दिसंबर के दूसरे हफ़्ते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने संकेत दिये कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं। इसके कुछ दिन बाद ही भाजपा की कोर टीम ने देश की उन 160 लोकसभा (पहले 144 की थीं) सीटों को चिह्नित किया, जहाँ वह ख़ुद को कमज़ोर मानती है और उन पर काम करना चाहती है। पटना और हैदराबाद की बैठकों में उसने इस पर मंथन किया है।
ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष (तीसरा मोर्चा) समय का इंतज़ार कर रहा है, जबकि कांग्रेस राहुल गाँधी के नेतृत्व वाली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के ज़रिये पहले ही जनता में पहुँच चुकी है। भाजपा के विपरीत कांग्रेस को देश भर की अधिकतर सीटों पर मेहनत की ज़रूरत है, जिनमें से काफ़ी उसके सहयोगियों और भाजपा के पास हैं। गुजरात में तीसरे नंबर पर रहने और हिमाचल में सभी सीटों पर जमानत गँवा देने के बाद आम आदमी पार्टी (आप) के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बनने का सपना अभी अधूरा लगता है; लेकिन इसके बावजूद कुछ राज्यों में अपनी उपस्थिति दिखाने की उसकी कोशिश होगी। ऐसी ही स्थिति तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की है, जो पश्चिम बंगाल से बाहर ज़्यादा कुछ नहीं कर पायी है। हालाँकि यह भी सच है कि पार्टी की नेता ममता बनर्जी की देशव्यापी छवि है और विपक्ष के काफ़ी दलों में उनकी स्वीकार्यता भी है।
पहले बात करते हैं भाजपा की, जो सीट-दर-सीट अपनी ख़ामियों और मज़बूती का आँकड़ों और जातीय समीकरणों के आधार पर आँकलन कर रही है। उसने ऐसी 160 लोकसभा सीटों को पाया है, जहाँ वह समझती है कि यदि रणनीति में फेरबदल नहीं करती, तो हार भी सकती है। इस लिहाज़ से देखा जाए, तो उसे देश भर की उन आधी से ज़्यादा सीटों, जिन पर वह लड़ती है; पर मेहनत की दरकार है। ज़ाहिर है प्रधानमंत्री मोदी जैसा ब्रांड नाम और अमित शाह और जे.पी. नड्डा जैसे मझे रणनीतिकार पास होते हुए भाजपा को उम्मीद है कि वह इस संख्या को काफ़ी कम कर लेगी।
दक्षिण अभी भी भाजपा की कमज़ोर नस बना हुआ है। भाजपा की चिह्नित की इन 160 सीटों में अधिकतर दक्षिण क्षेत्र की हैं, जहाँ भाजपा की उपस्थिति नाममात्र की ही है। जैसे तमिलनाडु की 36, आंध्र प्रदेश की 25, केरल की 20, तेलंगाना की 12 सीटें शामिल हैं। यही नहीं महाराष्ट्र, जहाँ भाजपा शिंदे वाली शिवसेना के साथ सत्ता में है, वहाँ की भी काफ़ी सीटों को उसने चुनौतीपूर्ण माना है।
पश्चिम बंगाल, जहाँ ममता बनर्जी मज़बूती से पाँच जमाये हुए हैं; की 23 सीटों पर भाजपा को लगता है कि जीतने के लिए उसे मेहनत करने की ज़रूरत है। और नीतीश कुमार से गठबंधन टूटने के बाद विपक्ष में बैठी भाजपा बिहार में 22 सीटों को कमज़ोर मानती है। पिछला चुनाव वहाँ उसने जिन नीतीश कुमार के साथ चुनाव लड़ा था, अब वो तेजस्वी यादव की राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन में हैं। अन्य बड़े राज्य, जहाँ भाजपा की लिस्ट में कमज़ोर शब्द लिखा है, वह उत्तर प्रदेश की 12 और इतनी ही ओडिशा की लोकसभा सीटें हैं।
यदि राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा का असर रहता है, तो दक्षिण में भाजपा के लिए अगले चुनाव में कठिनाई पैदा हो सकती है। कर्नाटक में भाजपा ख़ुद को सिर्फ पाँच ही सीटों पर कमज़ोर मानती है; लेकिन वहाँ कांग्रेस बेहतर कर सकती है। कर्नाटक में अगले साल विधानसभा का चुनाव है और वहाँ भाजपा को अपनी सरकार को दोहराना होगा, अन्यथा संकट की स्थिति बन सकती है।
राहुल की यात्रा के बाद कर्नाटक में कांग्रेस का काडर सक्रिय होता दिख रहा है, जिसकी कांग्रेस को बहुत ज़रूरत थी। यदि वह विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करती है, तो भाजपा को लोकसभा चुनाव के लिए कहीं ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। कांग्रेस का मक़सद साफ़ है, वह 2024 के लिए तैयारी कर रही है। राहुल की यात्रा के बाद पार्टी राज्य बार भारत जोड़ो यात्रा निकलने की योजना बना चुकी है, जिससे उसे अपने कार्यकर्ता को ज़मीन पर सक्रिय करने में बहुत मदद मिलेगी। राज्य में देवेगौड़ा की जेडीएस भी है, जिसका काफ़ी इलाक़ों में आधार है।
2019 बनाम 2024
भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर भारत में ही ज़्यादातर सीटें जीती थीं। कुछ राज्यों में तो सभी की सभी। लिहाज़ा यदि वह यह प्रदर्शन नहीं दोहरा पाती है, तो इसकी भरपाई वह कहाँ से करेगी, इस पर वह मंथन कर रही है। हालाँकि यह इतना आसान नहीं होगा। दक्षिण उसके लिए विकल्प था; लेकिन अब वहाँ उसकी राह आसान नहीं दिखती। उसे उत्तर भारत में अपना पिछले प्रदर्शन पूरी तरह दोहराना होगा। भाजपा ने पिछले चुनाव में 303 सीटें जीतीं थीं, जो लोकसभा की कुल सीटों में बहुमत से 31 ही ज़्यादा है। सीटों का थोड़ा-बहुत अनुपात दाएँ-बाएँ होने से ही उसके लिए संकट बन सकता है।
कर्नाटक में मई, 2023 में विधानसभा चुनाव हैं। साल 2019 के चुनाव में भाजपा ने 28 सीटों में 25 जीत ली थीं। वर्तमान में 224 विधानसभा सीटों में भाजपा के पास 104 सीटें हैं। कर्नाटक भाजपा के लिए इस बार चुनौतीपूर्ण रह सकता है। साल के आख़िर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव हैं। दो जगह कांग्रेस सत्ता में है। निश्चित ही भाजपा को इन राज्यों में कांग्रेस की सीधे चुनौती होगी, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में उसने राजस्थान (25) और मध्य प्रदेश (29) की सभी सीटें जीत ली थीं। छत्तीसगढ़ में 11 में से नौ उसके पास हैं। मध्य प्रदेश में भी भाजपा को सन् 2019 वाला प्रदर्शन दोहराने में कठिनाई हो सकती है।
दक्षिण में दिसंबर, 2023 में तेलंगाना के चुनाव हैं। वहाँ भाजपा के पास महज़ एक विधानसभा, जबकि 4 लोकसभा सीटें हैं। भाजपा के लिए वहाँ कठिन चुनौती है। केसीआर सरकार को सत्ता से बाहर करना कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए मुश्किल है। हालाँकि भाजपा को लगता है कि वह ऐसा कर सकती है। विधानसभा चुनाव जीत गये, तो केसीआर लोकसभा के चुनाव में भी इस बार ज़्यादा ज़ोर लगाएँगे। वह राष्ट्रीय राजनीति को लेकर अपनी महत्त्वाकांक्षा जगज़ाहिर कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए ममता बनर्जी एक मुश्किल चुनौती हैं। सन् 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता यह साबित कर चुकी हैं। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 42 में 18 सीट जीत गयी थीं। उस समय प्रधानमंत्री मोदी का जादू शिखर पर था। सन् 2024 में स्थिति क्या होगी, अभी कहना कठिन है। बिहार में भाजपा ने पिछली बार 40 में 17 विधानसभा सीटें जीतीं थीं; लेकिन तब उसके साथ नीतीश कुमार थे। अब उसे कमोवेश अकेले लडऩा होगा।
इसके अलावा हरियाणा में भाजपा सभी 10 सीटों पर जीती थी। गुजरात में सभी 26 और असम की 14 में से 9 सीटें भाजपा जीती थी। उत्तराखण्ड में भी सभी पाँच सीटें उसने ही जीती थीं। ज़ाहिर है 2019 का प्रदर्शन दोहराना भाजपा के लिए मशक्कत का काम होगा। महाराष्ट्र, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखण्ड में भाजपा के लिए चुनौती। पंजाब में तो उसका कोई नामलेवा ही नहीं दिखता, बेशक उसने पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपने साथ मिला लिया है, जो ख़ुद 2022 का विधानसभा चुनाव हार गये थे।
महाराष्ट्र में भाजपा के पास 48 में 23 सीटें हैं और वह शिंदे की शिव सेना के साथ सत्ता में है। लेकिन दिसंबर 2022 में हुए पंचायत चुनाव के नतीजों से लगता है कि उद्धव-कांग्रेस-एनसीपी का महाविकास अघाड़ी गठबंधन अभी भी काफ़ी मज़बूत है। राज्य में भाजपा को इससे कड़ी चुनौती मिलेगी। पंजाब विधानसभा में भाजपा के पास 13 लोकसभा सीटों में से महज़ दो हैं, जबकि उसने लोकसभा के मद्देनज़र अब पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह और पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ को पार्टी में शामिल किया है।
केरल में भाजपा ख़ाली हाथ है। हालाँकि उसे पिछले चुनाव में 12.9 फ़ीसदी वोट मिले थे, जिसे अब वह बढ़ाना चाहेगी। इसी तरह तमिलनाडु में भी पार्टी शून्य है और वोट शेयर भी महज़ 3.9 फ़ीसदी मिले थे। तबसे अब तक भाजपा वहाँ कोई उलटफेर नहीं कर पायी है। लिहाज़ा भाजपा के लिए यह 39 सीटें कठिन रास्ता है। आंध्र प्रदेश तीसरा राज्य है जहाँ भाजपा 25 में से एक भी लोकसभा सीट नहीं जीती थी। हाँ, ओडिशा में भाजपा अपने लिए सम्भावनाएँ देखती है, जहाँ कांग्रेस की निष्क्रियता के कारण पार्टी के पास 21 में 8 लोकसभा सदस्य हैं। भाजपा लोकसभा चुनाव में मिले अपने 38.4 फ़ीसदी वोट को 45 फ़ीसदी करना चाहती है। झारखण्ड में भाजपा 14 में से 11 पर क़ाबिज़ है। अब वहाँ हेमंत सोरेन सरकार है। लिहाज़ा भाजपा को मेहनत करनी होगी। गोवा की दो में एक सीट भाजपा के पास है।
अन्य राज्यों में से सबसे बड़ा उत्तर प्रदेश है जहाँ भाजपा की असली ताक़त है। कुल 80 में से 62 सीटें उसने जीती थीं। वहाँ मायावती की बसपा अब ढीली पड़ चुकी है; लेकिन पिता को खोने के बाद अखिलेश यादव नये तेवर के साथ मैदान में हैं। विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस भी वहाँ कुछ सक्रिय हुई है। ख़बर है कि 2024 का लोकसभा चुनाव राहुल गाँधी दोबारा अमेठी से लड़ सकते हैं।
साल 2023 में भाजपा को 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव झेलने हैं। इन राज्यों में लोकसभा की 116 सीटें हैं, जिनमें से 2019 में भाजपा ने 92 पर जीत दर्ज की थी। इन्हें 100 से पार ले जाना या बचाकर रखना भाजपा को आसान नहीं होगा।
उत्तर पूर्व की बात करें, तो त्रिपुरा और असम में भाजपा बेहतर दिखती है। त्रिपुरा में वह सरकार में है और दोनों लोकसभा सीट उसके पास हैं। मिजोरम में उसके पास कोई सीट नहीं। नागालैंड में भी भाजपा ढीली दिखती है। हालाँकि उसके पास 60 में से 12 विधानसभा सीटें हैं।
कांग्रेस की तैयारी
कांग्रेस देश की सबसे अनोखी पार्टी है। उसकी रणनीति और योजनाएँ किसी की समझा में नहीं आतीं। फिर भी वह देश की भाजपा के पास दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, पूरे देश में उसकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी और उसके लिए सबसे बड़ा ख़तरा भी। भले पिछले दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत ख़राब रहा है; लेकिन इसके बावजूद भाजपा यदि किसी पार्टी से भय खाती है, तो वह कांग्रेस ही है; जिसके पास 2019 के लोकसभा चुनाव में अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन करने के बावजूद 11.50 से ज़्यादा का वोट बैंक था, जो भाजपा को मिले मतों से क़रीब 10.50 करोड़ कम था।
कांग्रेस के हाल में अपनी रणनीति में बदलाव किया है। जहाँ उसके पूर्व अध्यक्ष भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिये 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए लगातार दो बार हार से त्रस्त कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में जुटे हैं, वहीं प्रियंका गाँधी विधानसभा चुनाव में प्रचार का बड़ा चेहरा बन रही हैं। ज़मीनी स्तर पर देखें तो हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रियंका ने जैसी भूमिका निभायी, उसने कांग्रेस के बड़े नेताओं को प्रभावित किया है। प्रधानमंत्री मोदी को भाजपा का मुख्य चेहरा बनाने किए बावजूद हिमाचल में भाजपा को करारी मात मिली है और वह 44 सीटों से 25 पर सिमट गयी। पिछली बार से उसे क़रीब आठ फ़ीसदी वोट कम मिले हैं। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से भाजपा चिन्तित है?
हिमाचल में हाल में सत्ता में आई कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने ‘तहलका’ से बातचीत में इसे लेकर कहा- ‘दक्षिण भारत में भाजपा फिसड्डी है। उसे पता है वहाँ कांग्रेस के सामने उसकी नहीं चलेगी। लेकिन जैसी भीड़ उत्तर भारत में भी राहुल गाँधी के समर्थन में उतरी है, उससे भाजपा की नींद हराम है। उसने कोरोना के बहाने राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा रोकने की चाल चली है।’
मल्लिकार्जुन खडग़े के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी को सक्रिय किया जा रहा है। पार्टी में अनुशासन को भी महत्त्व देने पर ज़ोर दिया जा रहा है और जल्दी ही पार्टी हाल के सालों में कांग्रेस से बाहर गये कुछ प्रभावशाली नेताओं को संगठन में वापस लाने की क़वायद करने वाली है। लोकसभा का 2024 का चुनाव पार्टी राहुल गाँधी के ही नेतृत्व में लड़ेगी, यह लगभग साफ़ है। हालाँकि पार्टी प्रधानमंत्री पद के चेहरे के रूप में शायद अपने पत्ते नतीजों के बाद खोलेगी। पार्टी को उम्मीद है कि अगले लोकसभा चुनाव में उसकी सीटों की संख्या में इतनी बढ़ोतरी होगी कि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में होगी।
पार्टी दक्षिण पर फोकस कर रही है और साथ ही उत्तर भारत में अपने खोये जनाधार को वापस जीतने की भी कोशिश में है। इन राज्यों में उसका आधार तो है ही। कई जगह तो उसकी भाजपा से सीधी टक्कर है। कांग्रेस का फोकस अब अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार फिर बनाने, मध्य प्रदेश और दक्षिण राज्य कर्नाटक में भाजपा को हारने पर है। कांग्रेस महसूस करती है कि 2024 से पहले वह कम से कम 5-6 राज्यों में सत्ता में आ जाती है तो 2024 उसकी स्थिति कहीं बेहतर रह सकती है।
कांग्रेस की कोशिश दक्षिण में ख़ुद को मज़बूत करने और उत्तर भारत में भाजपा को अगले लोकसभा चुनाव में 2019 जैसा प्रदर्शन दोहराने से रोकने की है। कांग्रेस जल्दी ही राज्यों में भी भारत जोड़ो यात्रा शुरू करने की योजना बना रही है, जिसे स्थानीय क्षत्रप निकालेंगे। देशव्यापी भारत जोड़ो यात्रा में मिल रहे समर्थन से कांग्रेस काफ़ी उत्साहित दिख रही है और उसे उम्मीद है कि वह अपना खोया जनाधार पाने की स्थिति में पहुँच सकती है। अगले छ: महीने में कांग्रेस राज्यों में अपना संगठन मज़बूत करना चाहती है, ताकि पार्टी काडर सक्रिय होकर 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के इरादे से मैदान में उतरे और भाजपा को कड़ी टक्कर दे।
कांग्रेस के राज्य सभा सदस्य आनन्द शर्मा ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘आपने देखा हिमाचल में भाजपा को कांग्रेस से सीधी टक्कर में हार मिली। बेशक वहाँ भाजपा ने प्रधानमंत्री साहब को चेहरा बनाया था। हिमाचल में 95 फ़ीसदी आबादी हिन्दू हैं और उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया है लिहाज़ा भाजपा का हिन्दू वोटों का दावा खोखला है। पार्टी 2024 में पूरी ताक़त से भाजपा को हारने की मंशा से मैदान में उतरेगी और जनता के समर्थन से हमें सफलता मिलेगी।’
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ 10 जनपथ की हाल में जो बैठक हुई है, उसमें कुछ दिलचस्प बातें सुनने में आयी हैं। इनमें सबसे बड़ी यही है कि क्या नीतीश कुमार कांग्रेस में जा सकते हैं? यदि वह जाते हैं, तो यह बड़ी राजनीतिक घटना होगी। भले भाजपा नेता राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा का मज़ाक़ उड़ाते हों, सच यह है कि इससे भाजपा में बेचैनी है। यात्रा में जनता से मिल रहे समर्थन से भाजपा को हैरानी हुई है।
लिहाज़ा उसे दक्षिण राज्यों ही नहीं उत्तर भारत में अपनी रणनीति बदलने को मजबूर होना पड़ रहा है। नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने स्वीकार किया जनता के बीच जाने से राहुल गाँधी की छवि में बदलाव आया है और जनता उन्हें ज़्यादा गम्भीरता से लेने लगी है।
कांग्रेस के एआईसीसी के सचिव और विधायक राजेश धर्माणी ने कहा- ‘मुझे भी यात्रा में शामिल होने का अवसर मिला है। मैंने देखा कि जनता राहुल जी को सुनने और उनसे मिलने के लिए आतुर है। राहुल जो मुद्दे उठा रहे हैं, वही जनता के वास्तविक मुद्दे हैं। राहुल गाँधी के लगातार यात्रा में चलने और उनका स्टैमिना देख भाजपा परेशान है। निश्चित की इस यात्रा ने कांग्रेस में एक बड़ा बदलाव लाया है साथ ही जनता की सोच में भी।’
यात्रा के उत्तर भारत में आने के बाद से ही भाजपा के नेता अलग-अलग बयान देकर इसे हल्का साबित करने की कोशिश करते रहे हैं। मध्य प्रदेश में ऐसा देखने को मिला था, जहाँ अगले साल चुनाव हैं और भाजपा को लगता है कि कांग्रेस से उसे कड़ी चुनौती मिल सकती है। वहाँ भाजपा के युवा नेताओं ने झंडे दिखाकर नारेबाजी की थी।
कांग्रेस के राज्य सभा सदस्य रणदीप सुरजेवाला कहते हैं- ‘भाजपा जब भी यात्रा में व्यवधान डालने की कोशिश करती हैं, हमें बिलकुल बुरा नहीं लगता। हम समझ जाते हैं कि भाजपा नेता यह सब यात्रा की सफलता से परेशानी महसूस करने के कारण कर रहे हैं। राहुल गाँधी तो भाजपा के झंडे उठाये नेताओं तक को यात्रा में शामिल होने का न्योता देते हैं। इस यात्रा ने साबित किया है कि राहुल गाँधी देश भर में कितने लोकप्रिय और स्वीकार्य नेता हैं और जनता उन्हें बड़ी भूमिका में देखना चाहती है, क्योंकि वह महसूस करती है कि इस नेता को देश की चिन्ता है।’
यात्रा में जिस तरह राजनीति से हटकर तमाम वर्गों के लोग शामिल हुए हैं, उससे यात्रा की स्वीकार्यता और गम्भीरता बढ़ी है। कश्मीर तक जाने के राहुल गाँधी के इरादे ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश भरा है और वे पहले से कहीं ज़्यादा सक्रिय दिखने लगे हैं। कांग्रेस का मक़सद ही यही था। उसका लक्ष्य 2024 है और तब तक प्रदेश स्तर की यात्राएँ भी अपना प्रभाव डालेंगी। क्योंकि राहुल गाँधी जहाँ मुद्दों को उठा रहे हैं, वहीं मोदी सरकार पर नाकामी का आरोप लगाकर उसपर प्रहार भी कर रहे हैं।
कांग्रेस के सम्भावित मुद्दे
कांग्रेस नेता राहुल गाँधी लगातार बेरोज़गारी, महँगाई, अर्थ-व्यवस्था, चीन के साथ तनाव, किसान और देश की एकता के मुद्दे पर डटे हुए हैं। उनकी भारत जोड़ो यात्रा में उनके भाषणों से साफ़ हो जाता है कि पार्टी जनता के इन मुद्दों पर क़ायम रहते हुए ही अगले चुनाव में भाजपा से भिड़ेगी। तमाम कठिनाइयों के बावजूद कांग्रेस यूपीए के अपने सहयोगियों को अपने साथ बनाये रखने में प्रयासरत रही है। जहाँ तक ममता बनर्जी की बात है, वह भी भाजपा की मुखर विरोधी दिखती हैं। हालाँकि हाल के महीनों में मोदी सरकार ने उनके मंत्रियों के ख़िलाफ़ ईडी/सीबीआई के ज़रिये दबाव बनाने की रणनीति पर काम किया है। तेलंगाना के नेता केसीआर राष्ट्रीय राजनीति के प्रति दिलचस्पी दिखा चुके हैं; लेकिन अभी इसके लिए कोई तीसरा गठबंधन सामने नहीं दिखा रहा। यही स्थिति अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की है, जो भाजपा और कांग्रेस के बीच वाली लाइन पर चलकर हिन्दूवादी व विकास, दोनों का चेहरा बनना चाहती है।
तीसरा मोर्चा
भले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि देश में तीसरा मोर्चा नाम की कोई चीज़ नहीं। ऐसे अनेक दल हैं, जो ग़ैर-भाजपा या ग़ैर-कांग्रेस ख़ेमे में आते हैं। इनकी विचारधारा भले कांग्रेस से बहुत ज़्यादा भिन्न न हो, यह कांग्रेस के साथ जाने में गुरेज़ करते हैं और भाजपा के भी विरोधी हैं या अभी तक अपना कोई मत नहीं बना पाये हैं। इनमें सबसे मज़बूत दल ममता बनर्जी की टीएमसी है, जिसकी पश्चिम बंगाल में सरकार है और काफ़ी लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य भी हैं। दूसरी अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी है, जिसकी दो राज्यों में सरकार है और उसके पास राज्य सभा सदस्य भी हैं, भले लोकसभा में कोई सदस्य नहीं।
इनके अलावा तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव भी दिल्ली पर नज़र रखे हुए हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के नाम को हाल में राष्ट्रीय स्वरूप दिया है और इसे टीआरएस से भारत राष्ट्र समिति में बदल दिया है। कभी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में शुमार रहे केसीआर के नेतृत्व में ही तेलंगाना मूवमेंट चली थी, जिसका मक़सद राज्य का दर्जा हासिल करना था। हालाँकि राज्य का दर्जा मिलते ही केसीआर कांग्रेस के अलग हो गये। वह केंद्र में मंत्री रहे हैं और यदाकदा विपक्षी दलों को एकजुट करने की क़वायद करते दिखते हैं। आने वाले महीनों में नीतीश कुमार और जेडीयू का रोल भी काफ़ी अहम होगा और देखना है कि वे क्या रुख़ अपनाते हैं। ममता बनर्जी ने हाल के तीन चार महीनों में बहुत ज़्यादा सक्रियता नहीं दिखायी है। हालाँकि विपक्ष के कई दल उनकी तरफ़ उम्मीद भरी निगाह रखते हैं। इसका कारण है ममता बनर्जी की देशव्यापी छवि। शायद ही देश का कोई कोना हो, जहाँ ममता बनर्जी को लोग न जानते हों। लेकिन इसके बावजूद ममता के लिए बंगाल को छोडऩा आसान नहीं होगा, क्योंकि भाजपा वहाँ लगातार अपनी ज़मीन मज़बूत करने की कोशिश करती रही है।
ममता कितनी ताक़तवर नेता हैं यह पिछले विधानसभा चुनाव से ज़ाहिर हो जाता है, जब भाजपा के सभी दिग्गजों के वहाँ जम जाने के बावजूद टीएमसी ने न सिर्फ़ चुनाव जीत लिया था, बल्कि उसकी सीटें पहले से भी ज़्यादा हो गयी थीं। इसमें दो-राय नहीं कि भाजपा ने वहाँ अपना वोट बैंक खड़ा कर लिया है। कांग्रेस और वामपंथी दल कमज़ोर हुए हैं और उन्हें दोबारा खड़ा करने के लिए ख़ासी मशक्कत करनी पड़ेगी। ऐसे में ममता दिल्ली आना चाहेंगी या नहीं यह अभी कहना मुश्किल है।
अन्य क्षेत्रीय दल अपने राज्यों तक सीमित हैं। इनमें सबसे मज़बूत डीएमके है, जिसके लोकसभा में काफ़ी सदस्य हैं। हालाँकि उसका समर्थन कांग्रेस को रहा है और राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार होने का भी वह समर्थन करती है। चन्द्रबाबू नायडू भी हाल के महीनों तक सक्रिय थे लेकिन अब शान्त हैं। उनकी भी राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा रही हैं। एनसीपी कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का हिस्सा है और शरद पवार प्रधानमंत्री की इच्छा होने से इनकार कर चुके हैं। उन्हें भी राहुल गाँधी के नाम पर विरोध शायद ही होगा। विपक्ष के इन दलों की सक्रियता शायद 2023 के मध्य तक दिखेगी, जब देश में काफ़ी विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले लोकसभा चुनाव का भी माहौल बनने लगेगा।
भाजपा के सम्भावित मुद्दे
राम मंदिर निर्माण और सरहदी राज्य जम्मू-कश्मीर में धारा-370 ख़त्म करने के बाद भाजपा अब समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण क़ानून पर फोकस कर रही है और यही 2024 में उसके सबसे बड़े मुद्दे होने की सम्भावना है। भाजपा के एक शीर्ष वर्ग में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में कार्रवाई कर उसे पाकिस्तान से अलग करने की भी चर्चा है। हालाँकि यह शायद इतना आसान काम न हो। भाजपा महसूस करती है कि जनवरी, 2019 में पुलवामा घटना के बाद जिस तरह जनता उसके समर्थन में एकजुट हुई, उसे देखते हुए पीओके के फैसले को अमलीजामा पहनकर जीत सुनिश्चित की जा सकती है।
2019 में दो करोड़ से ज़्यादा वोट
कुल 61,41,72823 वोट पड़े
भाजपा 22,90,76879 (37.36 फ़ीसदी)
कांग्रेस 11,94,95214 (19.49 फ़ीसदी)
टीएमसी 2,49,29330 (4.06 फ़ीसदी)
बसपा 2,22,46501 (3.62 फ़ीसदी)
आप 27,16629 (0.44 फ़ीसदी)