'क्या देश अब भी मारुति में घर लौटना चाहता है?'

‘मैं चाहती हूं कि यह कार भारत के आम लोगों के काम आए… मैं उम्मीद करती हूं कि राष्ट्र निर्माण में इससे हर तरह से मदद मिलेगी और भारत के लोगों को इससे सुविधा होगी.’ पहली मारुति 800 कार की चाबी सेना में काम करने वाले हरपाल सिंह को सौंपते हुए यह बात भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कही थी. इंदिरा गांधी के लिए यह एक भावुक लम्हा था. आम आदमी के लिए कार बनाने का सपना उनके बेटे संजय गांधी ने देखा था. एक हवाई दुर्घटना में संजय की मृत्यु के बाद यह लगभग टूट ही गया था. लेकिन 14 दिसंबर, 1983 को संजय के जन्मदिन के मौके पर जब यह हकीकत में तब्दील हुआ तो उनकी मां का भावुक होना स्वाभाविक ही था. उस दिन से शुरू हुआ मारुति का सफर किस कदर आगे बढ़ा, यह एक इतिहास है. मारुति ने भारत में कारों को लेकर क्रांतिकारी परिवर्तन लाए. इस कंपनी ने भारत में कार की सवारी करने वाली जमात को इसकी कई ऐसी खूबियों से वाकिफ कराया जिनसे वे तब तक अनजान थे. देश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो मारुति से भावनात्मक तौर पर जुड़े हुए हैं. हालांकि, पिछले कुछ सालों में उद्योग जगत और खास तौर पर वाहन क्षेत्र में ऐसी स्थितियां बनी हैं जिसका ताप मारुति को भी सहना पड़ा है. दुनिया की कई बड़ी कंपनियों ने भारतीय बाजार में आक्रामक तरीके से दस्तक दी है. वहीं कुछ देसी कंपनियों ने भी बाजार में कदम रखा है. इससे मारुति के लिए अपने दबदबे को बनाए रखना पहले की तरह आसान नहीं रहा. लेकिन पिछले छह महीने में मारुति को सबसे बड़ी चुनौती कंपनी के अंदर से ही मिल रही है. पिछले छह महीने में कंपनी में हो रही लगातार हड़ताल ने न सिर्फ उत्पादन पर प्रतिकूल असर डाला है बल्कि ब्रांड मारुति पर नकारात्मक असर पड़ने की बात भी जानकार कर रहे हैं.

पिछले छह महीनों में ही मारुति में चार बार हड़ताल हुई है. जबकि इसके 30 साल के इतिहास में ऐसा केवल सात मर्तबा ही हुआ है

इन छह महीनों के दौरान ही मारुति की मानेसर इकाई में चार बार हड़ताल हुई है. जबकि इसके 30 साल के इतिहास में ऐसा केवल सात मर्तबा ही हुआ है. आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जिनकी वजह से ऐसा हुआ और लगा कि कभी भारतीय उद्योग जगत में सितारे की तरह चमकने वाली कंपनी की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है. मारुति में काम करने वालों ने इस साल पहली बार हड़ताल की शुरुआत चार जून को की और जब 21 अक्टूबर को हालिया और साल की चौथी हड़ताल खत्म हुई तब तक कंपनी के 61 कामकाजी दिन हड़ताल की भेंट चढ़ गए थे. बाजार के जानकारों और खुद मारुति कंपनी ने इतने कामकाजी दिनों के बर्बाद होने की वजह से कंपनी को होने वाले नुकसान को तकरीबन दो हजार करोड़ रुपये आंका. ब्रांडिंग के लिहाज से मारुति को हुए नुकसान, अन्य आर्थिक नुकसान और इससे किन कंपनियों को फायदा मिल रहा है, यह जानने से पहले हड़ताल की मूल वजहों को जानना जरूरी है.

उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अंतराम शर्मा पिछले चार साल से मारुति में काम कर रहे हैं. मारुति की मानेसर इकाई के गेट नंबर तीन के बाहर टेंट लगाकर विरोध-प्रदर्शन करने वाले सैकड़ों मजदूरों में वे भी शामिल थे. हड़ताल के दौरान वे कहते हैं, ‘मानेसर इकाई में तकरीबन 3,500 लोग काम करते हैं. इनमें से हर कोई यही कहेगा कि वह शोषण से त्रस्त है. नौ घंटे की शिफ्ट में हमें आधे घंटे का लंच ब्रेक दिया जाता है. कैंटीन ऐसी जगह पर है कि वहां पहुंचने में ही सात-आठ मिनट लग जाते हैं. आने में भी इतना ही वक्त लगता है. ऐसे में हम ठीक से खाना भी नहीं खा पाते.’ मूलतः दिल्ली के रहने वाले और पिछले पांच साल से मारुति की मानेसर इकाई में काम कर रहे गजेंद्र सिंह कहते हैं, ‘नौ घंटे की शिफ्ट में साढ़े सात मिनट के दो ब्रेक मिलते हैं. इसी में आपको पेशाब भी करनी है और चाय-बिस्कुट भी खाने हैं. ज्यादातर मौकों पर तो एक हाथ में चाय और एक में बिस्कुट लिए हम शौचालय में खड़े होते हैं.’ पास ही खड़े राजस्थान के अलवर से आकर मारुति में पिछले छह साल से काम करने वाले राजेंद्र सिंह बोल पड़ते हैं, ‘कई बार तो ऐसा होता है कि घंटी बजने के बाद वर्क स्टेशन से हटने में एक मिनट लग जाता है. क्योंकि अगर कन्वेयर मशीन पर कोई कार आ गई हो तो आपको उसका काम करना ही पड़ेगा. वहीं काम दोबारा शुरू करने के लिए मशीन के पास एक मिनट पहले पहुंचना पड़ता है. इस तरह से हमारे पास चाय-बिस्कुट और पेशाब के लिए सिर्फ पांच मिनट का वक्त होता है.’

मजदूरों के आरोपों पर कंपनी की राय लेने के लिए ‘तहलका’ ने मारुति के चेयरमैन आरसी भार्गव से संपर्क साधने की कई बार कोशिशें कीं. लेकिन हर बार उनके कार्यालय से यह कहा गया कि वे अभी उपलब्ध नहीं हो पाएंगे. कुछ दिन पहले एनडीटीवी से बातचीत में उन्होंने साढ़े सात मिनट के ब्रेक को सही ठहराते हुए कहा था कि यह जापानी कार्यपद्धति का हिस्सा है और इसे 1983 में ही अपनाया गया था इसलिए मजदूरों को अब इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. उन्होंने मजदूरों पर आरोप लगाया कि वे आठ घंटे की शिफ्ट में पांच घंटे से ज्यादा काम ही नहीं करना चाहते. ये वही भार्गव हैं जिन्होंने अगस्त के आखिरी दिनों में वित्त वर्ष 2010-11 की सालाना रिपोर्ट पेश करते हुए कंपनी के कर्मचारियों को इसका सबसे बड़ा संसाधन और धरोहर बताया था. उनका कहना था, ‘हमारे सबसे बड़े संसाधन और धरोहर हमारे कर्मचारी हैं. हम हमेशा से इस संसाधन की संभावनाओं को विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं क्योंकि ये न सिर्फ अपने और कंपनी के लिए फायदे की स्थिति बनाते हैं बल्कि निवेशकों को भी लाभ पहुंचाते हैं. जून, 2011 में मानेसर में दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियां पैदा हो गई थीं, लेकिन हम इससे सबक लेकर अपने श्रमिकों के साथ उत्पादक और लाभकारी रिश्ते विकसित करने के अपने प्रयासों को दोगुना करेंगे.’

आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले एक साल में कार बाजार में मारुति की हिस्सेदारी में करीब 12 फीसदी की कमी आई है

छुट्टियों और मेडिकल सुविधाओं को लेकर भी मारुति की मानेसर इकाई में काम करने वाले मजदूरों में असंतोष है. प्रबंधन के खिलाफ चले अभियान में मजदूरों के बीच समन्वय बैठाने का काम कर रहे सुनील कुमार कहते हैं, ‘एक कैजुअल लीव लेने पर कंपनी प्रबंधन 1,750 रुपये तक हमारी पगार में से काट लेता है. महीने में आठ हजार रुपये तक छुट्टी करने पर काट लिए जाते हैं. अगर आपने चार दिन की छुट्टी ली और यह इस महीने की 29 तारीख से लेकर अगले महीने की दो तारीख तक की है तो आपके दो महीने के पैसे यानी 16,000 रुपये तक कट जाएंगे. आखिर यह कहां का न्याय है?’ दरअसल, कंपनी ने एचआर पॉलिसी इस तरह बनाई है कि पगार का एक बड़ा हिस्सा ‘अटेंडेंस रिवॉर्ड’ में डाल दिया गया है और अगर कोई एक दिन भी गैरहाजिर होता है तो इसमें 25 फीसदी तक की कटौती हो जाती है. गजेंद्र कहते हैं, ‘अगर कार बनाते समय किसी को चोट लग गई तो कंपनी वहां उसकी फर्स्ट-एड कर देती है. उसके बाद जो भी इलाज होगा वह खुद ही कराना पड़ेगा और इस वजह से कोई छुट्टी ली तो उसके पैसे कटेंगे.’

कंपनी की मानेसर इकाई में नियमित और ठेके पर काम करने वाले मजदूरों के बीच कई स्तरों पर होने वाला भेदभाव भी विवाद की एक वजह है. इस इकाई में तकरीबन 3,500 मजदूर काम करते हैं जिनमें से करीब 2,000 ठेके पर काम करने वाले हैं. उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के मनोज कुमार वर्मा ऐसे ही मजदूरों में से हैं. वे तीन साल से यहां काम कर रहे हैं. वे बताते हैं, ‘नियमित मजदूरों की मासिक पगार 16,000 रुपये है. जबकि ठेके पर काम करने वाले हम जैसे लोगों को हर महीने सिर्फ 6,500 रुपये मिलते हैं. वहीं अप्रेंटिस के तौर पर काम करने वालों को मात्र 4,200 रुपये मासिक मिलते हैं. इसके अलावा मेडिकल और बस की सुविधा भी हमें नहीं मिलती.’ एक अन्य ठेका मजदूर हरेंद्र कहते हैं, ‘प्रबंधन को लगता है कि इन्हें तो कभी भी निकाला जा सकता है. इसलिए वे लोग हमसे काफी गाली-गलौज भी करते हैं.’

इन्हीं सब वजहों से धीरे-धीरे मारुति के मानेसर संयंत्र में मजदूरों के बीच असंतोष बढ़ता गया. उन्हें लगा कि अगर वे अपनी मजदूर यूनियन बना लेंगे तो उनकी  समस्याओं का हल हो जाएगा. मजदूरों के इस अभियान को आगे बढ़ाने के लिए गठित समिति के सदस्य सुनील दत्त कहते हैं, ‘हमने तीन जून, 2011 को हरियाणा सरकार के श्रम विभाग में यूनियन बनाने के लिए आवेदन किया. इसके तुरंत बाद कंपनी प्रबंधन ने मजदूरों को नौकरी से निकालने की धमकी देने की शुरुआत कर दी. प्रबंधन ने हरियाणा सरकार के नाम एक पत्र तैयार किया कि मानेसर इकाई के मजदूर कोई यूनियन नहीं चाहते हैं और गुड़गांव की यूनियन से ही खुश हैं. जब मजदूरों ने इस पर दस्तखत करने से मना किया तो धमकियां और बढ़ गईं. मजबूरन हमें चार जून से हड़ताल पर जाना पड़ा.’ हड़ताल 13 दिन तक चली और मानेसर इकाई में उत्पादन पूरी तरह से बंद हो गया.

मारुति ने शुरुआत से ही भारत में कार चलाने वालों के सामने ऐसी चीजों को रखा जिनसे वे तब तक पूरी तरह से अनजान थे

बीच-बचाव के बाद यह हड़ताल खत्म हुई. इसके बाद एक दिन अचानक ही प्रबंधन ने मजदूरों से ‘गुड कंडक्ट बॉन्ड’  पर दस्तखत कराना शुरू कर दिया. कहा गया कि मजदूर जान-बूझकर धीरे-धीरे काम करते हैं और बात-बात पर हड़ताल पर जाने की धमकी देते हैं इसलिए इस शपथ पत्र को लाया गया है. इन आरोपों को खारिज करते हुए अंतराम शर्मा कहते हैं, ‘वाहन कंपनियों के काम-काज से वाकिफ कोई भी व्यक्ति ऐसे आरोपों पर हंसेगा. यहां जिस मशीन पर मजदूर काम करते हैं उसे कन्वेयर कहा जाता है जो हर मजदूर के प्लेटफॉर्म के सामने एक निश्चित समय तक रुकती है. कार के ढांचे में जिस मजदूर का जो काम होता है वह उसे इसी समय में पूरा करना पड़ता है. इस मशीन की गति हमेशा प्रबंधन का अधिकारी ही, इस आधार पर कि आज कितनी कारें बननी हैं, तय करता है.’

कंपनी के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक मानेसर इकाई की उत्पादन क्षमता सालाना पांच लाख कार बनाने की है, लेकिन यहां हर साल छह लाख कार तैयार की जा रही हैं. 2008-09 की तुलना में 2010-11 में मानेसर इकाई की उत्पादन क्षमता में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इससे भी यही बात साबित होती है कि धीमे काम करने का आरोप गलत है. मजदूरों का आरोप है कि यह शपथ पत्र एकतरफा था और इस पर दस्तखत करने के बाद मजदूरों के पास प्रबंधन के किसी भी गलत फैसले के विरोध का कोई अधिकार नहीं बचता. इसलिए 29 अगस्त, 2011 से मानेसर में एक बार फिर हड़ताल शुरू हो गई जो 33 दिन तक चली. इस दौरान पास के सुजूकी पावर ट्रेन, सुजूकी कास्टिक और सुजूकी मोटरसाइकिल के मजदूरों ने भी इन मजदूरों के समर्थन में दो दिन की हड़ताल की.

सुनील दत्त कहते हैं, ‘जब पहली अक्टूबर को हड़ताल खत्म होने के बाद हम काम पर गए तो कंपनी ने 94 निलंबित मजदूरों को काम पर वापस लेने से इनकार कर दिया. ठेके पर काम करने वाले 1,200 मजदूरों को भी काम पर वापस नहीं लिया गया.’ सुनील कुमार बताते हैं, ‘हमसे कंपनी ने हड़ताल खत्म कराते वक्त कहा कुछ और किया कुछ. कंपनी की तरफ से धोखा दिए जाने के बाद हमने सात अक्टूबर से एक बार फिर हड़ताल पर जाने का फैसला किया.’ यह हड़ताल 15 दिन तक चली. इस हड़ताल ने मारुति की गुड़गांव इकाई में भी उत्पादन ठप कर दिया. ऐसा इसलिए हुआ कि मानेसर में सुजूकी की अन्य तीन कंपनियां सुजूकी पावर ट्रेन, सुजूकी कास्टिक और सुजूकी मोटरसाइकिल के मजदूर भी अपने साथियों के समर्थन में हड़ताल पर चले गए. इनमें मारुति के उत्पादन के लिहाज से सबसे ज्यादा अहमियत रखती है सुजूकी पावर ट्रेन. इस कंपनी में कारों में इस्तेमाल होने वाला इंजन बनता है. इसलिए यहां की हड़ताल के बाद मारुति की गुड़गांव इकाई भी बंद हो गई.

हड़ताल के वक्त सुजूकी कास्टिक के गेट के सामने सैकड़ों मजदूरों के साथ प्रदर्शन कर रहे सुजूकी पावर ट्रेन मजदूर यूनियन के अध्यक्ष सुबेर सिंह यादव कहते हैं, ‘आपके यहां पहुंचने के कुछ देर पहले पास के खोगांव के सरपंच को गुंडों के साथ कंपनी के प्रबंधन ने हमें भगाने के लिए भेजा था. उन्होंने धमकी दी कि जल्दी हड़ताल खत्म करो नहीं तो ठीक नहीं होगा. कंपनी अपने ही मजदूरों के खिलाफ असामाजिक तत्वों का इस्तेमाल कर रही है.’ वे कहते हैं, ‘कंपनी ऐसा कोई पहली दफा नहीं कर रही है. सुजूकी मोटरसाइकिल के बाहर प्रदर्शन कर रहे मजदूरों पर वह असामाजिक तत्वों द्वारा नौ अक्टूबर को हमले करवा चुकी है. वहां तो गुंडों ने चार गोलियां भी चलाई थीं.’

मारुति प्रबंधन की इन्हीं गलतियों की वजह से मजदूरों को मिल रहे समर्थन का दायरा बढ़ता गया. आॅल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक), सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) और हिंद मजदूर सभा जैसे मजदूर संगठन भी इनके समर्थन में आ गए. सुजूकी के गृह-देश जापान में भी मजदूरों ने सुजूकी के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन किया.’ अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में इंटरनेशनल डिस्कशन फोरम और लेबर वीडियो प्रोजेक्ट के साथ काम करने वाले राजेंद्र सहाय इन मजदूरों की कहानी दुनिया भर में पहुंचाने के मकसद से मानेसर पहुंचे. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहते हैं, ‘मानेसर के प्रदर्शन की अमेरिका में काफी चर्चा है. वहां के विभिन्न श्रम संगठन
अपने-अपने ढंग से मारुति मजदूरों के संघर्ष का समर्थन कर रहे हैं.’

कई दौर की वार्ता के बाद हरियाणा सरकार के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में प्रबंधन और मजदूर नेताओं के बीच जो समझौता हुआ उसकी जानकारी देते हुए मजदूरों के अभियान का नेतृत्व कर रहे सोनू गुर्जर कहते हैं, ‘कंपनी ने 64 निलंबित मजदूरों को बहाल करने का फैसला किया. 30 मजदूरों के बारे में अभी फैसला नहीं किया गया है. लेकिन इनका फैसला प्रबंधन और मजदूरों के प्रतिनिधि मिलकर दस दिन के भीतर करेंगे. ठेके पर काम करने वाले 1,200 मजदूरों को भी कंपनी काम पर वापस रखेगी.’ मजदूर यूनियन की मांग के बारे में वे कहते हैं, ‘इस पर अभी कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ लेकिन एक शिकायत निवारण समिति बनाने पर सहमति बनी है.’ तो क्या अब मारुति में आने वाले दिनों में हड़ताल की आशंका खत्म हो गई, इस पर गुर्जर कहते हैं, ‘सब कुछ प्रबंधन के रवैये पर निर्भर करता है.’

इस समझौते के बाद मारुति की मानेसर इकाई में एक बार फिर से उत्पादन शुरू हो गया है, लेकिन बार-बार हुई हड़ताल से कंपनी को आर्थिक तौर पर नुकसान उठाना पड़ा है. वहीं विज्ञापन और ब्रांड की दुनिया से जुड़े लोगों का कहना है कि अगर कंपनी में आगे भी हड़तालें होती रहीं तो ब्रांड मारुति पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा. लेकिन पहले बात हड़ताल की वजह से मारुति की बिक्री पर पड़े नकारात्मक प्रभाव की. कंपनी के चेयरमैन आरसी भार्गव ने हड़ताल खत्म होने के बाद अपने बयान में कहा कि कंपनी को इसकी वजह से 2,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले एक साल में कार बाजार में मारुति की हिस्सेदारी में करीब 12 फीसदी की कमी आई है. पिछले सितंबर में जहां मारुति की हिस्सेदारी 52 फीसदी थी वहीं इस साल घटकर 40 फीसदी रह गई. जनवरी से अब तक कंपनी के शेयरों में भी तकरीबन 27 फीसदी की गिरावट आई है.

कंपनी को इस दौरान निर्यात के मोर्चे पर भी काफी नुकसान उठाना पड़ा. पिछले साल सितंबर में जहां कंपनी ने 12,858 गाडि़यां देश के बाहर भेजी थीं वहीं इस साल यह संख्या घटकर 6,749 ही रह गई. गौरतलब है कि कंपनी का एक बेहद लोकप्रिय मॉडल है एसएक्स-4. यह गाड़ी मानेसर इकाई में ही बनती है. वहां हड़ताल की वजह से सितंबर महीने में इस गाड़ी की बिक्री में 90 फीसदी की कमी आई. पिछले साल सितंबर में जहां 1,965 एसएक्स-4 गाडि़यों की बिक्री हुई थी वहीं इस साल यह संख्या घटकर 196 ही रह गई. इसी साल अगस्त में इस मॉडल की कुल 1,893 गाडि़यां बिकी थीं. मारुति की गाड़ियों की बिक्री में आई कमी पर एंजल ब्रोकिंग के ऑटो विश्लेषक यारेश कोठारी कहते हैं, ‘मानेसर में मजदूरों की हड़ताल की वजह से उत्पादन में आई कमी को मारुति की गाड़ियों की बिक्री में आई कमी की मुख्य वजह माना जा सकता है, क्योंकि इस महीने में दूसरी कंपनियों की बिक्री के आंकड़ों में बढ़त दर्ज की गई.’

मारुति के लिहाज से ये दोनों हड़तालें इसलिए अधिक नुकसानदेह साबित हुईं क्योंकि यह त्योहारों का मौसम था और इस दौरान कारों की बिक्री सबसे अधिक होती है. हर कंपनी आकर्षक प्रस्तावों के साथ तैयार होती है और अपनी ओर अधिक से अधिक ग्राहकों को आकर्षित करना चाहती है. इस दौरान दूसरी कार कंपनियों को फायदा हुआ और उनकी बिक्री बढ़ी. मारुति को अगर थोड़ी-बहुत चुनौती किसी कंपनी से मिल रही है तो वह ह्युंदई है. कंपनी ने हाल ही में अपना इयॉन मॉडल लॉन्च किया है और जानकारों का मानना है कि मारुति की हड़ताल ने इसे परोक्ष रूप से फायदा पहुंचाया. अब तक इस मॉडल की 8000 कारें बिक गई हैं. सितंबर में कार बाजार में ह्युंदई की हिस्सेदारी तीन फीसदी बढ़कर 21.7 फीसदी हो गई. मारुति की हड़ताल का फायदा फॉक्सवैगन को भी मिला. इस साल सितंबर में पिछले साल के मुकाबले इसकी गाडि़यों की बिक्री में 39 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गई. सितंबर में टोयटा की गाडि़यों की बिक्री भी लगभग दोगुनी यानी 12,807 हो गई. वहीं जनरल मोटर्स की शेवरले बीट और स्पार्क की बिक्री में भी सितंबर में तेजी दर्ज की गई.

हड़ताल की वजह से उत्पादन में आई कमी का नतीजा यह हुआ कि मारुति के कई मॉडलों की बुकिंग के बाद इनकी डिलीवरी का समय बढ़ गया. कंपनी की बेहद लोकप्रिय कार स्विफ्ट के लिए इंतजार करने का समय छह महीने से बढ़कर आठ महीने और कुछ जगहों पर तो दस महीने तक हो गया. इस गाड़ी के लिए बुकिंग कराने के बाद इंतजार करने वाले लोगों की संख्या एक लाख के पार पहुंच गई. कुछ कार डीलरों के हवाले से यह खबर भी आई कि लोग लंबे इंतजार से बचने के लिए स्विफ्ट और एसएक्स-4 की बुकिंग रद्द करा रहे हैं. बताया गया कि स्विफ्ट की दो से चार फीसदी बुकिंग रद्द हुई और इसका फायदा टोयटा के लीवा और फॉक्सवैगन के पोलो को मिला.

इंतजार का वक्त बढ़ते जाने से होने वाले नुकसान का अंदेशा शायद कंपनी को भी था. यही वजह है कि कंपनी के मैन्युफैक्चरिंग विभाग के प्रमुख एमएम सिंह ने इस साल अप्रैल में ‘फोर्ब्स इंडिया’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, ‘क्षमता में कमी की वजह से बाजार हिस्सेदारी को खोना किसी भी वाहन बनाने वाली कंपनी के लिए खतरे की घंटी है.’ यह खतरे की घंटी किसी भी कंपनी को उस वक्त अधिक खौफनाक लगने लगती है जब इंतजार के लंबे वक्त की वजह से बुकिंग रद्द होने लगे और बिक्री घटने लगे. इससे ब्रांड पर भी नकारात्मक असर पड़ता है. एक ब्रांड के तौर पर मारुति भारत में कितनी मजबूत है इसकी गवाही कार बाजार में मारुति की हिस्सेदारी दे देती है. लेकिन आंकड़ों से अधिक मारुति को एक चहेता ब्रांड बनाने का काम इसकी सेवाओं ने किया है. कोठारी के मुताबिक मारुति ने सिर्फ अपनी कारें नहीं बेचीं बल्कि इतने सर्विस सेंटर खोले कि उसके ग्राहकों को कोई परेशानी न हो. इस मोर्चे पर दूसरी कार कंपनियां मारुति से अभी काफी पीछे हैं.

कुछ साल पहले तक भारत में कार और मारुति एक-दूसरे के पर्याय थे. कुछ उसी तरह जैसे स्कूटर और बजाज. मारुति 800 ने अपनी सवारी करने वालों से भावनात्मक रिश्ता जोड़ा. यही वजह है कि जब कंपनी इस बेहद सफल मॉडल को बंद करने की योजना बना रही थी तो ग्राहकों की ओर से कई स्तरोंं पर आवाज उठी थी. उसी दौरान इंटरनेट पर मारुति 800 के नाम से बनाए गए एक फोरम पर टीचए विपुल ने इस कार को कुछ इस तरह याद किया, ‘मेरे गैराज में 1994 मॉडल सफेद मारुति 800 अब भी खड़ी है. यह कार मेरी मां चलाती थीं. उन्होंने आखिरी बार इसे जहां खड़ा किया था आज भी यह वहीं खड़ी है. इसकी चाबी मेरे पिता के पास है, लेकिन किसी को भी इसे चलाने की अनुमति नहीं है. जब भी मुझे मेरी मां की याद आती है तो मैं इसमें जाकर थोड़ी देर बैठ जाता हूं. मैं इस गाड़ी से भावनात्मक तौर पर इस कदर जुड़ा हुआ हूं कि इसी मॉडल की एक नई कार खरीदने जा रहा हूं ताकि गर्व से कह सकूं कि मेरे पास भी मारुति 800 है.’

मारुति 800 को याद करते हुए अंजान ने लिखा, ‘इस कार के साथ मेरा रिश्ता कुछ उसी तरह का है जैसे कोई बहुत पुराना प्रेम संबंध जिसकी खुशबू आप हर वक्त महसूस करते हैं. 1987 मॉडल की मारुति 800 ने हर कदम पर मेरा साथ दिया. इस कार से मैंने रेस भी लगाई और इसी में मेरा प्रेम संबंध भी परवान चढ़ा. कुछ मौकों पर मैं अपनी प्रेमिका के साथ इस कार में पकड़ा भी गया. शादी के बाद मैंने 1997 में नई मारुति 800 खरीदी. शुरुआत में पत्नी और अब बच्चों के साथ इस कार से मैं कई बार छुट्टियां मनाने गया. यह कार हमारे परिवार के एक सदस्य की तरह है.’

हालांकि, अब मारुति और कार एक-दूसरे के पर्याय नहीं रहे. इसकी वजह कोठारी बताते हैं, ‘तेजी से बढ़ते भारत के कार बाजार में पिछले कुछ सालों में कई वैश्विक कंपनियों ने दस्तक दी है. पहले ये सिर्फ बड़ी गाड़ियां बनाते थे. जबकि मारुति के लोकप्रिय ब्रांड छोटी कारों की श्रेणी में थे. लेकिन पिछले कुछ साल में इन कंपनियों ने कई छोटी कारें भारतीय बाजार में उतारी हैं. इसका नतीजा यह हुआ है कि मारुति की बाजार हिस्सेदारी घटी है. इस वजह से अब कार और मारुति एक-दूसरे के पर्याय नहीं रहे हैं.’ ब्रांड और विज्ञापन की दुनिया के जानकारों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों से लगातार हो रही हड़तालों से अब तक तो मारुति को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ लेकिन अगर आने वाले दिनों में हड़ताल और इस वजह से उत्पादन में कमी आती है तो निश्चित तौर पर इससे ब्रांड मारुति को काफी नुकसान उठाना पड़ेगा. ब्रांड गुरु और हरीश बिजूर कंसल्ट्स इंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हरीश बिजूर बताते हैं, ‘अगर आने वाले दिनों में फिर से मारुति में इसी तरह से मजदूरों का असंतोष पनपता है तो निश्चित तौर पर हालिया घटना को ब्रांड मारुति के लिए एक अशुभ शुरुआत के तौर पर गिना जाएगा.’ ऐसी ही राय प्रमुख विज्ञापन कंपनी क्रायोन्स के अध्यक्ष रंजन बरगोत्रा की है. वे कहते हैं, ‘अगर हड़ताल मारुति की कार्यशैली का हिस्सा बन जाए तो फिर भारत के बेहद प्रतिस्पर्धी कार बाजार में ब्रांड मारुति के लिए अपनी जगह को बचाए रखना बेहद कठिन साबित होगा.’

इंतजार का समय बढ़ने से ब्रांड पर पड़ने वाले असर की बाबत बरगोत्रा कहते हैं, ‘कुछ हफ्तों के इंतजार को कार बाजार के लिए अच्छा संकेत माना जाता है.  असल दिक्कत तब होती है जब कहा जाए कि चार महीने बाद आपको आपके सपनों की कार मिल जाएगी लेकिन समय पूरा होने पर पता लगता है कि अभी आपको दो महीने और इंतजार करना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में उस ब्रांड को कोई नहीं बचा सकता.’ बरगोत्रा जिस स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं, उस स्थिति का आना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि मारुति की इकाइयों में उत्पादन की गति क्या रहती है. अगर मजदूरों का असंतोष बढ़ा और उत्पादन ठप हुआ तो फिर इंतजार का समय बढ़ना और पहले से तय समय पर कार की डिलीवरी नहीं देने जैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं. कोठारी कहते हैं, ‘अगर ऐसी स्थिति बनती है तो मारुति को चाहने वालों के बीच इसकी छवि खराब होगी और इसका फायदा दूसरी कंपनियों को मिलेगा.’

आखिर क्या किया जाए कि ऐसी स्थिति नहीं पैदा हो? जवाब बिजूर देते हैं, ‘यदि आप किसी रेस्टोरेंट में खाना खाने जाते हैं और वहां का वेटर अपने चेहरे पर मुस्कान के साथ आपको खाना परोसता है तो ऐसा खाना अधिक तृप्ति देता है. वेटर के चेहरे पर मुस्कान तब ही रहेगी जब उसका पेट भरा हुआ हो. ऐसे ही अगर कार खरीदने वालों के मन में यह बात घर कर गई कि वह जिस कार को खरीदने जा रहा है उसे बनाने वाले मजदूर बेहद दुखी मन से इस कार को बनाकर बाजार में भेज रहे हैं तो यकीन मानिए ग्राहक उस कार को नहीं खरीदेगा. इसलिए मारुति प्रबंधन को हर हाल में मजदूरों को संतुष्ट करना होगा.’ बकौल बरगोत्रा, ‘आज मारुति अगर कार की सवारी करने वालों का चहेता ब्रांड है तो इसके लिए कंपनी की सालों की मेहनत और सर्विस जिम्मेदार है. मारुति ने शुरुआत से ही भारत में कार चलाने वालों के सामने ऐसी चीजों को रखा जिनसे वे तब तक अनजान थे. कारों में रंग मारुति ने भरा. पावर स्टियरिंग, पावर विंडो और अन्य एक्सेसरीज से लोगों को वाकिफ उसी ने कराया. वैश्विक मानकों के हिसाब से हमेशा अपनी गाड़ियों में जरूरी बदलाव किया. अपने कारों के मॉडलों को अपग्रेड किया. यही रुख मारुति को अब अपने यहां काम करने वाले लोगों के साथ भी अपनाना चाहिए. क्योंकि आज मारुति जिस ऊंचाई पर है वहां तक पहुंचाने में इसके मजदूरों का अहम योगदान रहा है.’

इस स्टोरी को लिखे जाते वक्त 29 अक्टूबर को खबर आई कि मारुति ने गुजरात के मेहसाना में  अपनी एक और कार बनाने की इकाई लगाने का फैसला किया है. मारुति प्रबंधन इसे अपनी क्षमता और निर्यात बढ़ाने के लिए उठाया कदम बता रहा है. मगर जानकारों का मानना है कि इस निर्णय के पीछे उसके हरियाणा के संयंत्रों में पिछले दिनों एक के बाद एक हुई हड़तालों की बड़ी भूमिका है. उनका यह भी मानना है कि यदि सब कुछ सही रहा तो भी इसे चालू होने में कम से कम चार-पांच साल लगने वाले हैं.
इतना समय जनता की नजरों में चढ़ने के लिए काफी हो न हो मगर उतरने के लिए कम नहीं होता.