शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’
क्या समलैंगिक विवाह उचित है? कहीं यह सभ्य समाज के लिए अभिशाप तो नहीं? समाज में कुरीतियों से बिगाड़ ही होता है। इससे भावी पीढ़ी के भटकने का डर रहता है। भारतीय संस्कृति समलैंगिक विवाह के विपरीत है। यहाँ मनुष्यता की परिभाषा सामाजिक तथा प्रकृति के अनुरूप है। परन्तु जो लोग समलैंगिक विवाह तथा समलैंगिक सम्बन्धों की वकालत कर रहे हैं, उनका क्या? उन्हें कौन और कैसे समझाए? न तो समलैंगिक विवाह से वैवाहिक जीवन का सही निर्वाह हो सकता है और न ही इससे जीवन भर के रिश्ते को वह आनंद तथा सन्तुष्टि हासिल हो सकती है, जिसकी इच्छा से विवाह किया जाता है। समलैंगिक विवाह में अभी तक देखा गया है कि प्रेम विवाह का विरोध करने वाले लोग भी इसके विरोध में नहीं बोल रहे हैं। वेलेंटाइन-डे पर पार्कों में प्रेमी जोड़ों से अभद्रता करने वाले संगठन समलैंगिक विवाह तथा समलैंगिक सम्बन्धों पर शुरू से ही $खामोश हैं। कुछेक ने इसका विरोध किया है, परन्तु दबी ज़ुबान से। सही में तो सामाजिक संगठनों को किसी सामाजिक मामले में क़ानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं है, परन्तु ऐसा खुलकर होता है, जिस पर कोई नहीं बोलता।
इन दिनों विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की माँग वाली याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है। इससे पहले समलैंगिक सम्बन्धों के लिए बाक़ायदा कई बार सोशल मीडिया पर एक मुहिम चल चुकी है। कई जगह इसके समर्थन और विरोध में प्रदर्शन हुए हैं। अब मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ समलैंगिक विवाह वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। इस पीठ में पाँच न्यायाधीश हैं- मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायाधीश संजय किशन कौल, न्यायाधीश एस. रवींद्र भट, न्यायाधीश पी.एस. नरसिम्हा तथा महिला न्यायाधीश हिमा कोहली।
समलैंगिक विवाह की पहली सुनवाई में केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इन याचिकाओं पर कई प्रश्न खड़े किये हैं। तुषार मेहता ने कहा कि पहले तो यही तय किया जाना चाहिए की इन याचिकाओं पर सुनवाई करनी चाहिए अथवा नहीं? सॉलिसिटर की इस दलील पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि पहले इस मामले को समझने के लिए वह याचिकाकर्ताओं की दलीलें सुनकर ही फ़ैसला लेंगे। इस पर सॉलिसिटर तुषार मेहता ने कहा कि यह मामला पूरी तरह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। सरकार ने इस पर एक आपत्ति-आवेदन दिया है कि क्या इस मामले में न्यायालय दख़ल दे सकते हैं या यह केवल संसद का एकाधिकार है? इसलिए समलैंगिक विवाह पर संसद को फ़ैसला लेने दीजिए। इस पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हम इंचार्ज हैं तथा हम तय करेंगे कि किस मामले पर सुनवाई करनी है और किस तरह करनी है। पहले याचिकाकर्ताओं की बात सुनी जाएगी।
केंद्र सरकार को जब जवाब देने का मौक़ा मिलेगा, तब वह अपनी बात रखे। इस पर केंद्र सरकार के सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह कोई ऐसा विषय नहीं है जिस पर पाँच विद्वान बैठकर कुछ लोगों की माँग पर पूरे समाज के बारे में फ़ैसला कर दें। सर्वोच्च न्यायालय विवाह की नयी संस्था नहीं बना सकता। यहाँ मौज़ूद कुछ विद्वान वकील और न्यायाधीश पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते। हम नहीं जानते हैं कि दक्षिण भारत का एक किसान या पूर्वी भारत का एक व्यापारी इस पर क्या सोच रहा है? परन्तु इस सवाल पर अगर विचार करने के लिए संसद ही सही जगह है।
स्पष्ट तौर पर केंद्र सरकार की ओर से पाँच विद्वानों वाली यह टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर थी, जिसका एक अर्थ यह भी है कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को भी मामले पर सुनवाई करने से सीधे-सीधे मना तो किया ही है, यह भी कहने का प्रयास किया है कि सर्वोच्च न्यायालय को हर मामले में फ़ैसला देने का अधिकार नहीं है, जो कि न्यायपालिका के हनन की ओर इशारा करता है।
विदित हो कि समलैंगिक विवाह के समर्थक याचिकाकर्ताओं ने समानता और सम्मान से जीवन जीने के अधिकार का हवाला देते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की माँग की है। परन्तु केंद्र सरकार ने इसका कड़ा विरोध दर्ज कराया है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद भी समलैंगिक विवाह वाली याचिका के विरोध में है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद के वकील कपिल सिब्बल की दलील है कि विवाह से जुड़े क़ानून संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं। इसलिए इस मामले में राज्य सरकारों को भी सुना जाना चाहिए। वहीं समलैंगिक विवाह के पक्ष में याचिका दाख़िल करने वाले लोगों की तरफ़ से वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी, अभिषेक मनु सिंघवी, मेनका गुरुस्वामी और के.वी. विश्वनाथन मुक़दमा लड़ रहे हैं। समलैंगिक विवाह के समर्थकों के मुख्य वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट में दो लोगों के बीच विवाह की बात कहीं गयी है, जिसे स्त्री या पुरुष की ही शादी के तौर पर देखना ज़रूरी नहीं है। क़ानून की हल्की व्याख्या से समलैंगिक जोड़ों को राहत मिल जाएगी। पिछले सौ वर्षों में विवाह की व्यवस्था में बहुत बदलाव आया है। बाल विवाह, बहु-विवाह बंद हुआ है। रोहतगी ने दलील दी कि 31 देशों ने समलैंगिक विवाह को मान्यता दे रखी है। इसलिए अब समय आ गया है कि भारत में भी प्रगतिशील नज़रिये को बढ़ावा दिया जाए।
वहीं वकील मेनका गुरुस्वामी की दलील है कि समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता न मिलने से समलैंगिक जोड़े अनेक क़ानूनी अधिकारों से वंचित हैं। जैसे कि वे जिस पार्टनर के साथ ज़िन्दगी बिता रहे हैं, उसके नाम वसीयत नहीं कर सकते। उसे अपने बैंक अकाउंट में नॉमिनी नहीं बना सकते। उसका जीवन बीमा नहीं करा सकते। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से निवेदन किया कि माननीय न्यायालय को इन बातों पर विचार करना चाहिए। इस पर पीठ के सदस्य न्यायाधीश संजय किशन कौल ने कहा कि मामले में स्पेशल मैरिज एक्ट के दायरे में ही बहस करना सही होगा। धर्मों के निजी क़ानून समलैंगिकता को ग़लत मानते हैं। इसलिए स्पेशल मैरिज एक्ट के ज़रिये समाधान निकालने की कोशिश बेहतर रहेगी।
विदित हो अब तक कुल 34 देशों में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने पर सुनवाई हो चुकी है, परन्तु इनमें से 23 देशों ने समलैंगिक विवाह पर क़ानून बनाकर इसे वैध क़रार दिया है। सन् 2001 में नीदरलैंड ने दुनिया में पहली बार समलैंगिक विवाह को वैध क़रार दिया। इसके बाद एशियाई देशों में ताइवान ऐसा पहला देश है, जिसने समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता दे रखी है। वहीं जापान ने इसे मान्यता नहीं दी है। कुछ देशों में समलैंगिक रिश्ते बनाने पर ही भयंकर सज़ा का प्रावधान है।
इन देशों में भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त संयुक्त अरब अमीरात, क़तर, मॉरिटानिया में शरिया क़ानून के तहत और अफ्रीकी देश युगांडा में वहाँ के क़ानून के तहत समलैंगिक सम्बन्ध बनाने वालों को सज़ा-ए-मौत की सज़ा देने का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त 29 अन्य देशों में भी समलैंगिक रिश्तों पर प्रतिबंध है। ईरान, सोमालिया और उत्तरी नाइजीरिया के कुछ हिस्सों में भी समलैंगिक सम्बन्धों पर यही सज़ा है। इसके अलावा 71 अन्य देशों में समलैंगिक तथा अप्राकृतिक सम्बन्धों के ख़िलाफ़ क़ानून बने हुए हैं। ऐसा करने पर इन देशों में जेल की सज़ा का प्रावधान है। वहीं कुछ देशों में जेल या मौत की सज़ा में कोई भी सज़ा दी जा सकने वाले क़ानून हैं।
सन् 2018 से पहले आईपीसी की धारा-377 के तहत भारत में भी समलैंगिक सम्बन्ध अपराध था। इस पर याचिका डाली गयी और सितंबर, 2018 में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायालयों की पीठ ने इस क़ानून को ख़त्म कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें फ़ैसला सुनाया कि अब कोई भी भारत में समलैंगिक सम्बन्धों के ख़िलाफ़ थाने में अथवा किसी न्यायालय में मुक़दमा दर्ज नहीं करा सकता, क्योंकि अगर दो बालिग़ लोग आपसी सहमति से सम्बन्ध बनाते हैं, तो यह अपराध नहीं माना जाएगा। समलैंगिक रिश्तों को मान्यता मिलने के बाद अब इसका समर्थक समुदाय समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता दिलाने की कोशिश कर रहा है, जिसकी मुखालिफ़त सीधे-सीधे केंद्र सरकार कर रही है। अभी समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता नहीं है, परन्तु इससे पहले ही समलैंगिक रिश्तों के अनेक पक्षधरों ने भारत में समलैंगिक विवाह कर लिये हैं। इनमें से कई विवाहों में तो परिवार तथा समाज के लोग ख़ुशी-ख़ुशी शामिल हो चुके हैं।
देखना होगा कि समाज में इन अप्राकृतिक विवाहों को किस नज़रिये से देखा जाएगा तथा सर्वोच्च न्यायालय इस पर क्या प्रतिक्रिया देता है। मनुष्य मनोविज्ञान की अगर बात करें, तो इस पर पक्ष-विपक्ष दोनों पर विचार रखने वाले मिल जाएँगे, सबकी अपनी-अपनी दलीलें भी हैं। परन्तु अगर भारतीय समाज, संस्कृति तथा मनुष्यता की दृष्टि से देखें, तो यह अजीब और ग़लत ही है। क्योंकि अगर इस तरह किसी भी काम में सही-ग़लत का फ़र्क़ ही ख़त्म कर दिया जाएगा, तो फिर सब कुछ जायज़ ही हो जाएगा। फिर वैध तथा अवैध क्या रह जाएगा?