क्या अमेरिका और तालिबान के बीच अफगानिस्तान को लेकर 29 फरवरी को कतर की राजधानी दोहा में हुआ शान्ति समझौता लागू होने से पहले ही खतरे की तरफ बढ़ रहा है? तीन बड़ी घटनाएँ इसका इशारा करती हैं। एक, समझौते के एक हफ्ते के भीतर ही तालिबान ने अफगानिस्तान के 16 प्रान्तों पर एक के बाद एक 33 हमले किये, जिसमें 40 से ज़्यादा लोग मारे गये। देश में मौज़ूद अमेरिकी सैनिकों ने जवाब में तालिबान क्षेत्र में हवाई हमले किये। दो, अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने समझौते के बाद कहा कि अफगानिस्तान सरकार ने 5000 तालिबान कैदियों को रिहा करने को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जतायी है; जैसा कि समझौते में दावा किया गया है। तीन, राष्ट्रपति गनी ने इसके बाद शर्त रखी कि तालिबान कैदियों की रिहाई उसी सूरत में की जा सकती है, जब वह पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते खत्म कर ले।
इस शान्ति समझौते को लेकर सबसे ज़्यादा उत्साहित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को तालिबान के व्यवहार से झटका लगा है। तालिबान के हमले के बाद ट्रम्प को कहना पड़ा कि तालिबान इस अवसर को गँवाना चाहता है।
भले ट्रम्प ने कहा कि तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरदार से मेरे बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं; लेकिन हमले ने अमेरिका को झटका दिया है।
बता दें समझौते का मकसद अफगानिस्तान में 18 साल से जारी संघर्ष को खत्म करना है। समझौता तालिबान के युद्धविराम खत्म करने और अमेरिकी सैनिकों के वहाँ से वापस चले जाने को लेकर है। गौरतलब है कि 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने 2001 में तालिबान के िखलाफ लड़ाई के लिए अपने सैनिक अफगानिस्तान भेजे थे। तालिबान ने साल 1996 से साल 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन किया था। भारत ने तालिबान से बातचीत को कभी प्राथमिकता नहीं दी। तालिबान से अमेरिका के इस समझौते को लेकर भारत में भी दर्जनों आशंकाएँ हैं। अफगानिस्तान में चुनी सरकार ही भारत की हितों के लिहाज़ से सही कही जा सकती है। दूसरे तालिबान की पाकिस्तान में ऐसे तमाम तत्त्वों से घनिष्टता है; जो भारत को रास नहीं आते। ऐसे में इस समझौते से भारत की चिन्ता स्वाभाविक है।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भले कह रहे हों कि तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरदार से उनकी लम्बी बातचीत हुई है और वे हिंसा पर रोक चाहते हैं। लेकिन समझौते के बाद भी तालिबान के हमले जारी रहने पर अमेरिकी सेना के प्रवक्ता लेगेट को भी कहना पड़ा कि तालिबान अफगान लोगों की शान्ति की इच्छा की अनदेखी कर रहे हैं। ऐसे में समझौते को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है।
तालिबान के हमले के बाद अफगानिस्तान के शानिस्तान क्षेत्र के हेलमंड प्रान्त में अमेरिकी फौज के तालिबानी ठिकानों पर हवाई हमलों से यह तो ज़ाहिर है कि तालिबान अमेरिका िफलहाल खुली छूट नहीं देना चाहता। लेकिन इससे यह भी आशंका खड़ी हो गयी है कि क्या अमेरिका-तालिबान शान्ति समझौता लागू होने से पहले ही अशान्ति के भँवर में फँस रहा है।
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की तैयारियों के बीच हुए इस समझौते में देखा जाए, तो भारत के हितों का कुछ खास खयाल नहीं रखा गया है। यह दिलचस्प है कि हाल में जब अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप भारत के दौरे पार आये थे, तो इस दौरान कहा जाता है कि उन्होंने तालिबान के साथ शान्ति समझौते को लेकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज़िक्र किया था। यह भी कहा जाता है कि भारत ने इसे लेकर सहमति जतायी थी।
लेकिन यह समझौता होने के बाद से ही यह आशंकाएँ अब खुले रूप से सामने आने लगी हैं। लेकिन समझौते से भारत में राजनीतिक स्तर पर चिन्ता महसूस की जा रही है। इसमें सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि तालिबान पाकिस्तान के काफी करीब है। पाकिस्तान की सेना में तालिबान के प्रति सॉफ्ट कार्नर है और राजनीतिक स्तर पर भी तालिबान का कोई विरोध पाकिस्तान में नहीं है।
नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता में आने से पहले पाकिस्तान के पीएम इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) चुनाव से पहले ही तालिबान का खूब गुणगान करती रही थी। सत्ता में आने के बाद भी इमरान खान ने कभी तालिबान के हितों के विपरीत कोई बात नहीं कही है। इसका एक बड़ा कारण सेना का तालिबान के प्रति अघोषित समर्थन है।
भारत की चिन्ता यह है कि भले आज अफगानिस्तान में अशरफ गनी के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकार हो, भविष्य में तालिबान के सत्ता पर काबिज़ होने की सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में भारत के लिए चिन्ता का बड़ा क्षेत्र सामने होगा। पिछले साल अक्टूबर में ही इमरान खान के बुलावे पर तालिबान के एक प्रतिनिधिमंडल ने मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में पाकिस्तान का दौरा किया था।
पाकिस्तान भले आतंकियों के िखलाफ बोलता रहा हो और खुद को भी आतंक का शिकार बताता रहा हो, ज़मीनी हकीकत सब जानते हैं कि पाक में आतंकपरस्ती भी कम नहीं होती। लोग नहीं भूले होंगे कि पाकिस्तान में नेशनल एसेम्बली के चुनाव से पहले ही पाकिस्तान में इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के तमाम विरोधी दल तालिबान खान तक पुकारते रहे हैं। कारण था इमरान खान का लगातार तालिबान के पक्ष में बयान देना। तालिबान की सोच में हाल के वर्षों में कोई फर्क नहीं आया है। कतर के दोहा में अमेरिका से समझौते के तुरन्त बाद तालिबान के प्रतिनिधि अब्दुल्लाह बिरादर ने जब अपना सम्बोधन दिया, तो उनकी भाषा और सोच कमोवेश वही दिखी, जो 90 के दशक में तालिबान की रही है। बिरादर ने कहा कि इस्लामी मूल्यों की रक्षा के लिए अफगानिस्तान में सभी को एकजुट हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि बिरादर जिस एकजुटता की बात कर रहे थे, वह कट्टर इस्लामी व्यवस्था की तरफ ही संकेत करती है।
यदि अफगानिस्तान में वर्तमान सरकार भी रहती है, तब भी भविष्य में अमेरिकी सैनिकों की अनुपस्थिति में पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के भारत के हितों का नुकसान करने की सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता। अफगानिस्तान के विकास में भारत लाखों डॉलर हाल के समय में खर्च कर चुका है। अफगानिस्तान भारत के विदेशी सहायता कार्यक्रम का सबसे बड़ा भागीदार है। ऐसे में भारत की चिन्ताओं को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।
करीब दो दशक से अफगानिस्तान जंग झेल रहा है और उसका भीतरी आर्थिक ढाँचा तबाह हो चुका है। वहाँ बचाव, विकास और राहत कार्यों के लिए भारत एक अनुमान के मुताबिक, अब तक करीब तीन बिलियन यूएस डॉलर की मदद कर चुका है।
वैसे सच यह है कि इस समझौते में भारत की कोई भूमिका नहीं रही है। न भारत ने इसे लेकर किसी तरह का हस्तक्षेप ही करने की कोशिश की है। लेकिन एक बात तय कि भारत को बदले हालत में अफगानिस्तान को लेकर अपनी रणनीति में व्यावहारिक बदलाव करना होगा।
तालिबान की माँग
अमेरिका के साथ समझौते में तालिबान ने अफगानिस्तान में युद्धविराम के लिए शर्त रखी कि उसके जेल में बन्द लोगों को रिहा किया जाए। अभी शान्ति समझौते को लेकर बैठकों के दौर होने हैं। युद्ध के बाद महिला और अल्पसंख्यकों को लेकर योजनाओं और क्षेत्र के विकास पर व्यापक बातचीत होनी है। ज़ाहिर है, इसमें कुछ वक्त लगेगा।
लेकिन अफगानिस्तान सरकार ने अभी से इन लोगों की रिहाई को लेकर अपना विरोध दर्ज करवाना शुरू कर दिया है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने साफ कहा कि तालिबान की रिहाई को लेकर उनकी सरकार से कोई बात नहीं की गयी। हालाँकि, उन्होंने एक शर्त के साथ तालिबान की रिहाई पर रज़ामंदी जतायी है कि तालिबान पाकिस्तान से कोई सम्बन्ध नहीं रखेगा। ज़ाहिर है, तालिबान ऐसा नहीं करेगा। क्योंकि इससे अफगान सरकार और तालिबान में तनाव बन सकता है।
इस शान्ति समझौते ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा है। बहुत से जानकार इसे अमेरिका की हार के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। कहने को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने समझौते के बाद तालिबान को चेतावनी दी कि उसके तालिबान से हाथ मिलाने मतलब यह नहीं है कि वह अपने सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान में हिंसा बर्दाश्त करेगा। लेकिन देखा जाए, तो यह बहुत संवेदनशील मामला है और समझौते के अपनी शर्तों पर खरा न उतरने से अमेरिका की बड़ी किरकिरी भी हो सकती है। सब जानते हैं कि एक बार सैनिकों को वापस बुला लेने के बाद अमेरिका के लिए दोबारा वहाँ लौटना बहुत मुश्किल काम होगा।
तालिबान के साथ शान्ति समझौता हो जाने के बाद भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान में आतंकवाद को समर्थन देता रहेगा। आप एक समझौते तक पहुँचे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि जब समझौते तक पहुँचे हैं, तो यह लम्बी अवधि तक शान्ति लाने वाला होना चाहिए। जल्दबाज़ी में सिर्फ वहाँ से बाहर निकलने के लिए अस्थायी कदम के बतौर नहीं होना चाहिए। उन्हें (तालिबान) अफगानिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति में आना होगा। अगर वो देश पर शासन चलाना चाहते हैं, तो उन्हें वहाँ के लोगों की मर्ज़ी के मुताबिक शासन करना होगा।
जनरल बिपिन रावत
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ समझौते को लेकर।
हम तालिबान नेताओं से मुलाकात करेंगे। अगर कुछ बुरा हुआ तो हम वहां वापस जाएंगे। मुझे भरोसा है कि तालिबान सिर्फ समय बर्बाद करने के लिए यह सब (शान्ति समझौता) नहीं कर रहा। अगर कुछ खराब हुआ तो हम वापस (अफगानिस्तान) जायेंगे और ऐसे जायेंगे जैसे पहले किसी ने नहीं देखा होगा। मुझे भरोसा है कि ऐसी नौबत नहीं आएगी।
डोनाल्ड ट्रम्प, अमेरिकी राष्ट्रपति
क्या है शान्ति समझौता?
यह समझौता कतर के दोहा में हुआ। इसमें तालिबान के प्रतिनिधि मुल्ला बिरादर, जबकि अमेरिका के प्रतिनिधि (वार्ताकार) जलमय खलीलज़ाद ने दस्तखत किये। आज की तारीख में अफगानिस्तान के युद्ध ग्रस्त क्षेत्र में करीब 13,200 नाटो सैनिक (अमेरिका और सहयोगी देशों के)
मौज़ूद हैं। अमेरिका-तालिबान समझौते के तहत अमेरिका को अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुलाना है। शान्ति समझौते के मुताबिक, अमेरिका 14 महीने के भीतर अफगानिस्तान से अपने सैनिक हटायेगा। इसके अलावा समझौते में शामिल अन्य शर्तें भी 135 दिन में पूरी कर ली जाएँगी। समझौते के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि तालिबान से यह समझौता तभी कारगर होगा, जब वह (तालिबान) पूरी तरह शान्ति कायम करने के लिए काम करेगा। तालिबान को आतंकी संगठन अलकायदा से अपने सारे रिश्ते तोडऩे होंगे। यह समझौता इस क्षेत्र में एक प्रयोग है। हम तालिबान पर नज़र बनाये रखेंगे। अफगानिस्तान से अपनी सेना पूरी तरह से तभी हटाएँगे, जब पूरी तरह से पुख्ता कर लेंगे कि तालिबान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर आतंकी हमले नहीं करेगा। वैसे यह भी दिलचस्प है कि तालिबान अफगानिस्तान में आईएसआईएस का कट्टर विरोधी है और उसके िखलाफ भी लड़ता है। साल 2009 के बाद से तालिबान के हमलों में एक लाख से ज़्यादा अफगानी नागरिक और सुरक्षा बल के लोग मारे जा चुके हैं। यही नहीं, इन 18 वर्षों में करीब 2352 अमेरिकी सैनिक भी जान गँवा चुके हैं। तालिबान के पास इस समय करीब 1000 सरकारी कर्मी बन्धक हैं, जिन्हें तालिबान अपने करीब 5000 लोगों की रिहाई के बदले मुक्त करेगा।
तालिबान के ‘हमदर्द’ इमरान
एक मौके पर इमरान खान ने, जब वे सत्ता से दूर थे; तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के कमांडर वाली-उर-रहमान को शान्ति समर्थक कहा था। रहमान वही हैं, जिन्हें साल 2013 में अमेरिका की सेना ने ड्रोन हमले में मार गिराया था। अमेरिका के रहमान को मारने पर तब खान ने कहा कि शान्ति समर्थक वाली-उर-रहमान को मार डाला गया। कई सैनिकों की मौत और कई घायल हुए हैं। यह पूरी तरह अस्वीकार्य है और ऐसा जानबूझकर किया गया है।
यही नहीं लगभग उन्हीं दिनों में इमरान खान ने तालिबान को पाकिस्तान में अपना दफ्तर खोलने की मंज़ूरी देने को कहा था। उनका तर्क था कि अमेरिका यदि कतर में अफगान तालिबान के लिए कार्यालय खोल सकता है, तो पाकिस्तान तालिबान ऐसा क्यों नहीं कर सकता? यह माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी पार्टी पीटीआई की जड़ें जमाने के लिए इमरान ने तालिबान को खुश रखने की नीति अपनायी थी। ऐसा वक्त ऐसा भी आया, जब फरवरी 2014 में तालिबान ने इमरान खान को एक मध्यस्थता बैठक में जाने के लिए अपना प्रतिनिधि ही घोषित कर दिया। यह अलग बात है कि राजनीतिक खतरे को भाँपते हुए खान ने मना कर दिया। लेकिन इससे यह ज़ाहिर हो गया कि तालिबान इमरान पर भरोसा करता है। इमरान ने तब अपनी सफाई में कहा था कि पाकिस्तान तालिबान की खुद को यूएस वॉर से अलग करने की माँग उनकी पार्टी की इस बारे लाइन से मेल खाती है।
अपनी राजनीतिक रैलियों में भी इमरान खान तब तालिबान को लेकर बहुत नरम भाषा अपनाते थे। उसके िखलाफ तो कुछ बोलते थे ही नहीं। यह कुछ ऐसी बातें थीं, जिनके चलते पाकिस्तान में उनके राजनीतिक विरोधी इमरान को तालिबान खान तक कहने लगे थे। पीटीआई मौलाना फज़ल-उर-रहमान खलील के साथ भी हाथ मिला चुकी है, जो अमेरिका की आतंकवादी सूची में शामिल है।
दो साल पहले एक साक्षात्कार में इमरान तालिबान की न्याय प्रणाली का समर्थन कर दिया था, जिसके बाद दिवंगत बेनजीर भुट्टो के बेटे और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के सर्वेसर्वा बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने खान का ज़ोरदार विरोध किया था। यही नहीं जनवरी में इमरान खान की पार्टी पीटीआई तालिबान प्रभावशाली नेता सामी-उल-हक को मदरसे के निर्माण और रखरखाब के लिए 550 मिलियन पाकिस्तानी रुपये दान कर चुकी है।
आज इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं। उनके सत्ता में आने के बाद भारत से रिश्तों को लेकर कोई खास प्रगति नहीं देखी गयी है। उलटे 2019 के शुरू में तो भारत-पाक रिश्तों का तनाव चर्म पर पहुँच गया, जब पाक समर्थित आतंकियों ने पुलवामा में सेना के कािफले पर हमला कर दिया और जवाब में भारत की तरफ से बालाकोट हुआ। इमरान को लेकर यह भी धारणा रही है कि वे सेना के दबाव में काम करते हैं।
ऐसे में अफगानिस्तान में तालिबान हावी होता है, तो यह भारत के लिए गहन चिन्ता की बात होगी। दूसरे जिस तरह अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार तालिबान की रिहाई और पाकिस्तान से उनके सम्बन्धों को लेकर चिन्ता दिखा रही है, वही चिन्ता भारत की भी है। अफगानिस्तान में तालिबान हमेशा भारतीय हितों के िखलाफ काम करता रहा है और इसके पीछे पाकिस्तान का ही दिमाग माना जाता है। वहाँ काम करने वाले भारतीयों पर भी तालिबान ने हमले किये हैं।
दरअसल, इस्लामाबाद समर्थित तालिबान के साथ अमेरिका के समझौते में इस बात का कहीं भी ज़िक्र नहीं है कि अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में पाकिस्तान का हस्तक्षेप नहीं होगा। यह उल्लेख न होने से यह भी संकेत मिलता है कि अमेरिका ने इस शान्ति समझौते के ज़रिये एक तरह से अफगानिस्तान से अपने बाहर निकलने का रास्ता ही बनाया है।
यह हमेशा से माना जाता रहा है कि तालिबान की कुंजी वास्तव में पाकिस्तान के हाथ है। दरअसल, अमेरिका की कोशिश तालिबान और उसके हक्कानी नेटवर्क को अफगानिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति में लाने की कोशिश में है, जो वास्तव में उसकी अपनी रणनीति का हिस्सा है।
हालाँकि, बहुत से जानकार मानते हैं कि इससे पाकिस्तान को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप का अवसर मिलेगा, क्योंकि हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तान की पकड़ में रहा है। इसका सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी वास्तव में पाकिस्तान का ही खास माना जाता है और पूरी तरह आईएसआई और पाक सेना के इशारे पर काम करता है। यही नहीं, पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर हक्कानी और तालिबान को फंडिंग होती है, जो इस बात का साफ इशारा है कि दोनों देशों के रिश्ते मज़बूत हैं।