रपति के अलावा किसी एक दल को सदन में भारी बहुमत मिल जाए और वह राष्ट्रपति के काम में बाधा खड़ी करे इसकी संभावना बहुत क्षीण प्रतीत होती है. यदि ऐसी स्थिति आती भी है तो वह नेतृत्व की अग्निपरीक्षा होगी. और इसमें हानि ही क्या है?
राष्ट्रपति को चुनने के लिए आखिरकार कौन-सी पद्धति अपनाई जाएगी. हमें स्वीकार करना होगा कि हमारे देश में चुनाव प्रक्रिया कभी सीधी-सपाट नहीं रही है. भारतीय राजनीति को अमेरिकी राजनीति की तर्ज पर दो दलीय व्यवस्था बनने में एक लंबा समय लगेगा. आज देश की राजनीति जिस तरह से तमाम राजनीतिक दलों में बंटी हुई है उसके चलते मैं राष्ट्रपति के चुनाव के लिए फ्रांसीसी चुनावी पद्धति को चुनूंगा.
फ्रांस की तरह ही हमें मतदान के दो चरण होंगे. पहले चरण में हर उम्मीदवार के नामांकन की योग्यता का पैमाना यह होगा कि उसके नामांकन पत्र पर कम से कम दस सांसदों या बीस विधायकों या फिर दोनों के दस्तखत होंगे. अगर ऐसा चमत्कार हो जाए कि पहले ही चरण में किसी उम्मीदवार को पचास प्रतिशत से ज्यादा मत मिल जाएं तो उसे राष्ट्रपति पद के लिए विजेता घोषित कर दिया जाएगा. लेकिन यह लगभग असंभव चीज है. इंदिरा गांधी को अपनी लोकप्रियता के चरम पर भी अधिकतम 47 फीसदी वोट ही मिले थे. ऐसा न होने पर पहले चरण में सर्वाधिक वोट पाने वाले शीर्ष दो उम्मीदवार दूसरे चरण के मतदान में राष्ट्रपति पद के लिए सीधा मुकाबला करेंगे. पहले चरण में बाहर हुए बाकी उम्मीदवार इनमें से किसी को भी अपना समर्थन दे सकते हैं. हमारे राजनेताओं का जो चरित्र है उस लिहाज से हो सकता है कि इस दौरान खूब लेन-देन और और कसमें -वादे किए जाएं, लेकिन अंत में जो व्यक्ति राष्ट्रपति चुना जाएगा उसके पक्ष में देश के मतदाताओं का असली बहुमत होगा.
क्या इस तरह की व्यवस्था में अधिकतम जनसंख्या वाले राज्यों को शर्तिया फायदा नहीं मिलेगा? मणिपुर या लक्षद्वीप जैसे छोटे राज्य कभी देश के बहुमत का नेता बन पाएंगे? किसी मुसलिम या दलित के राष्ट्रपति बनने की संभावना है क्या इसमें? ये कुछ वाजिब से सवाल हैं जिनका जवाब यह है कि मौजूदा व्यवस्था में इनकी जो दशा है नई व्यवस्था में उनके साथ उससे ज्यादा बुरा या अच्छा नहीं होने वाला. भारत के ग्यारह में से सात प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश के रहे हैं. शायद राष्ट्रपति प्रणाली में भी उत्तर प्रदेश का यही वर्चस्व देखने को मिले. मगर इससे क्या फर्क पड़ता है? ज्यादातर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बहुमत का ही बोलबाला होता है. 1789 से 2008 तक सभी अमेरिकी राष्ट्रपति गोरे ईसाई ही रहे और एक को छोड़कर सारे प्रोटेस्टेंट थे. इसी तरह अब तक सिर्फ वेल्स का निवासी ही ग्रेट ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बन सका है. लेकिन ओबामा की विजय ने यह बात साबित कर दी है कि बहुमत भी अपना नेता योग्यता के आधार पर चुन सकता है.
मैं पूरे यकीन से कह सकता हूं कि इस तरह से जो भी व्यक्ति राष्ट्रपति की दौड़ में शामिल होगा भले ही वह उत्तर प्रदेश का हो लेकिन उसे पूरे देश में अपनी पहचान और स्वीकार्यता सिद्ध करनी पड़ेगी. जबकि हमारी मौजूदा संसदीय व्यवस्था में जो व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता है उसे सिर्फ अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों के बीच ही खुद को साबित करना पड़ता है. इस तरह गठबंधन के जोड़-तोड़ से बने प्रधानमंत्री की बजाय सीधे जनता द्वारा चुने गए राष्ट्रपति की एक देशव्यापी छवि होगी. इसके साथ ही मैं अमेरिका के इलेक्टोरल कॉलेज वाले विचार को भी इसमें शामिल करना चाहूंगा ताकि हमारे कम जनसंख्या वाले राज्यों को राजनेता दरकिनार न कर सकें. विजेता को राज्यों के आधार पर भी बहुमत में आना अनिवार्य होगा, इससे अपने गढ़ में एकमुश्त वोट हासिल करना ही पर्याप्त नहीं होगा.
और फिर भारतीय मतदाताओं को बाकी दुनिया के लोगों से कम बुद्धिमान क्यों समझा जाए? 97 फीसदी अश्वेत आबादी वाले जमैका ने एक गोरे (एडवर्ड सीगा) को अपना प्रधानमंत्री चुना. केन्या के राष्ट्रपति डेनियल अरप मोई उस आदिवासी कबीले से आते हैं जो कुल आबादी का महज 11 फीसदी है. अर्जेंटीना ने दो बार यूरोप से संबंध रखने वाले कार्लोस सॉल मेनम को अपना नेता चुना. पेरू के पूर्व राष्ट्रपति अल्बर्टो फुजीमोरी जापान से ताल्लुक रखते हैं जिसकी आबादी पूरे देश में सिर्फ एक फीसदी है. कहने का अर्थ है कि अल्पसंख्यक समुदाय का योग्य व्यक्ति भी बहुसंख्यक तबके का विश्वास जीत सकता है.
राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने की हालत में हमारे नेताओं को अपने तौर-तरीकों में तत्काल बदलाव की जरूरत पड़ेगी. हमारे राजनेता लंबे समय से मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के लिए जाति, धर्म और क्षेत्र के संकीर्ण हथकंडे इस्तेमाल करते आए हैं. मौजूदा संसदीय व्यवस्था में हम लोग उत्तरोत्तर इसी संकीर्णता में बंधते जा रहे हैं. भारतीय की अपेक्षा मुसलमान, बोडो, यादव होना यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है. हमारी राजनीति ने ऐसे विमर्श चलाए हैं कि यहां असम सिर्फ असमियों के लिए है, झारखंड झारखंडियों के लिए, महाराष्ट्र सिर्फ महाराष्ट्रियों के लिए है. राष्ट्रपति प्रणाली उम्मीदवारों पर यह दबाव बनाएगी कि वे भारत और भारतीयों की बात करें. जो भी राजनेता इस देश का राष्ट्रपति बनना चाहेगा उसे अपने हर दायरे से बाहर जाकर अपनी स्वीकार्यता साबित करनी पड़ेगी. इसके अलावा राष्ट्रपति के पास गठबंधन की मजबूरियों जैसा कोई बहाना भी नहीं रहेगा. तब वह अपने कार्यकाल की उपलब्धियों और असफलताओं के लिए पूरी तरह से और सीधे तौर पर खुद जिम्मेदार होगा.
इसी बात में राष्ट्रपति प्रणाली की अच्छाइयां निहित हैं.