फिल्म » मटरू की बिजली का मंडोला
निर्देशक» विशाल भारद्वाज
लेखक » अभिषेक चौबे, विशाल भारद्वाज
कलाकार » पंकज कपूर, शबाना आजमी, इमरान खान, अनुष्का शर्मा, आर्य बब्बर
कोशिश तो फिल्म करती है कि पीपली लाइव जैसी फिल्मों की तरह सिस्टम और मीडिया पर हंस सके और चोट भी करे लेकिन ‘मटरू’ उस गहराई का अंदाजा भी नहीं लगा पाती, जाती तो बाद में. फिल्म इस गुमान में है कि वह किसानों की जमीन के अधिग्रहण पर एक सैटायर बन जाएगी लेकिन समस्या और समाधान तो दूर है, यह एंटरटेनमेंट भी नहीं हो पाती. यह कुछ पुराने चुटकुलों और थोड़े बहुत टॉयलेट ह्यूमर का इस्तेमाल करके बार-बार फूहड़ हिंदी कॉमेडी फिल्मों की दिशा में जाने की पूरी कोशिश करती है और कई दफा कामयाब भी होती है.
एक अच्छा सीन है, जिसमें शबाना खुद को भारत कहते हुए भारत की कहानी बताती हैं या शुरू का एक दृश्य जिसमें पंकज शराब पीकर गांववालों को अपने विरुद्ध ही आंदोलन करने के लिए उकसाते हैं और आपको लगता है कि कुछ होगा इस फिल्म में. आपके साथ जो बैठा है, आप उसे उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं, वो आपको, कि जिस विशाल के सिनेमा से आपने कभी मोहब्बत की थी, बरसों बाद वह लौटा है. लेकिन लौटता नहीं. लौटती हैं ऑक्सफोर्ड से अनुष्का, जो एक गेंद ढूंढ़ने के लिए गांव के तालाब में शॉर्ट्स पहनकर नहाती हैं और हुजूर, यह हरियाणा का ही कोई गांव बताया गया है, जिसमें चारों तरफ बैठे आदमी उसे देखकर तालियां बजा रहे हैं. स्वर्ग आने को है.
फिल्म के अधिकतर किरदारों का नकली हरियाणवी टोन आपको अक्सर कोफ्त देता है. हैरी मंडोला और पीकर हरिया बने पंकज कपूर ने कमाल की ऐक्टिंग की है. लेकिन मंडोला और उसके खिलाफ लड़ने वाले (और अच्छे ऐक्टर) गांव के मास्टर को छोड़कर कोई मुख्य किरदार उस जगह का नहीं लगता जहां की यह कहानी है. शबाना और आर्य बब्बर का काम भी अच्छा है. फिल्म में एक बासी प्रेमकहानी भी है जिसकी लड़की पिता की मर्जी से शादी कर रही है और रो रही है कि उसका बहादुर प्रेमी उसे ले जाने आए.
यह अपनी कहानी में बहुत सारी जगह उस दिशा की फिल्म हो जाती है जिसके खिलाफ विशाल का शुरुआती सिनेमा लड़ा है. यह रिग्रेसिव है क्योंकि हरियाणा के किसानों की कहानी कहते हुए यह वहां की औरतों की तरफ देखती भी नहीं और एक बड़ी समस्या को डीडीएलजे समाधान देते हुए हंसी में उड़ा देती है. यह कहीं आपको जरा-सा भी परेशान नहीं करती. इसके लेखक अपनी कहानी, उसके गांव और उसके किरदारों के साथ ईमानदार नहीं रहे. इसके डायलॉग दिखावटी ज्यादा हैं और कई जगह, जहां ‘माओ लेनिन’ चिल्लाकर लाउड होकर ही सही, थोड़ा-बहुत सार्थक कहने की गुंजाइश रखते थे, फिल्म का निर्देशन इसे ले डूबता है.
-गौरव सोलंकी