जिस तरह से पूरे देश में आज तीसरे मोर्चे को लेकर चर्चा छिड़ी है, कुछ उसी तरह की चर्चा हिमाचल प्रदेश में भी हो रही है जहां चार नवंबर को चुनाव होना हैं. वैसे तो परंपरागत तौर पर हिमाचल प्रदेश की राजनीतिक लड़ाई काफी हद तक भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होती आई है लेकिन समय-समय पर तीसरे मोर्चे ने भी चुनावों में अपनी मजबूत स्थिति दर्ज कराई है. चाहे बात 1990 की हो जब जनता दल ने प्रदेश विधानसभा चुनाव में 10 सीटें जीती थीं या फिर 1998 के विधानसभा चुनाव की. सन 1998 में कांग्रेस से अलग हुए सुखराम द्वारा गठित हिमाचल विकास कांग्रेस ने छह सीटें जीती थीं, उस समय किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. ऐसे में किंगमेकर की भूमिका में सुखराम आ गए. सुखराम ने उस समय भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई जिसमें सुखराम उप-मुख्यमंत्री बने और वर्तमान मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल पहली बार मुख्यमंत्री बने थे.
पिछले एक साल से राज्य में कई ऐसी राजनीतिक गतिविधियां हुई हैं जिनसे इस बात की संभावना बनती है कि आगामी विधानसभा चुनाव और उसके बाद गठित होने वाली सरकार में तीसरे मोर्चे की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.
करीब एक साल पहले पार्टी से अलग हुए प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता महेश्वर सिंह ने भाजपा के दो पूर्व मंत्रियों और एक पूर्व विधानसभा अध्यक्ष के साथ मिलकर एक नई पार्टी हिमाचल लोकहित का गठन किया था. महेश्वर सिंह हिमाचल भाजपा के संस्थापक सदस्य के साथ ही पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष, विधायक और पार्टी टिकट पर तीन बार लोकसभा सांसद और राज्य सभा सदस्य भी रह चुके हैं. जाहिर है कि जब पार्टी का इतना बड़ा और पुराना सिपहसालार पार्टी छोड़ता है तो उसके कारण और प्रभाव भी संभवतः उतने ही बड़े होंगे. कारणों पर चर्चा प्रदेश में काफी दिनों से चल रही थी लेकिन अब चुनाव नजदीक आने के साथ-साथ इसके प्रभावों की बात भी यहां जोर-शोर से हो रही है. द ट्रिब्यून से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार राकेश लोहुमी कहते हैं, ‘ महेश्वर सिंह के अलग पार्टी बनाने से बड़ी संख्या में भाजपा के नेता-कार्यकर्ता उनके साथ चले गए है. इनमें से ज्यादातर वे लोग हैं जिनकी मेहनत के दम पर भाजपा ने प्रदेश में अपनी जगह बनाई थी.’
इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी शर्मा महेश्वर सिंह के पार्टी छोड़ने का कारण बताते हुए कहते हैं, ‘धूमल कैंप ने राज्य के वरिष्ठ भाजपा नेताओं को साइडलाइन करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है, यही कारण है कि एक-एक कर पुराने भाजपा नेताओं का पार्टी से मोहभंग होता जा रहा है.’ हालांकि महेश्वर सिंह भाजपा छोड़ने के अपने फैसले के लिए एक कदम आगे बढ़कर भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव को जिम्मेदार मानते हुए कहते हैं, ‘यह पार्टी भी कांग्रेस की तरह हो गई है. यही वजह है कि अब प्रदेश की जनता दोनों पार्टियों से मुक्ति चाहती है और हम इनका विकल्प बनेंगे.’ ऐसा कहा जाता रहा है कि महेश्वर सिंह को भाजपा के वरिष्ठ और राज्य के कद्दावर नेता तथा पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का आशीर्वाद हासिल है. जब महेश्वर सिंह पार्टी से अलग हुए तो उस पर शांता कुमार का बयान था कि महेश्वर पार्टी के संस्थापक और वरिष्ठ नेताओं में से एक हैं जिन्होंने पार्टी के पिछले 40 साल से लगातार सेवा की है ऐसे में उन्हें वापस लाए जाने का प्रयास होना चाहिए.
जनसत्ता से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी वर्मा हिमाचल लोकहित पार्टी के गठन को भाजपा के लिए खतरनाक संकेत मानते हुए कहते हैं, ‘ यह पार्टी कितनी सीट जीतेगी यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन ये भाजपा को हराने का काम जरूर करेंगे. प्रदेश की 20 से 25 सीटों पर ये असर डालेंगे. कांगड़ा में हो सकता है भाजपा का सफाया हो जाए. वहां से कई नेता हिमाचल लोकहित से जुड़ना चाह रहे थे लेकिन शांता कुमार ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उन्हें रोक दिया. लेकिन ये कब तक उनके साथ बने रहेंगे कहा नहीं जा सकता.’ अश्विनी वर्मा के मुताबिक चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना बहुत प्रबल दिखाई दे रही है. अगर ऐसा हुआ तो तीसरा मोर्चा किधर जाएगा ? इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘ ऐसी स्थिति में दो बातें ही संभव है कि भाजपा या कांग्रेस को समर्थन करेगा. भाजपा का समर्थन करने पर शर्त यही होगी कि धूमल उस सरकार का नेतृत्व न करें और तब संभवतः कमान शांता कुमार के हाथ में होगी. कुल मिलाकर तीसरे मोर्चे के किंगमेकर बनने पर धूमल को सफाया तय है.’
भाजपा से अलग होने के बाद महेश्वर सिंह ने लेफ्ट पार्टियों के साथ मिलकर हिमाचल लोकहित मोर्चा का गठन किया था. इसके असर का संकेत राज्य की राजनीति में तुरंत ही देखने को मिला. शिमला नगरनिगम चुनाव में सीपीआई (एम) ने न सिर्फ कांग्रेस के 26 साल के रिकॉर्ड को ध्वस्त करते हुए महापौर और उप महापौर के पद पर अपना कब्जा जमाया बल्कि उसने भाजपा की उस रणनीति की हवा निकाल दी जिसके तहत उसने पहली बार इन पदों के लिए सीधे मतदान कराना तय किया था. जाहिर-सी बात है पार्टी इस ऐतिहासिक जीत से अति उत्साहित है और चूंकि हिमाचल के कुछ इलाकों में वाम दलों का प्रभाव रहा है इसलिए वाम दल भी आगामी विधानसभा चुनाव में कुछ कर गुजरने की मुद्रा में दिखाई दे रहे हैं. शिमला के मेयर और सीपीआई (एम) नेता संजय चौहान कहते हैं, ‘शिमला नगरपालिका चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि लोग बीजेपी और कांग्रेस से मुक्ति चाहते हैं, ऐसे में हमें पूरा विश्वास है कि शिमला वाला इतिहास पूरे राज्य में दोहराया जाएगा.’
- हिमाचल में कुल 68 विधानसभा सीट हैं
- 4 नवंबर को होगा चुनाव
- 20 दिसंबर को होगी मतगणना
- 10 जनवरी को मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है.
जानकारों का कहना है कि भले ही अभी इस मोर्चे में सिर्फ वाम दल और हिमाचल लोकहित पार्टी शामिल हैं लेकिन आने वाले समय में इस राजनीतिक छतरी के नीचे और कई पार्टियों के आने की संभावना है. ऐसा माना जा रहा है कि एनसीपी, बसपा, सपा और हाल ही में राज्य में अस्तित्व में आई तृणमूल कांग्रेस भी इसमें शामिल हो सकती हैं. इसके अलावा राज्य के कई और नेताओं के इस गठबंधन में शामिल होने की संभावना है. वे सारे लोग भी इसमें आ सकते हैं जिन्हें भाजपा या कांग्रेस से टिकट की जगह मायूसी हाथ लगेगी. जानकार बताते हैं कि अगर ये पार्टियां तीसरे मोर्चे में शामिल नहीं भी होती हैं और स्वतंत्र रूप से लड़ती हैं, तब भी इतना जरूर तय है कि यह सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस के अपने दम पर सरकार बनाने वाले हसीन सपनों के रंग में भंग डालने का काम कर सकती हैं. अश्विनी शर्मा कहते हैं, ‘अकेले महेश्वर सिंह की पार्टी के लगभग 15 से 20 सीटों पर असर डालने की संभावना है, खासकर उस कुल्लू क्षेत्र में जहां से महेश्वर सिंह आते हैं.’
एक तरफ तीसरा मोर्चा जहां मजबूत होता दिख रहा है वहीं दोनों प्रमुख दलों की स्थिति बेहद कमजोर नजर आ रही है. प्रदेश भाजपा में गुटबाजी अपने चरम पर है. एक तरफ शांता कुमार सार्वजनिक तौर पर कुछ समय पहले तक मुख्यमंत्री धूमल सरकार पर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबने और हिमाचल को बेचने का आरोप लगा चुके हैं वहीं पार्टी में मुख्यमंत्री धूमल को लेकर भी लंबे समय से काफी असंतोष है. हिमाचल प्रदेश की चार लोकसभा सीटों में से एक कांगड़ा से भाजपा सांसद राजन सुशांत लंबे समय से मुख्यमंत्री धूमल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. सार्वजनिक तौर पर पार्टी के मुख्यमंत्री की आलोचना और उन पर गंभीर आरोप लगाने वाले राजन से भाजपा को सबसे बड़ा झटका तब महसूस हुआ जब यह खबर आई कि राजन के बेटे धैर्य सुशांत हिमाचल लोकहित पार्टी में शामिल हो गए हैं और उन्हें युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया है. राजन के बारे में ऐसी संभावना जताई जा रही है कि वे भी देर सवेर हिमाचल लोकहित पार्टी में शामिल हो सकते हैं.
पार्टी में जब राजन का एपिसोड चल ही रहा था कि रोहरु से पार्टी विधायक खुशी राम ने प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की बात करते हुए प्रदेश सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे. खुशी के बारे में भी ये कहा जा रहा है कि वे हिमाचल लोकहित पार्टी के साथ जा सकते हैं. सूत्रों का कहना है कि यह बस शुरुआत है. आने वाले दिनों में भाजपा के कई नेता महेश्वर सिंह के संग हो सकते हैं. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘कई नेता बस टिकट बंटने के समय का इंतजार कर रहे हैं. अगर उन्हें टिकट नहीं मिला तो वे पार्टी छोड़ने के लिए तैयार बैठे हैं.’
दूसरी तरफ कांग्रेस की स्थिति भी भाजपा की तर्ज पर तू डाल-डाल तो मैं पात-पात है. यहां तगड़ी गुटबाजी तो पहले से ही थी लेकिन चुनाव करीब आता देखकर यह और बढ़ गई है. पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के पार्टी छोड़कर जाने संबंधी खबरों से दबाव में आकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने जब उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया तो इससे कार्यकर्ता उत्साहित जरूर हुए लेकिन उनकी वजह से अपना पद खोने वाले कौल सिंह ठाकुर और उनके समर्थक नाराज हो गए.
कांग्रेस के लिए एक समस्या यह भी है कि सीडी कांड के जरिए भ्रष्टाचार के मामले में फंसे वीरभद्र को पार्टी की कमान सौंपने से जहां आम जनता में गलत संदेश गया है वहीं दूसरी तरफ इस बात की संभावना से कि वे अब मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे, पार्टी के बाकी नेताओं में प्रदेश का मुखिया बनने की होड़ अभी से शुरू हो गई है. इसके अलावा केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की नकारात्मक छवि से जूझना भी यहां कांग्रेस के लिए मुश्किल साबित हो रहा है. हाल-फिलहाल की स्थिति में भाजपा और कांग्रेस दोनों एक कमजोर स्थिति में दिखाई दे रहे हैं. यहां सबसे दिलचस्प बात है कि राज्य में किसी के पक्ष में कोई लहर दिखाई नहीं दे रही है. ऐसे में तीसरे मोर्चे के महत्वपूर्ण होने की संभावना यहां अपने आप ही मजबूत होती दिख रही है.