तीन तलाक, हिन्दुत्व, राम मंदिर, धारा-370, गोरक्षा आदि मुद्दों के नाम पर दोबारा सत्ता में आये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख पर अब फिर से आँच आने लगी है। क्योंकि लॉकडाउन में सबसे ज़्यादा परेशानी में घिरे किसान, मज़दूर वर्ग और बेरोज़गार हुए लोग अब भी नहीं उबर पा रहे हैं कि महँगाई ने गरीब और मध्यम वर्ग की कमर तोड़ दी है। उस पर केंद्र सरकार तीन नये कृषि कानून ले आयी है, जिन्हें किसान अपने खिलाफ बता रहे हैं। हालाँकि इन दिनों देश कोरोना वायरस और सीमा पर चीन से तनाव के अलावा अन्य कई मुद्दों पर उलझा है, लेकिन फिर भी वर्तमान सरकार के खिलाफ हर तरफ से आवाज़ें उठने लगी हैं। इसी के चलते सरकार के कुछ पक्षकारों द्वारा मथुरा मंदिर, सुशांत सिंह राजपूत और चीन से विवाद मामलों में जनता को उलझाने की स्थितियाँ भी बनायी जा रही हैं। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में बढ़ते अत्याचारों के चलते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा की छवि धूमिल होती जा रही है। जैसा कि सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश केंद्र की राजनीति का गढ़ माना जाता है और 2022 में वहाँ विधानसभा के चुनाव होने हैं।
वहीं स्थिति यह है कि मोदी सरकार के हालात भी तेज़ी से 2011 की मनमोहन सरकार की तरह होते जा रहे हैं, जब पूरे देश में सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन खड़ा हो गया था। कहा जाता है कि राजनीति अवसर के हिसाब से की जाती है, इन दिनों भाजपा के कुछ नेता इसी अवसर की फिराक में हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आपदाओं में अपने लिए अवसर नज़र आने लगा है। यही वजह है कि बीते जून में योगी सरकार ने अंग्रेजी के कुछ प्रमुख अखबारों के मुखपृष्ठ पर पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापन दिये थे, जिनमें योगी की बड़ी-सी मुस्कुराता हुई तस्वीर लगी थी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा गायब था।
राजनीति के जानकार बताते हैं कि इसका मतलब यही है कि योगी खुद को बड़े नेता के तौर पर पेश कर रहे हैं, ताकि वह 2024 तक केंद्र में मोदी की जगह ले सकें। सम्भवत: इसके पीछे योगी को बड़े चेहरे के रूप में देश भर में पेश करने की मंशा रही हो; क्योंकि अंग्रेजी के प्रमुख अखबार देश भर में जाते हैं और इन अखबारों का पाठक वर्ग बुद्धिजीवियों के अलावा एक खास तबका है, जिसके अधिकतर लोग हाई सोसायटी से ताल्लुक रखते हैं। इससे लगता है कि योगी अपने आपको अब मोदी से अलग एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने की ओर अग्रसर हैं।
सम्भवत: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रेरित होकर मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने की तर्ज पर उत्तर प्रदेश से दिल्ली की ओर कूच का सपना देख रहे हैं। कुछ राजनीतिक जानकार कहते हैं कि योगी की गतिविधियों से लगता है कि वे 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव को जीतने की कोशिश में लग गये हैं और अगर वे यह चुनाव जीते, तो उनकी नज़र केंद्रीय सत्ता पर होगी और वह इसका दावा ठोकने से पीछे नहीं हटेंगे। इससे लगता है कि वह अमित शाह को दूसरे नम्बर के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप मानते हैं और उन्हें हटाकर खुद कम-से-कम देश का दूसरे नम्बर का चेहरा बनना चाहते हैं।
वर्चस्व की यह लड़ाई अब इतनी बढ़ गयी है कि हाथरस में हुई दरिंदगी की घटना इस सियासत के घरे में आ गयी है। अब हाथरस मामला ज़िद और प्रतिष्ठा का सवाल बन चुका है।
सवाल यह है कि क्या यह मान लिया जाए कि मोदी के बाद योगी का केंद्र की सत्ता पर शासन होगा? क्या वाकई योगी खामोशी से 2024 में केंद्र की सत्ता में आने का दावा ठोकने लगे हैं? हालाँकि उनके करीबियों का तो यहाँ तक कहना है कि जिस प्रकार 2014 में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए 2014 में किया था, उसी प्रकार योगी आदित्यनाथ 2024 में अपना दावा पेश कर सकते हैं और इसके लिए वह आगे बढ़ते दिख भी रहे हैं।
वैसे तो 2024 तक तो मोदी की गद्दी सुरक्षित लगती है। लेकिन अगर मोदी की मुसीबतें ऐसे ही बढ़ती रहीं और किसी कारण भाजपा को 2024 में कम सीटें मिलीं, तो मोदी को गद्दी छोडऩी भी पड़ सकती है। क्योंकि छवि खराब होने के चलते भाजपा के सहयोगी दल मोदी के स्थान पर किसी और नेता के नाम पर अड़ सकते हैं। दरअसल भाजपा में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो चाहते हैं कि मोदी कमज़ोर पड़ें, तो उनका नम्बर लगे। इस रेस में योगी सबसे आगे नज़र आ रहे हैं। वह राजनीतिक रूप से देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री हैं और आरएसएस के विश्वसनीय भी। यह भी सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश से होकर ही दिल्ली की गद्दी का रास्ता गुज़रता है। इसीलिए दोनों बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश से ही चुनाव भी लड़े थे, ताकि वह अधिक सांसदों का विश्वास हासिल कर सकें। फिलहाल योगी चाहे जो सोच रहे हों, लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी और लोकसभा के चुनावी मैदान में विरोधियों को दो बार तगड़ी पटखनी दे चुके मोदी इतनी आसानी से बाज़ी हाथ से नहीं जाने देंगे। हो सकता है कि वह योगी का इलाज करने के लिए अंग्रेजी की कहावत आउट ऑफ द बॉक्स यानी अलग सोच के हिसाब से चलें। लेकिन यह क्या हो सकता है? राजनीतिज्ञ कहते हैं कि इसका एक हल है, जिस पर काम करने से योगी की महत्त्वकांक्षाओं का मुँहतोड़ जवाब देना आसान होगा। मेरी नज़र में यदि योगी इसी तरह बेकाबू रहे, तो मोदी यह दाँव खेल भी सकते हैं। यह दाँव है- उत्तर प्रदेश का चार हिस्सों में बँटवारा। क्योंकि मोदी के इस एक निर्णय से 80 सीटों वाले महत्त्वपूर्ण प्रदेश के प्रभावशाली मुख्यमंत्री योगी सिमटकर मात्र 25-26 सीटों वाले पूर्वांचल के मुख्यमंत्री बनकर जाएँगे और उनका राजनीतिक प्रभाव तथा कद भी काफी घट हो जाएगा।
इसके अलावा इस एक दाँव से समाजवादी पार्टी (सपा) का भी इलाज हो जाएगा; क्योंकि उत्तर प्रदेश के बँटवारे के खिलाफ सबसे ज़्यादा मुखर सपा ही रही है। परन्तु विभाजन के विरोध के कारण सपा खुद ही सिमट जाएगी। उत्तर प्रदेश में सपा का वोट बैंक भी चार हिस्सों में बँट जाएगा और वह केवल इटावा के आस-पास के चन्द ज़िलों की पार्टी बनकर रह जाएगी। विभाजित प्रदेशों में स्थानीय यादव एक बाहरी प्रदेश के यादवों का नेतृत्व शायद ही स्वीकार करें। यह ठीक वैसे ही होगा, जिस तरह हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों ने कभी एक-दूसरे का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया। इतिहास और राजनीतिक आँकड़े कहते हैं कि किसी भी प्रदेश के विभाजन से क्षेत्रीय दल प्रदेश के उसी बँटे हुए हिस्से में सिमट जाते हैं, जहाँ वे सबसे ज़्यादा मज़बूत होते हैं। उदाहरण के तौर पर आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार के बँटवारे के बाद के राजनीतिक परिणाम हमारे सामने हैं। देश में कोई भी ऐसा क्षेत्रीय दल नहीं है, जिसकी दो प्रदेशों में सरकारें रही हों या प्रदेश के बँटबारे के बाद बनी हों। इसलिए अगर उत्तर प्रदेश का बँटवारा होता है, तो हरेक पार्टी 20-22 लोकसभा सीटों वाले छोटे प्रदेश की पार्टी बनकर रह जाएगी। क्योंकि स्थानीय पार्टियों के लिए छोटे प्रदेशों में नये राजनीतिक समीकरणों को साध पाना असम्भव होता है, इसलिए पश्चिम में सपा का एक बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय उसे छोडक़र बसपा, कांग्रेस और रालोद की तरफ चला जाएगा।
बता दें कि राष्ट्रीय लोक दल रालोद तो पहले से ही पश्चिम उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाता रहा है और बसपा प्रमुख मायावती भी उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बाँटने की पक्षधर रही हैं। बसपा प्रमुख तो 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले खुद प्रदेश बँटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में पास करवा चुकी हैं, इसलिए वह अब चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर सकेंगी। रालोद भी प्रदेश के बँटवारे के मामले में सपा के साथ खड़े होने का जोखिम नहीं उठायेगा। क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अधिकतर जनता भी अलग राज्य बनाने की नीति के पक्ष में है, इसलिए इसका नुकसान प्रदेश की दो प्रमुख पार्टियों सपा और बसपा को ही सबसे अधिक होगा।
कुछ समय पहले बिजनौर से बसपा सांसद मलूक नागर ने प्रदेश के बँटवारे के विषय को संसद में उठाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को गरमा दिया है। राजनीतिक दलों में यह चर्चा है कि प्रदेश बँटवारे के मुद्दे को बसपा प्रमुख के इशारे पर ही हवा दी गयी है। उनका कहना है कि जिस दल में बहनजी की मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता, उसका एक सांसद बिना आलाकमान की मर्ज़ी के संसद में इतना बड़ा बयान कैसे दे सकता है? राजनीति के जानकार तो यह तक कह रहे हैं कि यह तीर वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इशारे पर चलवाया गया है।
भले ही उत्तर प्रदेश के बँटवारे के लिए कोई बड़ा जन आन्दोलन नहीं हुआ हो, लेकिन प्रदेश की अधिकतर जनता और अधिकतर नेताओं की हमेशा से इच्छा रही है कि उत्तर प्रदेश चार हिस्सों पूर्वांचल, बुंदेलखंड, अवध प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बँट जाए।
बहरहाल किसी भी प्रदेश का बँटवारा या उसकी सीमाएँ बदलने का काम केवल केंद्र सरकार के ही अधिकार क्षेत्र में आता है। संविधान की धारा-3 के अनुसार, किसी भी राज्य की सीमा में बदलाव या बँटवारे के बिल को केंद्र सरकार राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद संसद में सामान्य बहुमत से पास करवाकर बड़ी आसानी से उस प्रदेश का बँटवारा कर सकती है। इस बिल को सम्बन्धित प्रदेश सरकार को भी समर्थन और अनुमोदन के लिए भेजा जाता है; लेकिन प्रदेश सरकार की राय या समर्थन इसमें कोई खास बाधक नहीं होता। इसलिए अगर मोदी सरकार उत्तर प्रदेश को बाँटने का निर्णय ले ले, तो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार चाहकर भी प्रदेश के बँटवारे को नहीं रोक सकेगी। मोदी के लिए इसमें न तो कोई संवैधानिक कठिनाई है और न ही यह बहुत अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है। क्योंकि इसमें संवैधानिक संशोधन करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होगी।
प्रदेश के बँटवारे का निर्णय बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम होने के साथ-साथ मोदी सरकार की तमाम विफलताएँ छुपाने वाला कदम हो साबित हो सकता है। इतना ही नहीं मोदी का यह दाँव विपक्षी दलों में भी हडक़म्प मचा सकता है, जिससे उनकी साख फिर से मज़बूत हो सकती है और योगी भी सिमटकर केवल पूर्वांचल के मुख्यमंत्री मात्र रह जाएँगे। इससे उनका 2024 में केंद्रीय सत्ता में आने का सपना भी कमज़ोर पड़ जाएगा। हालाँकि इस बँटवारे का राजनीतिक लाभ भी भाजपा को ही मिलेगा, लेकिन भाजपा में फूट की स्थिति भी पैदा होगी। क्योंकि देश में भाजपा के कम-से-कम मोदी-योगी के नाम पर दो मत अथवा दल हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। मौज़ूदा केंद्रीय राजनीति को भेदने की कोशिश करके 2024 में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के ख्वाब देखने वाले तमाम दावेदारों को चित्त करने के लिए उत्तर प्रदेश का विभाजन एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जिससे कई निशाने एक साथ साधे जा सकते हैं। समय की धारा बड़ी तेज़ होती है। अगर मोदी समय की इस धारा का रुख भाँपने में नाकाम रहे, तो 2024 से बाद उनकी हालत भी अपने राजनीतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी की तरह हो सकती है। वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब ऐसा समय नहीं आने देंगे, क्योंकि वह राजनीति के मजे हुए खिलाड़ी हैं। इसके अलावा उनकी साख योगी से या दूसरे नेताओं से अभी बहुत मज़बूत है।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक है।)