सवाल बस एक. सीधा और सहज. बिना किसी किंतु-परंतु के. बिहार में जदयू और भाजपा अलग-अलग राह अपना लें, वर्षों की जिगरी दोस्ती जो फिलहाल रूमानी दुश्मनी जैसी लग रही है, सच में दुश्मनी में बदल जाए तो कौन 19 साबित होगा और कौन 20?
इसी एक सवाल को हम सीधे-सीधे कई लोगों के सामने रखते हैं. सीधे सवाल का जवाब सीधी तरह से कोई नहीं दे पाता. ‘लंगोटिया छाप’ या ‘दांत-काटी-रोटी’ जैसे संबंध रखने वाले दो दोस्तों के दुश्मन बनने का नतीजा बता देना इतना आसान भी तो नहीं होता. फिर भी जो चुनावी हिसाब-किताब में पारंगत होते हैं वे आंकड़ों की भाषा में हमें बताते हैं- देखिए, 2010 के विधानसभा में जनता दल यूनाइटेड को कुल 22.61 प्रतिशत वोट मिले थे जो पिछली बार उसे मिले वोट की तुलना में 2.15 प्रतिशत ज्यादा थे. भाजपा को 16.48 प्रतिशत मत मिले थे जो पिछली बार की तुलना में 0.81 प्रतिशत ज्यादा थे और लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को 18.84 प्रतिशत मत मिले थे जो पिछली बार की तुलना में 4.61 प्रतिशत कम थे. कुछ यह आंकड़ा भी सुनाते हैं कि जदयू 141 सीटों पर चुनाव लड़कर 115 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी लेकिन भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीटें हासिल की थीं. यानी ज्यादा लंबी छलांग भाजपा की रही थी.
इसी तरह हर किसी के पास अपने-अपने तर्क होते हैं. अनुमानों के आधार पर एक फैसला भी. लेकिन हर तर्क दो-तीन कदम की दूरी तय करके दम तोड़ने लगता है. किसी भी विश्लेषण का बेतरतीब उलझाव दावे के साथ नहीं कह पाता कि हां, जदयू 20 हो जाएगी या फिर भाजपा जदयू को पछाड़ देगी! आकलन के लिए विकास की बयार वाली राजनीति से बात शुरू होती है, धर्म-संप्रदाय से लेकर जाति तक पहुंचती है और फिर गोत्र की राजनीति तक का बारीक विश्लेषण होता है. लेकिन नतीजा क्या होगा, कोई आश्वस्त नहीं.
मामला इतना आसान भी तो नहीं है. 1996 से केंद्रीय राजनीति में हमसफर रहे और सात साल से बिहार में सत्तासीन दोनों दलों के बीच वोटों को लेकर ऐसी गुत्थमगुत्थई है कि एक-दो समूहों को छोड़कर दोनो दलों के नेताओं को ही अभी तक ठीक से नहीं पता कि असल में उनका अपना अलग-अलग कौन-सा आधार है. वह आधार जिसके बारे में वे दावा ठोक सकें कि चाहे कुछ हो जाए, वह हमारा है और रहेगा भी. जहां से जदयू चुनाव लड़ती रही है वहां भाजपा का वोट सीधे जदयू के खाते में आसानी से जाता रहा है और जहां भाजपा लड़ती रही है वहां जदयू का वोट भाजपा के खाते में. इसीलिए अब भी बिहार के राजनीतिक गलियारों में यह एक अनबूझा सवाल है कि भाजपा और जदयू में कौन किसकी वजह से मजबूत हुआ है.
जवाब 1995 से तलाशने की कोशिश करते हैं, जब समता पार्टी का भाकपा माले के साथ गठजोड़ हुआ था. तब विधानसभा में समता पार्टी की सीटें दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच सकी थीं. लेकिन 1996 में केंद्रीय स्तर पर भाजपा से गठजोड़ होने के बाद पार्टी की सीटों में उछाल और उभार का दौर शुरू हुआ. बाद में दो बार विधानसभा चुनाव में खिचखिच होने की वजह से राज्य स्तर पर दोनों दलों के बीच गठजोड़ नहीं हो सका. दोनों को आशानुरूप सफलता भी नहीं मिली. लेकिन जब 2005 में दो बार फरवरी और नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में दोनों ने एक साथ मिलकर लालू का मुकाबला किया तो अभेद्य माने जाने वाले लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का किला ही ढह गया. 2010 के विधानसभा चुनाव में जब इस गठबंधन को ठोस बहुमत और अपार जनसमर्थन के साथ फिर सत्ता मिली और जदयू की भारी बढ़त के साथ ही भाजपा की बढ़त दर और ज्यादा बढ़ी हुई दिखी तो फिर वही सवाल उछला कि आखिर किसकी वजह से कौन मजबूत हो गया. हालांकि जदयू के प्रदेश प्रवक्ता नीरज कुमार जैसे नेता कहते हैं कि नीतीश की वजह से ही बिहार में भाजपा आज इतनी बड़ी पार्टी बन सकी है. नीरज की तरह जदयू के और कई नेता यही कहते हैं और ऐसा ही मानते भी हैं. हो सकता है, यह एक हद तक सच भी हो लेकिन इन दिनों जिस तरह से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ सीपी ठाकुर जैसे नेता भी गर्जना करने लगे हैं कि सत्ता रहे या जाए पार्टी की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेंगे या फिर यह कि 40 लोकसभा सीटों और 243 विधानसभा सीटों पर हमारी तैयारी है या फिर यह कि पार्टी की हुंकार रैली में नरेंद्र मोदी भी आएंगे, तो यह सिर्फ अतिरेक का बयान भर भी नहीं माना जा सकता. भाजपा को भी अपनी जमीनी हकीकत का पता होगा, तभी तो उसके पार्टी अध्यक्ष भी नीतीश की परवाह किए बगैर इस तरह के बयान और कभी-कभी तो नसीहत भी देने लगे हैं कि सरकार को अपने संसाधनों से भी विकास की बात सोचनी चाहिए, सिर्फ दूसरों का मुंह देखने से कुछ नहीं होगा.
दोनों दलों के बीच वोटों को लेकर ऐसी गुत्थमगुत्थई है कि किसी को नहीं पता कि उसका कौन-सा अलग आधार है जिसे वह स्थायी तौर पर अपना बता सके
बहरहाल, हो सकता है कि अपने-अपने कार्यकर्ताओं में जोश-खरोश भरने के लिए भी भाजपा-जदयू की ओर से ऐसे बयान दिए जा रहे हों. लेकिन फिर उसी एक सवाल पर बात करते हैं कि अगर ऐसा हो ही जाए तो कौन 19 साबित होगा और कौन 20.
कभी नीतीश कुमार के खासमखास साथी रहे पूर्व विधान पार्षद प्रेम कुमार मणि का आकलन है कि दोनों दलों में अलगाव की स्थिति में जदयू की तुलना में भाजपा की स्थिति मजबूत हो जाएगी क्योंकि वह व्यापक सांगठनिक आधार वाली पार्टी है, उसका राष्ट्रीय कलेवर है और इतने सालों में बिहार में सरकार में शामिल रहकर उसने अपने संगठन का विस्तार और भी तरीके से किया है. मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार और सुशील मोदी में मैं मोदी को ज्यादा नंबर देता हूं क्योंकि नीतीश सात साल बड़ी-बड़ी बातें करने में लगे रहे और मोदी चुपचाप हां में हां मिलाकर अपनी पार्टी के दायरे के विस्तार को अंजाम देते रहे.’ मणि आगे कहते हैं, ‘आप ही बताइए कि क्या भीम सिंह, श्याम रजक, नरेंद्र सिंह, विजय चौधरी, विजेंद्र चौधरी जैसे नेता, जो बिहार में नीतीश के सिपहसालार हैं, अपने इलाके को छोड़कर कहीं एक वोट भी दिलवा पाने की स्थिति में हैं?’ पुराने समाजवादी कार्यकर्ता और बिहार नव निर्माण मंच के नेता सत्यनारायण मदन भी मणि की तर्ज पर ही बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘भाजपा को इस आधार पर नजरअंदाज करना कि उसके साथ तो सिर्फ सवर्णों का एक खेमा है, गलत है. भाजपा ने अपने दायरे का विस्तार हर जाति में किया है इसलिए वह भारी पड़ सकती है.’ नीतीश कुमार और उनके दल के पुराने संगी रहे और अब राजद नेता रामबिहारी सिंह कहते हैं, ‘यह याद रखिए कि भाजपा के पास जो भी जनाधार है या उसके खाते में जिस जनाधार का निर्माण हाल के वर्षों में हुआ है वह स्थायी स्वरूप का है. उसका अपना संगठन है जो इस आधार को बनाए रखने में सक्षम है. लेकिन नीतीश के पास स्थायी स्वरूप का कोई जनाधार नहीं है जिसके बारे में बहुत भरोसे के साथ यह दावा किया जा सकता हो कि वह उन्हीं के साथ रहेगा.’
नीतीश के ये तीनों पुराने संगी अलगाव की स्थिति में जदयू के कमजोर होने का आकलन करते हैं. इसके पीछे वे भाजपा की संगठनात्मक ताकत का हवाला बार-बार देते हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई भाजपा का संगठन बिहार में इतना मजबूत हो चुका है और अगर संगठन मजबूत भी है तो क्या बिहार में संगठनात्मक मजबूती के बूते चुनाव लड़े और जीते जाने का हालिया इतिहास रहा है. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘हालिया वर्षों में बिहार में सत्ता की लड़ाई मजबूत राजनीतिक नेतृत्व और ठोस राजनीतिक एजेंडे के आधार पर लड़ी जाती है. मतदाताओं का रुझान भी उसी पर निर्भर करता है. यहां जदयू-भाजपा बनाम राजद नहीं बल्कि लालू बनाम नीतीश की लड़ाई चली थी. लालू प्रसाद नीतीश कुमार के रूप में उभरे एक मजबूत राजनीतिक नेतृत्व से हारे थे. संगठन तभी कारगर साबित होता है और उसका प्रभाव होता है जब नेतृत्व मजबूत हो और राजनीतिक एजेंडा ठोस हो. इस लिहाज से नीतीश कुमार के जरिए उनकी पार्टी जदयू भाजपा पर बहुत भारी पड़ेगी क्योंकि बिहार में पिछले सात सालों से सब कुछ नीतीश के पाले में ही रहा है.’ सुमन आगे पूछते हैं, ‘अगर संगठनात्मक मुस्तैदी और मजबूती के आधार पर चुनावी जीत-हार का फैसला होना होता तो बिहार में वाम दलों की स्थिति ऐसी नहीं हुई होती. कम से कम भाकपा माले को 12-15 सीटें तो उस आधार पर मिलनी ही चाहिए थीं. लेकिन ऐसा कहां हुआ?’
सुमन की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बिहार में चुनाव राजनीतिक नेतृत्व के आधार पर लड़े जाते हैं और नीतीश ने सब कुछ अपने पाले में रखा है इसलिए वे मजबूत पड़ सकते हैं. प्रो. नवलकिशोर चौधरी भी कहते हैं कि नीतीश कुमार ने बहुत ही चतुराई से सात साल के शासन में सब कुछ अपने पाले में किया और मौके-बेमौके भाजपा के मनोबल को तोड़ा है. वे कहते हैं, ‘नीतीश ने भाजपा को दोयम दर्जे की पार्टी बनाकर रखा है, इसलिए अपनी बनी हुई छवि और जनमानस में पैठ की वजह से वे अकेले भाजपा पर भारी पड़ सकते हैं.’
यह सच है कि नेतृत्व के लिहाज से भाजपा बिहार में एक लुंजपुंज पार्टी के तौर पर दिखती है जिसके एक नेता सुशील मोदी उपमुख्यमंत्री तो जरूर हैं लेकिन अब भी उनका राजनीतिक व्यक्तित्व इस तरह का नहीं बन सका है कि पूरे राज्य में उनकी अपील हो. और फिर अब तो वे सत्ता में रहते-रहते नीतीश के इतने पक्षधर लगने लगे हैं कि अक्सर उनके बयानों से भाजपा के सामान्य कार्यकर्ता नाराज हो जाते हैं और यह दुविधाजनक स्थिति बनती है कि मोदी भाजपा के ही नेता हैं या नीतीश कुमार के प्रवक्ता! मोदी के अलावा भाजपा में और कोई दूसरा नेता भी नहीं दिखता जिसका व्यक्तित्व नेतृत्व के लायक बनाया या उभारा जा रहा हो. इसलिए नीतीश और उनकी पार्टी एक नेता के नेतृत्व के मामले में भाजपा पर 20 नहीं बल्कि 24-25 पड़ेंगे.
कई लोग मानते हैं कि जहां तक एक नेता और उसके नेतृत्व की बात है तो इस मायने में नीतीश और उनका दल भाजपा की तुलना में 20 नहीं बल्कि 24-25 साबित होंगे
लेकिन दूसरी ओर भाजपा इस मामले में जदयू पर 20 पड़ सकती है कि उसके दल में जो नेता हैं उनमें अधिकांश भाजपा के अपने ही हैं. संघर्ष के दिनों से लेकर अब तक साथ हैं. यानी भाजपा में नेताओं की जमात अपनी पार्टी के लिए बनिस्बत भरोसेमंद है जबकि नीतीश कुमार और जदयू का मोर्चा इस मामले में कमजोर लगता है. जदयू के कई पुराने साथी जो नीतीश के खासमखास माने जाते थे वे नीतीश से दूर हो चुके हैं या उन्हें दूर कर दिया गया है. कुछ ऐसे भी हैं जो जदयू में रहते हुए ही जदयू की कब्र खोदने में लगे हुए हैं. इसके अलावा फिलहाल जो नीतीश कुमार और जदयू की मंडली है उसमें अधिकांश लालू प्रसाद के बुरे दिन आने पर उनका साथ छोड़कर आए या सत्ता की चमक में नीतीश के साथ हुए नेता हैं.
दूसरी बात यह कही जा रही है कि चूंकि नीतीश कुमार ने पिछले सात साल में सब कुछ अपने पाले में कर रखा है और बिहार सरकार के नाम पर नीतीश की छवि ही चमकी है और इसका लाभ उन्हें और उनके दल को अलग होने की स्थिति में भी मिलेगा तो यह एक हद तक संभव है. लेकिन राजनीतिक जानकारों के एक वर्ग की मानें तो एक हद तक इसके उलट स्थिति उत्पन्न होने की भी गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता. अगर सभी सफलताओं का श्रेय नीतीश के खाते में ही जाता रहा है और भाजपा मौन साधकर सिर्फ तमाशबीन भर रही है तो दोनों दलों के अलगाव के बाद नीतीश कुमार के मत्थे ही तमाम विफलताओं और गलतियों का श्रेय भी जाएगा. तब यह संभव हो सकता है कि जिन गलतियों का दोष नीतीश पर मढ़े जाने से वे कमजोर होंगे या बैकफुट पर आएंगे, नीतीश की वही गलतियां अलगाव की स्थिति में भाजपा के लिए ‘विटामिन की गोली’ की तरह काम करेंगी. मसलन, फारबिसगंज गोली कांड पर नीतीश की अब तक की चुप्पी और कोई ठोस कार्रवाई की पहल तक नहीं करना जैसे कारक सीमांचल के मुसलमानों के एक हिस्से में गलत संदेश लेकर गए हैं. बताया जाता है कि नीतीश को यह चुप्पी इसलिए साधनी पड़ी थी क्योंकि फारबिसगंज के भजनपुरा में जिस जमीन को लेकर गोलीकांड तक की स्थिति आई उसमें अशोक अग्रवाल एक बड़े पार्टनर रहे हैं, जो भाजपा के पार्षद रहे हैं और सुशील मोदी के काफी करीबी भी. फारबिसगंज पर चुप्पी की सजा नीतीश को अकेले भुगतनी पड़ सकती है और सीमांचल इलाके में हिंदू मतों के ध्रुवीकरण के जरिए राजनीति करते हुए उस इलाके में ठीक-ठाक स्थिति रखने वाली भाजपा को नीतीश की इस चुप्पी का फायदा भी मिल सकता है. इसी तरह दो जून को ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद राजधानी पटना की सड़कों पर हुआ तांडव और उस पर सरकार की चुप्पी को लेकर भी नीतीश को घोर आलोचना झेलनी पड़ी है और आगे भी उसका असर बने रहने की गुंजाइश है. पिछड़ों-दलितों के एक बड़े खेमे में यह संदेश गया है कि मुखिया के ऊंची जाति के होने और भाजपा के दबाव की वजह से नीतीश ने राजधानी में तांडव मचाने की छूट दी. अगर यह दूसरी जाति का मामला होता तो प्रशासन चुस्त नजर आता. मुखिया की शवयात्रा में अंतिम संस्कार के समय मुखिया के परिजनों व समर्थकों से अपनी नजदीकी दिखाकर और पहले भी कई बार रणवीर सेना के पक्ष में परोक्ष तौर पर बयान देकर भाजपा एक खास जाति के प्रति अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता दिखा चुकी है.
ऐसी ही कई और बातें हैं जिन पर नीतीश कुमार को सफलताओं के साथ विफलताओं की भी जिम्मेदारी लेनी होगी. चूंकि नीतीश कुमार के स्वभाव से अपनी गलतियों को स्वीकारना गायब माना जाता है इसलिए परेशानी और ज्यादा होगी.
लेकिन इन तमाम बातों के बाद बिहार में किसी नेता की सबसे मजबूत कसौटी उसके जातीय व सामाजिक आधार को भी माना जाता है. अगर इस आधार पर भाजपा और जदयू को अलग-अलग कसने की कोशिश करें तो एक द्वंद्व-दुविधा की स्थिति बनती है. प्रेक्षकों का आकलन है कि अगली बार लोकसभा या विधानसभा, जो भी चुनाव होगा, उसमें अतिपिछड़ों और सवर्णों का मत सत्ता की राजनीति की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाएगा. साथ ही इस बात पर भी दिशा तय होगी कि जो मुसलमान लालू प्रसाद के माई यानी मुसलिम-यादव समीकरण को दरकाकर नीतीश के पाले में आ गए थे वे नीतीश के साथ ही बने रहते हैं या फिर लालू प्रसाद की ओर शिफ्ट होते हैं.
अतिपिछड़ों में 119 जातियां आती हैं. यादव, कोईरी, कुर्मी और बनिया को छोड़ अमूमन सभी पिछड़ी जातियां इसी समूह में शामिल हैं. पिछले चुनाव में इस समूह का सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को मिला था. इनकी आबादी करीब 42 प्रतिशत है. इस लिहाज से बिहार की राजनीति में फिलहाल यह सबसे मजबूत समूह है. नीतीश ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों का बंटवारा किया था, इसलिए स्वाभाविक तौर पर वे इस समूह की उम्मीदों और आकांक्षाओं के सबसे बड़े नेता बने थे. लेकिन अब इसी समूह में नीतीश के प्रति नाराजगी का भाव भी उभरा है. प्रशासन और सत्ता पर सवर्णों का दबदबा और ठेका-पट्टा आदि में पिछड़ों का ही दबदबा कायम रहना अतिपिछड़े समूह को नाराज किए हुए है. अतिपिछड़ों के अलग समूह में बंटवारे से पहले लालू प्रसाद इस समूह के स्वाभाविक नेता हुआ करते थे. इस बीच भाजपा ने भी कर्पूरी ठाकुर की जयंती मनाकर, उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग करके, मुजफ्फरपुर में सहनियों की रैली करके इस समूह के बीच अपना जनाधार बढ़ाने का काम किया है. इतने से अति-पिछड़ा समूह भाजपा के पास चला जाएगा या दूसरी स्थिति में उसका लालू प्रसाद के प्रति पुराना मोह जग जाएगा, यह कहना तो जल्दबाजी होगी, लेकिन यह तय है कि नीतीश यदि इस समूह की नाराजगी दूर नहीं कर पाते हैं तो अलग राह अपनाने के बाद उन्हें एक बड़े झटके का सामना करना पड़ सकता है.
एक वर्ग का मानना है कि अलगाव होने पर जदयू की तुलना में भाजपा की स्थिति मजबूत हो जाएगी क्योंकि वह व्यापक सांगठनिक आधार वाली पार्टी है
नीतीश का दूसरा महत्वपूर्ण ब्लॉक महादलितों का माना जाता है, लेकिन उस समूह में भी आजकल उबाल दिखता है. महादलितों के एक नेता रामचंद्र राम ने पिछले सप्ताह इस्तीफा दिया. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि नीतीश के राज में अफसरों का कुनबा महादलितों के साथ खिलवाड़ कर रहा है और योजनाओं में सिर्फ लूट मची हुई है. महादलितों के नाम पर हाल में बड़े घोटाले भी सामने आ चुके हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार उन पर तेजी से बढ़े हमले भी इस समूह को नाराज करने के लिए एक तथ्य मुहैया कराते हैं. ऐसे में इस समूह पर नीतीश की कितनी पकड़ बनी रहती है या पकड़ को मजबूत करने के लिए नीतीश कौन-सी अतिरिक्त कवायद करते हैं, इस बात पर भी कुछ हद तक यह निर्भर करेगा कि अलगाव की स्थिति में वे कितने मजबूत रहेंगे. भाजपा ने भोला पासवान शास्त्री जैसे नेता को बड़े फलक पर याद करके, लगातार दलित सहभोज आदि आयोजित करके इस समूह में भी सेंधमारी की कोशिश की है.
इन सबके साथ एक अहम फैक्टर मुसलमान हैं, जिनकी आबादी करीब 16.5 प्रतिशत है. इसमें भी पसमांदा मुसलमानों की आबादी कई सर्वेक्षणों के आधार पर करीब 70-80 प्रतिशत तक मानी जाती है. नीतीश कुमार पसमांदा मुसलमानों के पैरोकार नेता माने जाते हैं. 2005 में दूसरी बार नवंबर में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तो नीतीश के पाले में पसमांदा मतों का थोड़ा ध्रुवीकरण हुआ और वे मजबूत हुए थे. 2010 में नीतीक्ष के पक्ष में पसमांदा मतों का ध्रुवीकरण और भी ज्यादा हुआ. इससे उनके जनाधार में और बढ़ोतरी हुई क्योंकि राज्य में 20 से 25 प्रतिशत सीटें ऐसी हैं जहां इनकी आबादी 20-25 प्रतिशत तक मानी जाती है और ये कुछ हद तक समीकरण को बनाने-बिगाड़ने की स्थिति में हैं. पसमांदा मुसलमानों का या संपूर्णता में मुसलमानों का भले ही भाजपा को वोट देने से कोई मामला नहीं जुड़ता हो, लेकिन भाजपा से अलग होने के बाद नीतीश के भविष्य को तय करने में ये अहम फैक्टर होंगे. नीतीश की दूसरी पारी के करीब दो साल गुजरने पर पसमांदा मुसलमानों की नाराजगी बढ़ती जा रही है. इसकी कई वजहें बताई जाती हैं. नीतीश की कैबिनेट में दो मुसलमान मंत्री हैं- परवीन अमानुल्लाह और शाहीद अली खान ये दोनों ही अगड़ी श्रेणी से आते हैं. इसी तरह बिहार मदरसा बोर्ड, हज कमेटी, सुन्नी वक्फ बोर्ड, सिया वक्फ बोर्ड आदि पर भी अगड़े मुसलमान काबिज हैं. पसमांदा मुसलमान इसलिए भी नाराज हैं कि मल्लिक मुसलमानों को पिछड़ी सूची में शामिल कर लिया गया है जिन्हें हटाने की मांग लगातार हो रही है. इसी तरह तालीमी मरकज, हुनर-औजार आदि योजनाओं का बुरा हाल, स्कॉलरशिप राशि का नहीं मिलना और मदरसों की मान्यता का मामला अधर में लटके रहना नीतीश के लिए परेशानी का सबब बन सकता है.
अतिपिछड़ों, महादलितों या पसमांदा मुसलमानों की चर्चा इसलिए भी की जा रही है कि मात्र 2.6 प्रतिशत आबादी वाली कुरमी जाति से आने वाले नीतीश भाजपा से अलग होने के बाद अपने बूते बढ़ेंगे तो यही सब उन्हें मजबूती प्रदान करेंगे, वरना अपनी जाति के आधार पर लालू हमेशा बड़े नेता बने रहेंगे, क्योंकि राज्य में यादव आबादी करीब 11 फीसदी है.
इन सबके बाद भाजपा और जदयू, दोनों ही के लिए सबसे अहम फैक्टर होगा सवर्ण समूह और शहरी मध्यवर्ग का झुकाव. कांग्रेस से छिटके शहरी मध्यवर्ग और सवर्णों को स्वाभाविक तौर पर भाजपा का मतदाता माना जाता है और बिहार में भाजपा को सवर्णों की पार्टी के तौर पर देखा भी जाता है. लेकिन नीतीश कुमार भी सवर्णों के प्रिय नेता हैं, उनके दल में भी सवर्ण नेताओं की भरमार है और पिछले चुनाव में भी सवर्णों ने उन्हें दिल खोलकर समर्थन दिया था. नीतीश कुमार और सवर्ण समूह का ऐसा राजनीतिक रिश्ता बना है कि उसके कारण बिहार में ‘कुर्मी को ताज और सवर्णों का राज’ का जुमला चल रहा है. बिहार में सवर्णों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है. इसमें भूमिहारों को लालू विरोधी माना जाता रहा है और जिस दिन भाजपा-जदयू में अलगाव होगा, उस दिन यह जातीय समूह संभावनाओं के आधार पर शिफ्ट करेगा. अगर लालू को सत्ता से दूर रखने की क्षमता नीतीश में दिखेगी तो यह समूह भाजपा के बजाय नीतीश के साथ जाना ज्यादा पसंद करेगा. दूसरे, सवर्ण जातियों को भी लगता है कि नीतीश ने कम से कम उनके अहित के लिए कोई काम नहीं किया है, यहां तक कि बंदोपाध्याय कमेटी की भूमि सुधार रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डालना सवर्णों को खुश रखने की प्रक्रिया ही मानी जाती है. इसलिए सवर्णों का भी एक हिस्सा नीतीश को आसानी से नकारेगा नहीं, ऐसी संभावना जताई जा रही है. हां, यह जरूर है कि भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश के लिए दोधारी तलवार पर चलने की स्थिति आएगी. सवर्णों को तरजीह देंगे तो अतिपिछड़े और महादलित वोटबैंक पर असर पड़ सकता है, सवर्णों को दरकिनार करेंगे तो स्वाभाविक तौर पर वे भाजपा की ओर झुक जाएंगे.
एक बात और भी है. भाजपा और जदयू के अलगाव के बाद किसका पलड़ा कितना भारी होगा यह एक हद तक नरेंद्र मोदी फैक्टर पर भी निर्भर करेगा. अगर मोदी के नाम पर दोनों दलों के बीच अलगाव होता है तो स्थितियों में भारी उलट-पुलट हो सकती है. सीमांचल के अलावा कई दूसरे इलाकों में जाति के खोल से बाहर निकलकर भाजपा के खेमे में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण होने की गुंजाइश है. लेकिन उसी तरह के ध्रुवीकरण की गुंजाइश नीतीश के पक्ष में भी हो सकती है. मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष वोटर नीतीश के साथ आ सकते हैं. दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर के फायदा उठाने की कहावत पुरानी है. यानी यह स्थिति मुश्किलों से गुजर रहे लालू प्रसाद के लिए भी संजीवनी जैसी हो सकती है.
और अंत में, दोनों दलों के अलगाव के बाद मजबूत होने की एक चाबी कांग्रेस के पास भी है. अगर बिहार को भारी-भरकम विशेष जैसा कुछ कांग्रेस दे देती है तो नीतीश मजबूत होंगे क्योंकि यह धारणा मजबूत होगी कि यह सब उनकी वजह से ही हुआ, वे राज्य के लिए लड़ने वाले नेता हैं.