क्या पैसे के दम पर कुछ भी सम्भव है?

कहते हैं ख़रीदार होना चाहिए और क़ीमत सही हो, यहाँ सब कुछ बिकता है। महिला पहलवानों से यौन उत्पीडऩ मामले के साथ क़रीब 40 मामलों में पहले से आरोपी रहे सांसद ब्रजभूषण सिंह को ज़मानत मिल गयी। जो खिलाड़ी पीडि़त थीं, वे बिना ट्रायल के एशियन गेम में खेलेंगी। दाँव पर लगी केंद्र की मोदी सरकार की इज़्ज़त बच गयी। खिलाडिय़ों के समर्थन में खड़े होने वाले जो तथाकथित किसान नेता थे, वे भी बरी हो गये। यानी इस संगीन मामले में सबके अपने-अपने हित सध गये और सबके दोनों हाथों में लड्डू आ गये।

कहना पड़ेगा कि सबको इज़्ज़त बीच बाज़ार लाने का इनाम मिल गया। यानी इस खेल में इज़्ज़त, स्वाभिमान, आत्मसम्मान, सब कुछ बिका और जो लोग निष्पक्ष और सच्चे मन से पीडि़त महिला खिलाडिय़ों के साथ आकर खड़े हुए, वे सरकार और पुलिस की नज़रों में आ गये और उनकी सूची पहले ही पुलिस के पास बनी पड़ी है। हो सकता है कि घटना ताज़ा है, इसलिए पुलिस उन लोगों पर हाथ न डाले; लेकिन क्या भरोसा कि वे कब, किस जुर्म के कथित आरोप के बहाने दबोच लिये जाएँ?

बहरहाल छ: महिला पहलवानों, जिन्हें अब तक पीडि़त मानकर पूरा देश उनके साथ खड़ा था, उनके भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन उत्पीडऩ के आरोप धुले तो नहीं हैं; लेकिन भद्दे ज़रूर पड़ गये हैं। बेटियों की इज़्ज़त करने वाले किसान, ख़ासतौर पर जाट किसान और इन महिलाओं के साथ न्याय की भीख माँगने वाले हैरान हैं कि यह क्या हुआ? इस मामले में दिल्ली पुलिस ने जिस प्रकार से मामले में जो भूमिका निभायी, वो किसी से छिपी नहीं है। आरोपी पर पॉस्को एक्ट हट ही गया। बाक़ी मामलों की हीला-हवाली हुई, उसके चलते कई हित एक साथ सध गये। मेरे विचार से इस मामले में दिल्ली पुलिस की भी सराहना की जानी चाहिए कि किस तरह उसने इस मामले को निपटाया। मैं उन पहलवान बेटियों की भी पीठ थपथपाना चाहूँगा, जिन्होंने आगे से किसी भी पीडि़त बेटी के लिए न्याय के रास्ते बंद करके एक बीच का रास्ता निकाला है, जो कि अब किसी भी ताक़तवर व्यक्ति के ख़िलाफ़ लडऩे की पीडि़त बेटियों की हिम्मत तो ज़रूर तोड़ देगा। इन बेटियों ने जैसे ही अपने हित सधते देखे, उन सभी लोगों को निराश करते हुए एक प्रकार के गोपनीय समझौते को मौन स्वीकृति दे दी, जो कभी नहीं होना चाहिए था।

पिछले दिनों राउज एवेन्यू कोर्ट में पुलिस की चार्जशीट पर आरोपी बृजभूषण शरण सिंह को ज़मानत मिलना इस बात की तस्दीक़ है कि किसी भी ताक़तवर व्यक्ति के लिए कोई भी अपराध चुटकी बजाने जितना आसान है। इस मामले में बीती 18 जुलाई को हुई सुनवाई में राउज एवेन्यू कोर्ट ने कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह और उससे महिला पहलवानों को अकेले में मिलवाने वाले कुश्ती महासंघ के सहायक सचिव विनोद तोमर को भी 25,000 के निजी मुचलके पर अंतरिम ज़मानत मिल गयी।

सोचिए, जिस देश में इतने बड़े आरोप की इतनी सस्ती ज़मानत मिलती हो, वहाँ अपराधों को कौन रोक सकेगा? हालाँकि राउज एवेन्यू कोर्ट ने बृजभूषण सिंह को बग़ैर अदालत की अनुमति के देश छोडक़र जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है और अब इस मामले में सुनवाई जारी है। जानकारी के मुताबिक, पुलिस रिपोर्ट में दिये गये दस्तावेज़ों की जाँच होगी। अफ़सोस की बात यह है कि यौन उत्पीडऩ की शिकायत करने वाली महिला पहलवानों के वकीलों ने भी आरोपी की ज़मानत पर आपत्ति दर्ज नहीं करायी, सिर्फ़ ज़मानत में शर्ते लगाने का आग्रह किया। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ पॉस्को का मामला रद्द हो गया था और आईपीसी की धारा-506 (आपराधिक धमकी देने), धारा-354 (महिला की शीलता भंग करने), धारा-354-ए (यौन उत्पीडऩ करने) और धारा-354-डी (पीछा करने) के तहत दिल्ली पुलिस ने आरोप तय किये हैं।

ग़ौरतलब है कि ब्रजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ कुल छ: मामलों की चार्जशीट जून में दिल्ली पुलिस ने जारी की थी, जिसमें पुलिस की जाँच टीम ने कुल 108 गवाहों के बयान दर्ज किये हैं। इन गवाहों में महिला पहलवानों के कोच और रेफरी समेत क़रीब 15 ने पहलवानों के आरोपों को सही बताया है। पुलिस ने अपने आरोप पत्र में कहा है कि एक मामले में ब्रजभूषण सिंह ने कई बार और लगातार उत्पीडऩ किया।

बहरहाल जानकारों का कहना है कि पहलवानों के गृह मंत्री अमित शाह और खेल मंत्री अनुराग ठाकुर से मिलने के बाद न सिर्फ़ पहलवानों का आन्दोलन कमज़ोर पड़ा, बल्कि पहलवानों को मना भी लिया गया, ताकि सरकार की नाक कटने से बची रहे और उसका एक ऐसा बाहुबली नेता भी, जिसका अपने इलाक़े में काफ़ी राजनीतिक रसूख़ और दबदबा है। जानकारों का तो यहाँ तक कहना है कि बृजभूषण शरण सिंह मोदी सरकार की वो नस है, जिसके कट जाने से सरकार के प्राण हलक़ में आ जाते और प्रधानमंत्री मोदी तक पर इसका गहरा असर पड़ता, इसलिए इस मामले को बड़ी होशियारी से ठंडा करने की पूरी कोशिश की जा रही है।

न्याय व्यवस्था का एक तरफ़ बृजभूषण शरण सिंह का मामला है, तो दूसरी अलावा मुज़फ़्फ़रनगर में चर्चा का विषय बना हुआ है कि महिला खिलाडिय़ों के आन्दोलन में शामिल होकर सक्रिय भूमिका निभाने और हरिद्वार में खिलाडिय़ों के पदक गंगा में प्रवाहित न करने देने और विवादित बृजभूषण सिंह पर अच्छा बयान देने का इनाम कथित तौर पर किसान यूनियन (टिकैत) के अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत को भी बख़ूबी मिला है। विदित हो कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के ज़िले मुज़फ़्फ़रनगर के किसान नेता चौधरी जगबीर सिंह की सन् 2003 के हत्या के मामले में चौधरी नरेश टिकैत को भी हाल ही में दोषमुक्त किया गया है। अपर सत्र न्यायालय के पीठासीन अधिकारी ने उन्हें ज़मानत दे दी।

इस केस में पुलिस के अलावा एसआईटी और सीबीसीआईडी ने पहले ही नरेश टिकैत को क्लीन चिट दी थी। बता दें कि किसान नेता जगबीर सिंह की हत्या 6 सितंबर, 2003 को भौराकलां थाना क्षेत्र के अलावलपुर माजरा गाँव में हुई थी। पूर्व मंत्री एवं रालोद नेता योगराज सिंह ने इस मामले में अलावलपुर गाँव के राजीव और प्रवीण के अलावा सिसौली निवासी भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज कराया था।

बरहराल देश की क़ानून व्यवस्था किस तरह से दोहरे मापदंडों पर चलती है, यह कोई नयी बात नहीं है। पुराने जमाने से यहाँ यही सब होता आया है। पंचायतों के दौर में भी पैसे वालों के साथ नरमी से पेश आया जाता था और आज संविधान के मुताबिक क़ानून होने के बाद भी वही सब इतिहास दोहराया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में आजकल कई ऐसे उदाहरण देखने को आसानी से मिल जाते हैं, जिमसें अपराध करने वालों को बेल और निर्दोषों को जेल होती दिख जाएगी। हाथरस, उन्नाव, बदायूँ, लखीमपुर खीरी, गोरखपुर, प्रयागराज में हम उत्तर प्रदेश पुलिस का दोहरा चरित्र देख ही चुके हैं। दिल्ली में भी पहलवान बेटियों के धरने के दौरान दिल्ली पुलिस का दोहरा चरित्र साफ़-साफ़ नज़र आया; लेकिन इसके बावजूद पुलिस कोई इसका कोई अफ़सोस नहीं होता। आज के समय में अगर कोई मामूली आदमी अपनी परेशानी लेकर पुलिस थाने जाता है, तो पुलिस उसके साथ किस तरह का व्यवहार करती है और अगर कोई रसूख़दार आदमी पुलिस को अपनी शिकायत देता है, तो पुलिस उसके साथ किस तरह का व्यवहार करती है, ये किसी से छिपा नहीं है। वहीं दूसरी ओर रसूख़दारों और राजनीति से जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ सालोंसाल मुक़दमे चलने के बावजूद उन्हें सज़ा नहीं होती, वहीं कई बार निर्दोष लोगों को सज़ा हो जाती है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि क़ानून व्यवस्था बिलकुल चौपट है और पुलिस और अदालतें अपना फ़र्ज़ नहीं निभा रही हैं। लेकिन इतना ज़रूर है कि जो सत्ता में होता है या फिर ताक़तवर होता है, उसके ख़िलाफ़ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं होती। क्या क़ानून सिर्फ़ $गरीबों के लिए हैं?

इस मामले ने देश की क़ानून व्यवस्था के दोहरे चेहरे को हमारे सामने उजागर किया है, जिसमें एक तरफ़ दुनिया भर में देश और अपना नाम करने वाली महिला पहलवानों से अभद्रता करने वाले माफ़िया और दबंग भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह का मामला है और दूसरी तरफ़ देश के कई कथित घोटालेबाज़ आज सत्ताधारी दल के साथ नज़र आते हैं। जिन पर कभी सत्ताधारी दल के नेता गंभीर आरोप लगाते थे, आज वे सफेदपोश हैं। क्योंकि उनके तमाम घोटाले घपलों के ऊपर स$फेद चादर जो डाल दी गयी है, जिससे उनके दा$ग किसी को दिखायी नहीं देते हैं। क्योंकि वह सत्ताधारी दल के सियासी मददगार जो बन गये हैं।

इतना ही नहीं आज देश में कई ऐसे मामले भी हैं, जिनमें आरोप लगते ही लोगों को सज़ा हो जाती है, भले ही वो दोषी न हों। हम देखते हैं कि देश में समय-समय पर कई ऐसे मामले सामने आते हैं, जब किसी को कई साल की सज़ा के बाद लोग निर्दोष पाये जाते हैं और उन्हें आरोपों से बरी करते हुए जेलों से रिहा किया जाता है। लेकिन कहावत है कि समरथ को नहिं दोष गुसाईं। हालाँकि मैं इस पक्ष में नहीं हूँ कि दोषी ताक़तवर हो, तो उसे माफ़ किया जाना चाहिए। अगर ऐसा ही करना हो, तो फिर एक देश, एक क़ानून या फिर समान क़ानून नागरिक संहिता यानी यूसीसी की वकालत करने की क्या ज़रूरत है? देश में फिर तो एक संविधान की भी कोई ज़रूरत नहीं है। जब अपराध सामने वाले के ताक़त और पैसा देखकर तय किये जाएँ, फिर इन सबकी क्या ज़रूरत है? ग़रीबी और अमीरी देखकर ही फैसले किये जाने चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक संपादक हैं।)