क्या भारत में बन रहे श्रीलंका जैसे हालात?

हर रोज़ बढ़ती महँगाई ने आम आदमी की कमर तोडक़र रख दी है। बढ़ती बेरोज़गारी के बीच लगातार बढ़ती महँगाई डबल चोट कर रही है। हालात यह हैं कि भारत में धीरे-धीरे श्रीलंका जैसे हालात बनते दिख रहे हैं। इस बात पर भारत के एक बड़े तब$के को भरोसा नहीं होगा। ख़ासतौर पर जो हिन्दू-मुस्लिम की अफीम खाकर अपनी ही मस्ती में हुड़दंग और बिना मतलब की बहसों में फँसे हैं उन्हें तो बिलकुल नहीं; क्योंकि उन्हें न तो अर्थ-व्यवस्था और महँगाई दर का ज्ञान है और न ही देश के हालात की चिन्ता। क्योंकि सबके सब बुलडोजर, मन्दिर-मस्जिद, शिवलिंग, हिन्दू-मुस्लिम और फ़िज़ूल की बहसों में उलझे हुए हैं। हर स्तर पर लूट मची हुई है और किसी को कोई चिन्ता नहीं है।

दु:ख इस बात का है कि भारत का युवा भटका हुआ है, बुद्धिजीवी वर्ग डर या टुकड़ों के दम पर ख़ामोश है। अफ़सरशाही के मुँह और दोनों हाथों में लड्डू है। पूँजीपतियों की तिजोरियों में ज़रूरत से ज़्यादा माल पहुँच रहा है। स्टार तबक़ा अपनी दुकान चला रहा है, चाहे वो फ़िल्मी स्टार हों, चाहे क्रिकेटर हों। राजनीतिक लोगों की तो कहने ही क्या। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में महज़ एक-दो फ़ीसदी को छोडक़र सब अपना-अपना फ़ायदा देख रहे हैं।

दरअसल पिछले महीने यानी अप्रैल में भारत में थोक महँगाई दर 15.8 फ़ीसदी पर रही, जो पिछले कई वर्षों का रिकॉर्ड उच्चतम स्तर है। इससे पहले मार्च के महीने में धोक महँगाई दर 14 .55 फ़ीसदी धी। जबकि महज़ एक साल पहले यानी अप्रैल, 2021 में थोक महँगाई दर 10.74 फ़ीसदी थी। यानी इस हिसाब से पिछले एक साल में थोक महँगाई दर क़रीब डेढ़ गुना बढ़ी है। इसके अलावा ईंधन व बिजली आदि की थोक महँगाई की दर बीती अप्रैल में 38.66 फ़ीसदी पर पहुँच गयी। मार्च में यह दर 34.52 फ़ीसदी थी। यह आँकड़े डिपार्टमेंट ऑफ प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटरनल ट्रेड (डीपीआईआईटी) के हैं।

अब अगर श्रीलंका के हालात और भारत के हालात में तुलना करें, तो सबसे पहले हमें श्रीलंका के हालात को समझना होगा कि आख़िर कैसे एक से डेढ़ महीने के अन्दर वहाँ के हालात इतने ज़्यादा ख़राब हो गये कि वहाँ की राजपक्षे सरकार को न सिर्फ़ इस्तीफ़ा देना पड़ा, बल्कि वहाँ के प्रधानमंत्री (अब पूर्व प्रधानमंत्री) महिंदा राजपक्षे को परिवार सहित देश छोडक़र भागने को मजबूर होना पड़ा। उन्हीं के बड़े भाई गोटबाया राजपक्षे वहाँ के राष्ट्रपति हैं, जिनके ख़िलाफ़ भी पूरे देश में ‘गोटा गो-गोटा गो’ के नारे लग रहे हैं। जनता राजपक्षे परिवार के समर्थकों को, कार्यकर्ताओं को, गोदी मीडिया को, सांसदों और मंत्रियों को पीटने में लगी है।

राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे जनता की पहुँच से इसलिए दूर हैं, क्योंकि वह कड़ी सुरक्षा में हैं और वहाँ की सरकार से ज़्यादा ताक़तवर हैं। जनता भुखमरी, कालाबाज़ारी और महँगाई से त्रस्त है। भारत यानी ख़ुद हमारे प्रधानमंत्री आगे बढक़र अलग-थलग मदों में 2.4 अरब डॉलर की मदद श्रीलंका को दे चुके हैं; लेकिन उसके ख़राब हालात के आगे यह रक़म काफ़ी कम है।

श्रीलंका के नये और औपचारिक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे भी कह चुके हैं कि देश के हालात बहुत ख़राब हैं, जिनसे निपटने में लम्बा वक़्त लगेगा। अगर श्रीलंका के क़रीब डेढ़ महीने पहले के हालात देखें, तो वहाँ की थोक महँगाई दर 17.20 फ़ीसदी थी, जबकि विदेशी मुद्रा भण्डार उस समय 2.6 फ़ीसदी ही था। विदेशी मुद्रा भण्डार कम होने से ज़रूरी चीज़ों का आयात भी उसी दर से हो पाता है। सवाल यह है कि श्रीलंका में ये हालात पैदा कैसे हुए? इसकी कई वजह हैं। पहली यह कि वहाँ भी पिछले कुछ वर्षों से धार्मिक उन्माद का माहौल था और वहाँ की सरकार जानबूझकर अपनी जनता को धार्मिक मुद्दों में उलझाकर रख रही थी, जिससे वहाँ लोगों का ध्यान रोज़गार, महँगाई और ग़रीबी पर जा ही नहीं रहा था। दूसरी बात श्रीलंका पर क़र्ज़ बेतहाशा बढ़ चुका था और वहाँ के नेताओं का काला धन स्विस बैंक में बढ़ता जा रहा था। तीसरी बात वहाँ एक साथ जैविक खेती की पहल कर दी गयी। इस तरह श्रीलंका अपने ज़मीनी मुद्दों पर विचार नहीं कर पाया और सँभलने की बाज़ी हाथ से निकल गयी।

अब अगर भारत की वर्तमान हालत पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि यहाँ भी इन दिनों धार्मिक उन्माद की आग धधक रही है। महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। इसके अलावा हमारे नेताओं का काला धन भी तेज़ी स्विस बैंक में बढ़ा है। हमारा विदेशी मुद्रा भण्डार भी लगातार घट रहा है। डॉलर के मुक़ाबले रुपया लगातार कमज़ोर हो रहा है। आयात दर की अपेक्षा निर्यात दर काफ़ी कम है। कुछ अर्थशास्त्री इस पर चिन्ता जता रहे हैं, तो वहीं राजनीतिक लोग अपनी रोटियाँ सेकने में लगे हैं। इतने पर भी हमारे यहाँ ख़बरें बन रही हैं- मन्दिर-मस्जिद की, ताजमहल में मूर्तियाँ ढूँढने की, और बुलडोजर की। मीडिया में भी या तो यही ख़बरें चल रही हैं या फिर श्रीलंका के हालात बिगडऩे की, अफ़ग़ानिस्तान के हालात बिगडऩे की, पाकिस्तान में लोगों को रोटी न मिलने की। लेकिन दु:खद यह है कि हमारे यहाँ की समस्याएँ मीडिया को नज़र ही नहीं आ रही हैं।

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई ने क़र्ज़ पर अचानक ब्याज दर बढ़ाने का संकेत देकर इस बात की ओर संकेत कर दिया है कि आने वाले समय में महँगाई तो बढ़ेगी ही, देश में हालात और भी बिगड़ सकते हैं। विपक्ष के कई नेता इस मामले को लेकर सरकार पर आरोप लगाकर हालात सुधारने की अपील कर चुके हैं; लेकिन सरकार के कान पर जूँ नहीं रेंगी है। हाल यह है कि देश के हालात लगातार बद-से-बदतर होते जा रहे हैं। अगर अभी से इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, तो श्रीलंका की तरह ही यहाँ भी हालातों पर क़ाबू पाना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए सरकार को चाहिए कि देश में बुलडोजर और मन्दिर-मस्जिद की राजनीति से निकलकर विकास की राजनीति करे। क्योंकि देश के लोगों को मोदी सरकार पर बहुत भरोसा है, उसे वह न टूटने दे, तो बेहतर होगा।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)