भाजपाई पिरामिड में समस्या जड़ की बजाय शीर्ष से शुरू होती है. देश में प्रधानमंत्री का एक पद है और इस पद के इर्द-गिर्द ही भाजपा का मर्ज और इलाज दोनों घूम रहे हैं. इसी पद की अदम्य लालसा ने लालकृष्ण आडवाणी को 85 बसंत बाद भी गतिवान बनाए रखा है. लेकिन उनकी इस गतिशीलता ने उस पार्टी की गति बिगाड़ रखी है जिसे खड़ा करने का श्रेय भी काफी हद तक उन्हें ही जाता है. कांग्रेस नीत केंद्र सरकार की विश्वसनीयता निम्नतम धरातल को छू रही है. सीडब्ल्यूजी, 2जी, आदर्श घोटाला और अब कोयले में हाथ काला. हाल के पांच में से चार विधानसभा चुनावों में इसकी दुर्गति हो चुकी है. कम-से-कम तीन सहयोगी (टीएमसी, एनसीपी, डीएमके) किसी भी समय सरकार की बांह मरोड़ने को तैयार बैठे हैं. ये स्थितियां किसी भी विपक्ष के लिए आदर्श कही जाएंगी, सत्ता में वापसी के नजरिये से भी और सरकार को नीचा दिखाने के लिहाज से भी. लेकिन हमारी मुख्य विपक्षी पार्टी इस अस्थिर दौर में भी क्या एक विश्वसनीय विकल्प है? वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी इसका जवाब देती हैं, ‘आज की स्थिति तो ऐसी नहीं है. आज भाजपा से जनता के बीच जो सिग्नल जा रहा है वह कलह का सिग्नल है. झारखंड में अंशुमन मिश्रा का मसला हो या कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा का. हर तरफ से एक ही सिग्नल मिल रहा है कि पार्टी में घमासान मचा हुआ है. गुटबाजी चरम पर है.’
नीरजा का इशारा भाजपा की दुखती रग की ओर है. आडवाणी की अदम्य इच्छा से जो समस्या शुरू होती है वह नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की महत्वाकांक्षाओं से टकरा कर इतनी जटिल हो जाती है कि नेतृत्व के मसले पर हर नाम के साथ तीन-चार किंतु-परंतु जुड़ जाते हैं. जनता के बीच भाजपा की दशा उस सेना की बन गई है जिसके सेनापति का पता नहीं और सारे सिपहसालार एक-दूसरे का सर काट लेने पर आमादा हैं.
2004 में एनडीए की अविश्वसनीय हार के बाद ही आडवाणी के सामने सक्रिय राजनीति से अलग एक वैकल्पिक भूमिका चुनने का विकल्प था. लेकिन उन्होंने अपने लिए कुछ अलग ही योजना बना रखी थी. 2004 के बाद वाले आडवाणी पहले से अलग थे. उनके सपने प्रधानमंत्री के पद तक जाते थे और उस पद तक जाने का रास्ता बताने वाले विश्वस्तों का एक गुट था. उसकी राय ही उनके लिए सर्वोपरि थी. यह समूह ही उन्हें पाकिस्तान यात्रा, जिन्ना की मजार पर बयान से लेकर समय-समय पर रथ यात्रा तक के सुझाव देता रहा. जिन्ना पर बयान की कीमत उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद गंवा कर चुकानी पड़ी.
दूसरी पीढ़ी (जेटली, सुषमा) और सत्तर पार वाली पीढ़ी (सिन्हा, जोशी) के बीच का द्वंद्व भाजपा के लिए एक बड़ा सिरदर्द है. दोनों एक-दूसरे की राह काटते हैं
2009 के लोकसभा चुनावों में किसी अन्य चेहरे के अभाव और आम सहमति के आधार पर आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा और एनडीए चुनाव में उतरे. लेकिन जनता ने उनके प्रेरणाविहीन और बुजुर्ग नेतृत्व को नकार दिया. एनडीए का यह सबसे बुरा प्रदर्शन था. बावजूद इसके आडवाणी ने हथियार नहीं डाले, जबकि उम्र भी अब उनके हाथ से निकल चुकी थी. पिछले साल केंद्र सरकार के व्यापक भ्रष्टाचार के खिलाफ वे एक और रथयात्रा पर निकल पड़े. इस बार उन्हें कार्यकर्ताओं और पार्टी का समर्थन हासिल करने के लिए नागपुर में माथा टेकना पड़ा. इतनी हील-हुज्जत के बावजूद आडवाणी ने खुद को उस परम पद की दौड़ से बाहर नहीं किया. उन्होंने हमेशा उस सीधे से सवाल का टेढ़ा जवाब दिया कि वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं या नहीं. उनके इस रुख से न सिर्फ पार्टी बल्कि मीडिया, संघ और निचले स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच भी यह संदेश गया कि उन्होंने अपनी इच्छा को तिलांजलि नहीं दी है. वरिष्ठ पत्रकार अशोक मलिक बताते हैं, ‘आज की स्थिति में न तो संघ उन्हें चाहता है न ही भाजपा में कोई उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ना चाहता है. ले-देकर आडवाणी की उम्मीद साठोत्तरी पीढ़ी के नेताओं से है (जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा) जो अपने से जूनियर नेताओं के नेतृत्व में काम करने की बजाय आडवाणी को आगे कर सकते हैं. और बदले में उन्हें महत्वपूर्ण पद मिलने की पूरी गारंटी है.’
आडवाणी का सबसे बड़ा विरोध उन्हीं के गृहराज्य से हो रहा है. मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को अब और ज्यादा दबाने के मूड में नहीं हैं. कॉरपोरेट मीटिंग हो, सद्भावना सभाएं हों या फिर टाइम और कुछ भारतीय पत्रिकाओं में पीएम पद का सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार जैसी पीआर कसरतें, मोदी अपनी उपस्थिति और स्वीकार्यता बढ़ाने का कोई मौका छोड़ नहीं रहे हैं. मोदी को लेकर पार्टी में दो तरह की धाराएं हैं. उनकी समर्थक धारा का मानना है कि पार्टी के सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार को कब तक पीछे रखा जाएगा. लेकिन दूसरी विचारधारा का मत कहीं ज्यादा वास्तविक और व्यावहारिक है. इसके मुताबिक मोदी ने अभी तक गुजरात के बाहर कहीं भी खुद को साबित नहीं किया है. और गुजरात में भी उनकी सफलता के पीछे 2002 के बाद उत्पन्न खतरनाक ध्रुवीकरण की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. चौधरी कहती हैं, ‘दिसंबर में होने वाले गुजरात विधानसभा के चुनावों के बाद राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का पदार्पण हो सकता है. हालांकि यह इस पर निर्भर करेगा कि वे इस बार गुजरात में कैसा प्रदर्शन करते हैं.’ मोदी के लिए परेशानी यह है कि अब उनका विरोध संघ के भी एक हिस्से से होने लगा है. उसकी चिंता यह है कि उनकी मनमानी शैली न तो पार्टी के हित में है न ही संघ की विचारधारा के हित में.
पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता और सबसे लोकप्रिय नेता की स्थिति के मद्देनजर पार्टी में दो सबसे स्वाभाविक चेहरे सामने आते हैं- सुषमा स्वराज और अरुण जेटली. इन दोनों ने संसद में अपने पूर्ववर्तियों (आडवाणी और जसवंत सिंह) की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है. सरकार को अलग-अलग मुद्दों पर घेरने से लेकर कई मुद्दों पर विरोधी पार्टियों को अपने साथ खड़ा करने में भी दोनों सफल रहे हैं. हालांकि दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं. सुषमा स्वराज ने 2004 में अपने मुंडन के एलान के बाद से एक लंबा सफर तय किया है. इस दौरान उन्होंने अपनी एक उदारवादी छवि का निर्माण भी किया है. लेकिन उनकी समस्या यह है कि संघ में उन्हें आज भी बाहरी के तौर पर ही देखा जाता है. उनका समाजवादी अतीत संघ के जेहन से मिट नहीं पा रहा है. अन्यथा एक कुशल वक्ता और भीड़ को अपनी तरफ खींच लाने वाली नेताओं की जमात में वे सबसे आगे हैं. इसके अलावा नीतिगत मसलों पर भी कई जगह उनके हाथ तंग हैं, विशेषकर आर्थिक मोर्चे पर.
अरुण जेटली दूसरी समस्या के शिकार हैं. उनकी छवि हमेशा से ही उदारवादी रही है. दूसरी पार्टियों के बीच भी वे काफी स्वीकार्य माने जाते हैं. उनकी यह छवि एनडीए को साधे रखने में सहायक साबित हो सकती है. लेकिन वे कभी भी मास लीडर बन कर नहीं उभरे हैं. यह बात उनके खिलाफ जाती है. हालांकि पार्टी की नीतियों और रणनीतियों को बनाने में उनकी भूमिका हमेशा अग्रणी रही है, इसलिए उन्हें दरकिनार कर पाना बहुत मुश्किल है. जेटली के पक्ष में एक बात और जाती है. यदि किन्हीं वजहों से मोदी अपने प्रयासों में सफल नहीं हो पाते हैं तो वे जेटली को अपना समर्थन दे सकते है. यह बात जगजाहिर है कि जेटली-मोदी की आपसी समझदारी बहुत अच्छी है.
भाजपा की समस्या यह है कि चुनाव से पहले वह अपने झगड़े निपटा नहीं सकती और बिना झगड़ा निपटाए जनता उसपर विश्वास नहीं कर सकती
दूसरी पीढ़ी के इन नेताओं की राह में अड़चन सत्तर पार वाली पीढ़ी से है. सरकार बनने की सूरत में यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह या फिर मुरली मनोहर जोशी इनके नाम पर अड़ंगा लगा सकते हैं.ऐसी स्थिति में आडवाणी एक बार फिर से प्रासंगिक हो जाएंगे.
यह तो तब की स्थिति है जब भाजपा और संघ को अपना नेता चुनने की आजादी हो. लेकिन वर्तमान इसकी इजाजत नहीं दे रहा. आज इन दोनों से इतर एक तीसरा पक्ष भी उतना ही मजबूत हो चुका है, उसका नाम है एनडीए. अशोक मलिक बताते हैं, ‘आज सरकार बनने की स्थिति में पीएम पद तय करने वाला तीसरा पक्ष एनडीए भी है. अब अकेले संघ और भाजपा नेता का चुनाव नहीं कर सकते हैं. बिना उसकी सहमति के किसी नाम पर मुहर नहीं लग सकती.’ एनडीए के नजरिये से एक और बात काफी महत्वपूर्ण है. ज्यादातर राज्यों के चुनावों में जहां भी भाजपा अपने सहयोगियों के साथ चुनाव लड़ी है वहां सहयोगी मजबूत हुए हैं और भाजपा की हालत कमजोर हुई है. पंजाब में अकाली मजबूत हुए, बिहार में नीतीश कुमार को कोई नजरअंदाज कर नहीं सकता. ऐसे में अगर भाजपा अपनी मौजूदा सौ-सवा सौ सीटों तक ही अटकी रही तो संभव है कि एनडीए के किसी अन्य घटक दल के नेता के नाम पर भी सहमति बन जाए. अशोक मलिक के शब्दों में, ‘जिन भी जगहों पर चुनाव हो रहे हैं, वहां कांग्रेस के खिलाफ क्षेत्रीय पार्टियां ही मजबूत होकर उभरी हैं. सिर्फ उन्हीं जगहों पर भाजपा बढ़त में है जहां उसका कांग्रेस से सीधा मुकाबला है. भाजपा को हर हालत में एनडीए का दायरा फैलाना होगा और अपनी सीटों को कम- से-कम 180 तक ले जाना होगा. तभी वह अपने नेता को पीएम पद पर बिठा सकती है.’
मगर एनडीए को लेकर एक बड़ी दिक्कत और है. आज उसका कुनबा जदयू, अकाली और शिवसेना तक सिमट कर रह गया है. एक जदयू को छोड़ दें तो बाकी दोनों कमोबेश कट्टरपंथी विचारधारा वाली पार्टियां हैं. 90 के दशक में भी, जब एनडीए अस्तित्व में आया था, अगर दक्षिण भारत की दो पार्टियों को छोड़ दिया जाए (एआईएडीएमके और डीएमके जिनके लिए मुसलिम वोट बैंक मजबूरी नहीं है) तो अन्य किसी क्षेत्रीय पार्टी ने भाजपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रभाव वाले दौर में 24 पार्टियों का जो उस पर गठबंधन तैयार हुआ था उसके ज्यादातर सहयोगी चुनाव के बाद इसमें शामिल हुए थे. इसकी सीधी-सी वजह है उनका मुसलिम वोट बैंक. नायडू हों, पटनायक हों, पासवान हों या ममता बनर्जी हों. मुसलिम वोटों की मजबूरी चुनाव से पहले इन्हें भाजपा के पाले में आने नहीं देगी. चौधरी बताती हैं, ‘चुनावों से पहले किसी भी सहयोगी का एनडीए के साथ आना मुश्किल है. उनके मुस्लिम वोट की मजबूरी इसमें बाधा बनेगी. इसलिए भाजपा को अकेले दम पर 200 सीटों के आस-पास पहुंचना होगा. और इसके लिए अपनी लड़ाई को खत्म करना उनकी पहली जरूरत होगी.’
तो क्या ऐसा कोई जादुई फाॅर्मूला हो सकता है जिससे शीर्ष पर मचा घमासान थम जाए? किसी भी फाॅर्मूले की सबसे पहली मांग होगी अपनी आकांक्षाओं का त्याग, पूरा नहीं तो कुछ हद तक ही सही. जानकार मानते हैं कि कुछ भी करके अगर संघ, गडकरी और भाजपा नेतृत्व का एक हिस्सा आडवाणी को समझाने में कामयाब हो जाएं तो पार्टी की आधी से ज्यादा समस्याओं का निराकरण हो सकता है. क्योंकि अभी जो आडवाणी अपनी सारी ऊर्जा जोड़-तोड़ और उठापटक की राजनीति में लगाते हैं उसका उपयोग फिर पार्टी के हित में किया जा सकेगा. मगर इसके लिए पार्टी और संघ को उन्हें भी एनडीए की सरकार बनने की स्थिति में कुछ-कुछ सोनिया गांधी की वर्तमान स्थिति जैसे पद का वादा करना होगा. इसके बाद बारी आती है मोदी की. स्वीकार्यता के स्तर पर मोदी को अभी साबित करना है. सीधे परम पद की रेस में जाना उनके राजनीतिक भविष्य के लिए दुखदायी सिद्ध हो सकता है. अगर वे पहले ही प्रयास में असफल रहते हैं तो उनका राजनीतिक भविष्य हमेशा के लिए अधर में लटक सकता है. मोदी की तमाम प्रशासनिक खूबियों के बावजूद एनडीए के सहयोगियों आदि के बीच उनकी स्वीकार्यता एक बड़ी समस्या है. अगर वे पहले से ही इस बात को समझ जाते हैं तो यह उनकी पार्टी के लिए संजीवनी साबित हो सकता है. तो उन्हें सरकार बनने की स्थिति में किसी ऐसे पद का वादा करके समझाया जा सकता है जो केंद्रीय राजनीति में उनकी स्वीकार्यता को बढ़ाकर उनके लिए आगे का रास्ता तैयार करे. यह पद उपप्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक कुछ भी हो सकता है. यहां से भाजपा के सामने उस चेहरे की लड़ाई शुरू होती है जिसे आगे रखकर 2014 के समर में उतरना है. गडकरी ने खुद को तो इस दौड़ से बाहर रखने का पहले ही एलान कर रखा है. इसलिए वे आडवाणी और संघ के सहयोग से इस शीर्ष पद के लिए मची धींगामुश्ती को विराम देने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं. लेकिन सबसे पहला और बड़ा सवाल आडवाणी के समझने का ही है.
हालांकि यह न तो कोई जादुई फॉर्मूला है और न ही राजनीति में इतनी सरलता से झगड़े निपटाए जाते हैं. ऊपर से इन सबके साथ एक विकट प्रश्न है सबका एक ही पीढ़ी से आना. ऐसे में इनके बीच एक-दूसरे के प्रति आदर भाव का अभाव भी इन्हें एक मंच पर लाने में बाधा उत्पन्न करता है और आगे भी करेगा. नीरजा चौधरी इसे इस तरह समझाती हैं, ‘राजनेता जनता की नब्ज को बहुत जल्दी समझ लेते हैं. सरकार बनने की स्थिति में वे किसी-न-किसी समझौते पर पहुंच ही जाएंगे. लेकिन सरकार बनने से पहले ऐसा कोई समझौता शायद ही हो सके.’ यही भाजपा की समस्या है. पहले वे अपने झगड़े निपटा नहीं सकते और बिना झगड़ा निपटाए जनता उस पर विश्वास नहीं कर सकती.