एक जमाना था जब दादा जी के शहर पठानकोट से कांगड़ा के रास्ते जोगिंदर नगर जाने वाली मीटरगेज रेलगाड़ी में आज की तरह डीज़ल का नहीं बल्कि कोयले का इंजन लगता था. खिलौने जैसी यह गाड़ी तब पठानकोट से कांगड़ा की अस्सी किलोमीटर की दूरी चार घंटे में नहीं बल्कि अनंतकाल में तय करती थी. गुलेर स्टेशन के बाद रेलगाड़ी अचानक कब चढ़ाई पर हांफते-हांफते सांस लेने के लिए रुक जाए, कहा नहीं जा सकता था. ऐसे मौके पर गाड़ी से कूदकर नीचे बहती पहाड़ी कूल में से पानी की बोतल भरकर लाने और चलती गाड़ी में वापस आ चढ़ने का शगल ऐसा था जो बार-बार इस यात्रा की ओर खींचता था.
ऐसी ही एक यात्रा में जोगिंदर नगर से लौटते हुए मैं और मेरा छोटा भाई एक रिश्तेदार के यहां कांगड़ा रुक गए. वहां सामने पहाड़ की ऊंची बर्फदार चोटियों के बीच एक छोटी-सी बस्ती धूप में चमका करती थी और रात को वहां जुगनू के झुंड की तरह बत्तियां टिमटिमाया करती थीं. हमें बताया गया कि वह धर्मशाला है जहां दलाई लामा और उनके तिब्बती ‘लांबे’ रहते हैं. कई बरस बाद एक पत्रकार के रूप में तिब्बती समाज के साथ दोस्ती होने के बाद मुझे समझ आया कि हिमाचली लोग हर तिब्बती को ‘लामा’ मानते हैं और ठेठ हिमाचली अंदाज में हर लामा के लिए ‘लांबा’ और एक से ज्यादा के लिए ‘लांबे’ का इस्तेमाल करते हैं.
पिता जी के मुफ्त रेलपास की वजह से हमने शाम की आखिरी गाड़ी से पठानकोट जाने का फैसला किया. राम जाने क्या कारण था कि आम तौर पर खाली चलने वाली रेलगाड़ी उस रात ठसाठस भरी हुई थी. सेकंड क्लास का पास होने के बावजूद हमें थर्ड क्लास के डिब्बे में फर्श पर बैठना पड़ा. हमारे पास सिर्फ एक चादर थी जिसे फर्श पर बिछाकर हम दोनों भाई उसी पर सिमट गए. पास में एक सीट पर एक अधेड़ तिब्बती था. उसकी गोदी में दो-ढाई साल का गोल-मटोल बच्चा था जो रह-रहकर मेरे बाल पकड़ने की कोशिश कर रहा था. मैंने एक-दो बार मुस्कुराकर उसका नन्हा-सा हाथ थाम लिया तो वह जोर से खिलखिला पड़ा. उसके बाद तो यह एक साझा शगल हो गया और हम दोनों के बीच दोस्ती का एक रिश्ता कायम हो गया जिसने उस तिब्बती के चेहरे पर भी मुस्कुराहट ला दी. कुछ ही देर में बच्चा लपककर मेरी गोदी में आ गया. तांबई रंग के इस गुद-गुदे से खिलौने के सिर से कुछ ऐसी भीनी गंध आ रही थी जो आज पचास साल बाद भी कई बार मेरे नथुनों को छूकर निकल जाती है.
कुछ देर बाद गाड़ी अचानक रुकी तो यात्रियों का एक नया रेला आ गया. अचानक शोर ने मेरी ऊंघ को तोड़ा और मैं झटके से उठ बैठा. देखा तो दो हट्टे-कट्टे गबरु से जवान सीट पर बैठे तिब्बती को डांट कर सरकने को कह रहे थे. एक के हाथ का डंडा तिब्बती की छाती में घुसा चाह रहा था. उनकी इस हरकत ने मेरे लड़कपन के गुस्से को ऐसा जगाया कि मैंने पूरी ताकत से चिल्लाकर उसे डंडा हटाने की चुनौती दे डाली. बंदे ने डंडा हटाया तो सही लेकिन तुरंत वह डंडा मेरी नाक और माथे के बीच धम्म से आ टिका. तब मुझे अहसास हुआ कि वे दोनों साहब बिना वर्दी के पुलिसवाले थे. आस-पास बैठे कुछ लोगों ने तुरंत बीच-बचाव किया तो डंडा मेरी नाक से हटा. लेकिन हटने से पहले डंडा यह बता चुका था कि मेरा पाला आसान लोगों से नहीं पड़ा था.
इसके बावजूद मैंने एक सवाल तो दाग ही दिया, ‘इस बेचारे ने आपका क्या बिगाड़ा है?’. उसने डंडे को धमकी भरे अंदाज़ में हवा में उठाया और बोला, ‘ओए फिट्ट रै अपनी जगा ते. ज्यादा लीडरी मत दखाना, वरना… .’ और उसके बाद अपनी धमकी पूरी सुनाने के बजाय वह उस तिब्बती पर गरजने लगा, ‘…अफीमां वेचदे ने ऐ स्साले चीन्नी… ओए, निकाल कित्ते रक्खी है अफीम. स्साला चोर दा पुत्तर न होवे ते… .’ और यह कहते-कहते उसने हक्के-बक्के तिब्बती के हाथ से कपड़े की वह गठरी छीन ली जिसे वह सीने से चिपटाए हुए था.
जिस उत्साह से पुलिसवाले ने गठरी में हाथ डाला, उसे देखकर लोगों को एक बार तो लगा कि अब इसमें से अफीम ही निकलेगी
जिस उत्साह के साथ पुलिसवाले ने गठरी का धागा खींच कर उसमें हाथ डाला, उसे देखकर लोगों को एक बार तो लगा कि अब इसमें से अफीम ही निकलेगी. लेकिन दो-तीन झटकों के बाद उसने जब हाथ बाहर निकाला तो उसमें आटे जैसा कुछ सफेद चूरन निकला. पुलिसवाले की खा जाने वाली सवालिया आंखों के जवाब में तिब्बती मेरी गोदी में सोए अपने बच्चे की ओर इशारा करते हुए बस इतना ही बोला, ‘बाबू… बच्चे का सांपा है … सत्तू है… .’ पुलिसवाले ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा, ‘ओए ठीक है. बैठा रह चुपचाप. पता नईं कित्थों आ जांदे ने ऐ चीन्नी. चोर दा पुत्तर न होवे ते… .’ अब की बार तिब्बती पुलिसवाले की आंखों में आंखें डालते हुए बोला, ‘बाबू. हम चीनी नहीं हैं. मैं तिब्बती हूं. ऐसा गाली मत दो. चीनी मत बोलो… .’ मैंने लोगों के चेहरे देखे. मेरी तरह उन्हें भी समझ आ रहा था कि तिब्बती को चोर दा पुत्तर कहलाने पर नहीं बल्कि ‘चीनी’ कहलाने पर गहरा एतराज़ था. आखिर उसके देश पर चीनी कब्जे की वजह से ही तो वह यहां भारत में था.
तब तक डिब्बे में वैसी शांति आ चुकी थी जो शुरुआती उथल-पुथल के बाद हर हिंदुस्तानी रेलगाड़ी में पैर पसार लेती है. लोगों ने खिसक कर दोनों पुलिसवालों के लिए भी जगह बना दी थी. मैं भी उस सोए हुए नन्हे तिब्बती गुड्डे को बांहों में लिए डिब्बे की दीवार से सटा बैठा रहा. पता नहीं कब नींद आ गई.
अगली सुबह डिब्बे में हलचल ने मेरी आंखें खोल दीं. गाड़ी शायद गुलेर स्टेशन पर रुकी थी. नई सवारियों की धक्का-मुक्की और शोर ने डिब्बे में फिर से रौनक ला दी थी. डिब्बे की ठंड में मुझे अचानक मेरे और भाई पर ओढ़े हुए कंबल की गर्माहट का अहसास हुआ. पता नहीं कब किसने यह कंबल हम दोनों पर डाल दिया था. हड़बड़ाकर मैंने आस-पास देखा तो पहचाने हुए चेहरों में सिवाए दोनों पुलिसवालों के कोई और नहीं दिखा. वह तिब्बती, उसका नन्हा बच्चा… और रात वाले बाकी हमसफर रास्ते में कहीं उतर चुके थे. सकपकाते हुए मैंने डंडे वाले सिपाही से पूछ लिया, ‘ भाई साब, ये कंबल आपका है क्या? हमारे पास तो सिर्फ एक चादर ही थी… .’
इससे पहले कि सिपाही कुछ बोलता, डंडे वाले ने एक लंबी मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा, ‘हां हां, रात को तुम दोनों को ठंड में देखकर हमने सोचा तुम पर डाल दें कंबल.’ और यह कहते-कहते उसने आगे हाथ बढ़ाया. मैंने भाई के ऊपर से कंबल खींच कर उनकी ओर बढ़ा दिया. कंबल लेते ही पुलिसवाले ने अपने दूसरे साथी को कहा, ‘चल भाई, चलना नईं क्या? अपना टेशन आ गया वे… .’
एक स्टेशन गुजर जाने के बाद अचानक मेरे नथुनों में कहीं से उस गोल-मटोल बच्चे के गंजे सिर से उठने वाली तांबे जैसी खुशबू फिर से घुसने लगी. अरे, यही खुशबू तो उस कंबल में भी थी…, भीतर से एक सवाल गूंजा, ‘कौन था वो चोर दा पुत्तर?’ आज पचास बरस के बाद भी इस सवाल की उलझन और वह तांबई खुशबू कभी-कभी यादों के दरवाजे पर दस्तक देती हैं. चोर दा पुत्तर हर बार इसी अंदाज में याद आता है.