सवाल उठते रहे हैं कि क्या केंद्र सरकार किसान आन्दोलन को साम, दाम, दण्ड और भेद से बिखराव पैदा करके ख़त्म कराना चाहती है? क्योंकि जब सीधी बातचीत से बात न बनी, तो केंद्र और भाजपा शासित राज्यों द्वारा हनन के तरीक़े अपनाये जाने के कुछ मामले साफ़ दिखायी दिये और कुछ खेल परदे के पीछे करने के आरोप भी भाजपा की सरकारों पर लगे। इनमें से कई मामलों में तो सरकार ने भी सफ़ार्इ नहीं दी। राज्य से जुड़ा मामला तो वहाँ की सरकार और केंद्र का हो तो केंद्र सरकार इसी नीति का इस्तेमाल करती रही हैं। ऐसे बहुत-से आन्दोलन टूटते रहे हैं। तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने या इसे हर हालत में लागू करने का मुद्दा उस मोड़ पर पहुँच गया है कि ख़त्म होने में नहीं आ रहा है। एक दर्ज़न दौर की बातचीत नाकाम होने के बाद अब दोनों पक्ष एक-दूसरे पर दबाव की कोशिश कर रहे हैं।
संयुक्त किसान मोर्चा तीन कृषि क़ानूनों को रद्द और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर अडिग है, तो केंद्र सरकार कुछेक संशोधन के साथ इसे लागू करने पर आमादा है। आन्दोलन अब दिल्ली की बजाय राज्यों में बिखर-सा गया है। हरियाणा में जींद हिसार, करनाल, उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी जैसी घटनाएँ हुईं, जो कहीं-न-कहीं आन्दोलन को ख़त्म करने से ही जुड़ी रही हैं। ताज़ा मामला केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, राज्यमंत्री कैलाश चौधरी के साथ निहंग सिख बाबा अमन सिंह की मुलाक़ात का है।
ऐसे चित्र और ख़बरों के सामने आने के बाद सवाल उठा कि क्या इसके कोई तार किसान आन्दोलन से भी जुड़ते हैं? अगर नहीं, तो फिर तोमर की निहंग अमन सिंह से मुलाक़ात से क्या मायने रहे होंगे? निहंग अमन सिंह विवादास्पद शख़्स है। अप्रैल, 2018 में माँ-बाप ने उसे घर से बेदख़ल कर रखा है। बाक़ायदा समाचार-पत्र में यह प्रकाशित हो चुका है। पंजाब सरकार की विशेष जाँच समिति की टीम बाबा अमन के माँ-बाप और परिजनों से उसके बारे में जानकारी जुटायी है।
उसके माँ-बाप बीमार हैं और उनका उपचार गाँव के लोग चन्दा आदि करके कर रहे हैं। संगरूर ज़िले के गाँव बब्बनपुर का रहने वाले बाबा अमन के साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है। एनडीपीसी एक्ट में उस पर मामला है। फ़िलहाल वह पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय से जमानत पर है। दिल्ली में केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री कैलाश चौधरी के आवास पर इस तरह का आयोजन ही अपने आप में कई सवाल खड़े करता है। आख़िर क्यों सरकारी आवास पर उसे इतना महत्त्व दिया गया? कुछ तो निहितार्थ रहे ही होंगे, जिनका ख़ुलासा होना अभी बाक़ी है।
संयुक्त किसान मोर्चा का कोई पदाधिकारी ऐसे संवाद में शामिल होता तो निश्चित ही सवाल खड़े होते; लेकिन बाबा अमन सिंह तो आन्दोलन का हिस्सा नहीं है। वह निहंग है और संगठन में बहुत प्रभावी भी नहीं है। उसकी क्या हैसियत है कि वह आन्दोलन को ख़त्म कराने में अहम भूमिका अदा कर दे। मुलाक़ात और बातचीत में बाबा अमन को सम्मानित करने की वजह का क्या कुछ अर्थ है? कुछ तो है; वरना पंजाब के विवादास्पद पुलिस इंस्पेक्टर (बर्ख़ास्त) गुरमीत सिंह पिंकी की मौज़ूदगी क्यों थी? पिंकी और बाबा अमन, दोनों संदेहास्पद हैं। गुपचुप संवाद में भाजपा किसान प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय सचिव सुखमिंदर पाल ग्रेवाल भी थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि संवाद का आयोजन किसी ख़ास मक़सद के लिए हुआ होगा। किसान आन्दोलन की शुचिता पर उँगलिया भले उठायी गयी हैं। लेकिन केंद्र सरकार पर तो शुरू से ही आन्दोलन को किसी भी तरह ख़त्म करने के आरोप लगते ही रहे हैं। अब आन्दोलन इस स्थिति में पहुँच गया है कि किसी गुपचुप संवाद से नहीं, बल्कि सीधी बातचीत से ही निपटेगा। निहंग संगठनों या किसी अन्य की मध्यस्थता की कहीं कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रह गयी है।
वैसे देखा जाए, तो आन्दोलन तो तीन कृषि क़ानूनों पर चल रहा है इनमें निहंगों का क्या काम है? सिंघु सीमा पर पंजाब से जुड़े किसान संगठन सक्रिय है और निहंगों का डेरा यहीं पर है। वे अपनी मर्ज़ी से आन्दोलन में शामिल हुए या फिर उन्हें सुरक्षा के हिसाब से यहाँ बुलाया गया? नहीं कहा जा सकता। हालाँकि सभी निहंग ऐसे नहीं हैं और वे बहुत शान्त होते हैं। लेकिन कुछ आवेशित भी होते हैं। दशहरे के दिन गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी मामले में लखबीर सिंह की नृशंस हत्या के बाद निहंग दूसरी बार विवाद में फँसे हैं। इससे पहले 26 जनवरी को दिल्ली कूच के दौरान उन्होंने जो कुछ किया उसे सभी ने देखा। इसमें कुछ और गिरफ़्तारियाँ भी होंगी। फ़िलहाल पुलिस ने ख़ून में सने कपड़े और तलवारें बरामद करने के साथ-साथ मृतक लखबीर सिंह के ख़िलाफ़ गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी का मामला दर्ज कर लिया है और जाँच कर रही है।
सबसे बड़ा सवाल यही कि आख़िर निहंगों का किसान आन्दोलन से सरोकार क्या है? क्यों वे 10 माह से सिंघु सीमा पर हैं? लखबीर हत्याकांड के बाद संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने घटना की निंदा करते हुए निहंगों को चले जाने की ताक़ीद की है; लेकिन उनकी हिम्मत नहीं कि वे उन्हें वहाँ से जबरन हटा कर दें। निहंग संगठनों की ओर से कहा गया है कि वे अपनी मर्ज़ी से किसान आन्दोलन आये हैं और अपनी मर्ज़ी से ही जाएँगे किसी के कहने से कदापि नहीं जाने वाले। किसान संगठनों के किसी पदाधिकारी की इतनी हिम्मत नहीं कि वे खुलकर कह सकें कि आन्दोलनकारियों को निहंगों की कोई ज़रूरत नहीं है।
फ़िलहाल 27 नवंबर को बैठक के बाद फ़ैसला होगा कि निहंग सिंघु सीमा पर रहेंगे या चले जाएँगे। इसके बाद ही आगे की दिशा तय होगी। संयुक्त मोर्चा के ज़्यादा संगठन पंजाब से हैं। सिंघु बॉर्डर पर किसान संगठनों को मज़बूत कहे जाने वाले नेताओं से ज़्यादा दख़ल निहंगों का है। निहंग सिख धर्म का संगठन है और इसका इतिहास भी निर्दोषों की रक्षा का ही रहा है। लेकिन कौन, कब, किससे मिल जाए? नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह इंसानी फ़ितरत है। भाजपा नेताओं के साथ मुलाक़ात की बात सामने आने के बाद निहंग संगठन ने बाबा अमन सिंह से किनारा कर लिया है।
दिल्ली में भाजपा नेताओं के साथ बातचीत के इस मामले पर बाबा अमन ने केंद्र सरकार पर गम्भीर आरोप लगाये हैं, जिनमें उन्हें आन्दोलन ख़त्म कराने की एवज़ में 10 लाख रुपये की पेशकश का प्रलोभन दिया गया। इस कथित समझौता संवाद में उसके साथ अन्य निहंगों का होना बताया गया। यह जाँच का विषय है। लेकिन यह देखा गया है कि जब सरकार पर आरोप लगते हैं, तो मामले की जाँच नहीं होती; चाहे वो कोई भी मामला हो।
सिंघु सीमा पर गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी मामले में निहंगों ने जो सज़ा दी है, वह लोकतंत्र में किसी भी नज़रिये से उचित नहीं है। उसका अपराध गम्भीर है और सिख धर्म के हिसाब से उसे दण्डित किया जा सकता है। पर इसके लिए निहंगों को कोई अधिकार नहीं कि वे खुलेआम उसका अंग-भंग करते हुए उसे तड़पा-तड़पाकर मार डाले। उसे अकाल तख़्त के सामने पेश किया जाना चाहिए था। वहाँ से उसे जो सज़ा होती, उसकी स्वीकार्यता पूरे सिख समाज की होती। वैसे भी सिख धर्म में ग़लती या बेअदबी की सज़ा परिश्रम कराकर या माफ़ी माँगने पर दे दी जाती है। लेकिन किसी की जान नहीं ली जाती।
पंजाब में बेअदबी के मामले पहले भी हुए हैं। आरोपियों की पहचान भी हुई; लेकिन ऐसा जघन्य काम किसी सिख ने नहीं किया, चाहे वे निहंग ही क्यों न हों। इससे साफ़ है कि यह कृत्य या तो किसी साज़िश के तहत हुआ है या फिर मानसिक विकृति के लोग ही ऐसा कर सकते हैं। सिंघु बॉर्डर पर बेअदबी कोई साज़िश तो नहीं? ऐसे सवाल अभी ख़त्म नहीं हुए हैं। कुछ लोग इसे किसानों से जोडऩे की कोशिश में लगे हैं। लेकिन यह धार्मिक मामला है और इसे उससे जोडऩा उचित भी नहीं है। क्योंकि अभी तक किसानों पर ऐसा कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया है, जिसमें उन्होंने कोई ग़ैर-क़ानूनी क़दम उठाया हो।
निहंग संगठनों का आरोप है कि लखविंदर ने मरने से पहले गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी करने के लिए 20 लोगों को 30-30 हज़ार रुपये देने का आरोप भी लगाया था। हालाँकि इसकी पुष्टि नहीं हुई है कि यह पैसा किसने किसे दिया? या दिया भी अथवा नहीं? अगर वह ज़िन्दा रहता, तो इससे परतें हटतीं और उस पर निहंगों के हमले की असली वजह पता चलती और साज़िश का पर्दाफ़ाश हो सकता था। लेकिन ऐसा हो नहीं सका या सम्भव है कि होने ही न दिया गया हो। क्योंकि आरोपी निहंग के सत्ताधारियों से मिलने की कोई तुक नहीं दिखती। अगर सरकार को आन्दोलन ख़त्म कराने या क़ानूनों को लेकर कोई क़दम उठाना है, तो उसे सीधे किसानों से बातचीत करनी चाहिए। लेकिन कहीं किसानों पर गाडिय़ाँ चढ़ती हैं, तो कहीं किसानों की हत्या हो जाती है। ये खेल कुछ समझ में नहीं आता और न ही इसे किसी भी हाल में उचित ठहराया जा सकता है। रही मध्यस्थता करने की बात, तो मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक इसके लिए तैयार हैं। वह कह चुके हैं कि अगर केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर तैयार हो जाए, तो वह कृषि क़ानूनों के मामले में किसान नेताओं से सहमति बना लेंगे।
सवाल यह है कि जब न्यूनतम समर्थन मूल्य तो सरकार हमेशा देने को कहती रही है, तो फिर उसकी लिखित गारंटी क्यों नहीं देती? इससे तो सरकार की नीयत पर सीधे-सीधे सवाल खड़े होते हैं। उसे चाहिए कि वह देश में अस्थिरता का माहौल ख़त्म हो इसके लिए किसी जोड़-तोड़ या साम, दाम, दण्ड, भेद से काम लेने के बजाय बातचीत का रास्ता अपनाये। किसानों से बातचीत करे। सम्भव है कि वे इसके लिए तैयार भी हो जाएँ। क्योंकि किसानों ने शुरू से ही कहा है कि वे समाधान चाहते हैं; प्रधानमंत्री उनसे बातचीत करें। लेकिन प्रधानमंत्री ने आज तक किसानों को एक सेकेंड का भी समय नहीं दिया। इस बात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझने की ज़रूरत है।