दुनिया भर में 1.3 अरब से भी ज़्यादा लोग दिव्यांग (अपंग) होते हुए भी जीवन जी रहे हैं। हर कहीं आज कोविड-19 (कोरोना वायरस) महामारी की तरह फैल रहा है। लेकिन दिव्यांग लोग शेष दुनिया से एकदम कटे हुए दिखते हैं। दुनिया के विभिन्न देशों में इनकी ज़िन्दगी अलग-सी और एकाकी दिखती है। मानो बड़े और भयावह बात में अपनी समस्याओं का निदान इन्हें ही करना हो। जबकि समाज इनकी मदद करता ही है। इसी कारण इनके कामकाज के तौर-तरीकों में बदलाव भी नज़र आता है। दिव्यांग समुदाय में आज कई घर से ही दफ्तर का काम, घरों के बाहर तक सामान वगैरह पहुँचाना, काम के घंटों में बदलाव और न्यायिक सेवाओं में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आदि के काम करते दिखते हैं। ऐसे कामों को सीखने-करने में समाज का योगदान रहा है। दिव्यांग समुदाय ऐसे काम करने के लिए उत्सुक भी रहा है, जिससे जीवनयापन हो।
इधर, अपने देश में भी महामारी के फैलाव के चलते हुए लॉकडाउन के कारण इस समाज के सामने खासी कठिनाइयाँ बढ़ीं हैं और इसके मुद्दों में भी बदलाव आया है। पिछले दो महीने से कोविड-19 और उसके चलते हुए लॉकडाउन के कारण ऐसा लगने लगा है कि दुनिया में सबसे बड़े इस अल्पसंख्यव्यक समुदाय की लगभग अनसुनी होती रही है। हालाँकि विपदा प्रबन्धन की व्यवस्थाओं को अमल में लाते हुए इस समुदाय के प्रति खासी चिन्ता जतायी जाती रही है।
दिव्यांगता आज जोखिम नहीं, बल्कि सहयोग बढ़ाने और हिम्मत करके हौसला बढ़ाने की एक प्रक्रिया है। दिव्यांगता के आज रूप अनेक हैं, जिन्हें संवेदनशीलता के साथ जानना-समझना और उसमें सहयोग आज ज़्यादा ज़रूरी है। कई तरह की बीमारियों के चलते आज कुछ लोगों में खास तरह की अपंगता दिखती है। इनकी तबीयत खासी नाज़ुक हो जाती है। कोविड-19 के चलते जो हिदायतें जारी हुई हैं, उनमें साँस लेने में परेशानी, शरीर के इम्यून सिस्टम में कमज़ोरी, हृदय सम्बन्धी बीमारियाँ या डायबिटीज के रोगी इस रोग की चपेट में जल्दी आ सकते हैं।
साथ ही जो सावधानी बरतने की हिदायत है, उसके तहत दूसरे से कम-से-कम एक मीटर की दूरी रखने की बात है। हाथों की स्वच्छता रखने पर ज़ोर है और मुँह पर मास्क लगाये रखने की बात है। लेकिन इनका पालन करने में दिव्यांग लोगों की खासी परेशानियाँ हैं। इन पर भी विचार ज़रूरी है।
गुरुग्राम (गुडग़ाँव) में रहने वाले एक व्यक्ति को आर्थोग्रिपोसिस है। वह कहते हैं कि हम चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि हमें अपनी बेहद निजी ज़रूरतों, मसलन हाथ भी धोने में किसी के सहयोग की ज़रूरत पड़ती है। ऐसे भी दिव्यांग हैं, जैसे जमीर ढाले; जो बहरे और गूँगे हैं। स्पर्श से ही वे अपनी परेशानी और ज़रूरत बता पाते हैं। ऐसे कई मामले हैं, जहाँ दिव्यांग लोगों के लिए एक-दूसरे से एक या डेढ़ मीटर की दूरी बनाये रखना सम्भव नहीं होता।
इस महामारी से निपटने के लिए सूचना की उपलब्धता सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। लेकिन पर्सन विद डिसैबिलिटी (पीडब्ल्यूडी) को शरीरिक सुरक्षा के लिहाज़ से ज़रूरी सूचनाएँ नहीं मिल पातीं, जो अमूमन उन माध्यमों में नहीं होतीं। जैसे साइन लैंग्वेज, सी भाषा में ब्यौरा, ब्रेल, सुनाई देने वाली व्यवस्था, बड़े-बड़े अक्षरों में सीधी-सरल भाषा में सामग्री की उपलब्धता, जिसे पढ़-सुनकर या देखकर जाना-समझा जा सके।
महामारी और लॉकडाउन के चलते दिव्यांग लोगों की परेशानियाँ खासी बढ़ी हैं। ढेरों दिव्यांग लोग तो एकदम पराधीन हो गये हैं। तापस भारद्वाज को दिखता नहीं। वह एमिटी लॉ स्कूल, नोएडा में पढ़ते हैं। वह अपनी परेशानी समझाते हुए बताते हैं कि पहले अपने घर की दोनों मंज़िलों में वह आसानी से आ-जा सकते थे। लेकिन अब उन्हें किसी का सहारा लेना पड़ता है, जिससे बढ़ते हुए कहीं-कहीं कुछ पकडऩा न पड़े।
लॉकडाउन से और भी लोग परेशान हुए हैं। अभिषेक एनिका को भी अब दूसरों पर अश्रित होना पड़ रहा है। उन्हें कन्जेनिटल स्कोलियोसिस है, साथ ही उनका इम्यून सिस्टम भी पूरा नहीं है। घर पर सामान मँगा लेने पर रोक होने से वह घर-गृहस्थी का सामान और दवाएँ खुद भी ला नहीं पा रहे हैं। इसके लिए उन्हें पड़ोसियों और दोस्तों से मदद लेनी पड़ रही हैै। प्रोफेसर अनीता घई को कैंसर है और स्वास्थ्य सम्बन्धी दूसरी कई परेशानियाँ भी, मसलन ब्लड प्रेशर भी है। वह व्हील चेयर का इस्तेमाल करती हैं। दवा और घर का सामान सहज उपलब्ध न होने से उनकी परेशानी खासी बढ़ गयी है। उनका कहना है कि जो दिव्यांग/अपंग हैं उनके लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ बहुत ही तकलीफदेह हैं। ऊपर से कोविड-19 के चलते दूसरी चिकित्सा सेवाएँ भी बन्द हैं।
दिव्यांगता (विकलांगता) से बढ़ रही असमानता और परेशानी मेें फँसी महिलाएँ ज़्यादा परेशानी भुगत रही हैं। लॉकडाउन और एकाकीपन के कारण दुनिया के विभिन्न हिस्सों से मिली खबरों के अनुसार घरेलू हिंसा के मामले में बहुत बढ़ोतरी हुई है। शंपा सेन गुप्त ‘लिंग (जेंंडर) और अपाहिजपन’ विषय पर काम कर रही हैं। उनका मानना है कि ज़्यादातर दिव्यांग महिलाएँ लॉकडाउन के चलते घर में ही बन्द हो गयी हैं। सरकार की ओर से लॉकडाउन से परेशानी इसलिए बढ़ती है, क्योंकि परेशानी के दौरान वे हिसेबिलिटी राइट्स आर्गेनाइजेशन्स के दफ्तरों तक भी नहीं पहुँच पातीं। भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑन डिसेबिलिटी अफेयर्स ने कोविड-19 को दौरान जो गाइडलाइन दी है, वह लैंगिक मुद्दों के लिहाज़ से उपयोगी बनी ही नहीं है।
जो लोग रक्त सम्बन्धी परेशानी से जूझते रहे हैं, उन्हें खासी परेशानी हो रही है। थैलीसीमिया के मरीज़ को नियमित आधार पर रक्त चढ़वाना पड़ता है। इसी तरह जो हीमोफीलिया और सिकल-सेल रोग के शिकार हैं, वे उन्हें तय समय के बाद रक्त लेना नहीं चाहिए। अस्पताल बन्द होने और रक्तदाताओं के बैंक में न आने से रोगियों को खासी परेशानी हो रही है। नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल की रिपोर्ट के अनुसार, रक्त संग्रह में इधर 50 फीसदी से ज़्यादा की कमी आयी है।
सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने की नव-उदार नीतियों के चलते ज़्यादातर काम बाहर से कराने और ठेकेदार प्रणाली को हर प्रात्साहन के चलते दिव्यांग लोगों को नौकरी मिलने की सम्भावनाएँ भी धूमिल होती जा रही हैं। निजी क्षेत्र में दिव्यांग लोगों को नौकरी देने में अमूमन अरुचि दिखायी जाती है। सारी दुनिया में खासकर निजी क्षेत्रों में प्रबन्धन जिसकी बहाली हुई, आिखर में उस निकाले अभी की नीति के तहत नौकरियों से लोगों को निकाल रहा है। उन्हें घर बैठा दिया जाता है, फिर पदमुक्ति दे दी जाती है। उन्हें दिव्यांग / शारीरिक अक्षमता होने के बहाने नौकरी दी तो जाती है, लेकिन इस-उस वजह से उन्हें निकाल भी दिया जाता है।
नीति आयोग की 2016 की रिपोर्ट में साफ लिखा है- ‘शारीनिक अक्षमताओं के चलते मात्र 34 फीसदी लोगों को रोज़गार मिला। इनमें से ज़्यादातर को वेंडर का। श्वेत कुष्ठ से निरोग हो गये लोगों को भी रोज़गार नहीं मिलता, जिसके कारण उन्हें भीख माँगकर गुज़ारा करना होता है।’
अभी हाल, जो राहत केंद्रीय वित्तमंत्री ने दी है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि बिना किसी आकलन या सही अनुमान के बिना घोषणा कर दी गयी। इस घोषणा में अनजानेपन में यह तक नहीं देखा-समझा गया कि एक दिव्यांग को किन सहूलियतों की ज़रूरत है, जिससे वह गुज़ारा कर सके। शान्ति से आम ज़िन्दगी जी सके। घोषणा करने से पहले यह जायज़ा लिया जाता, तो बेहतर था कि एक दिव्यांग को व्हील चेयर, सहायक उपकरणों, सहयोगियों पर किये गये खर्च करने और सार्वजनिक यातायात का उपयोग न कर पाने की स्थिति में बढ़े खर्च को भी देखा-परखा जाना था। वितमंत्री ने दिव्यांगों, अक्षम लोगों के लिए मात्र 1,000 रुपये की राशि घोषित की, वह भी तीन महीनों के लिए। यह औसतन प्रतिमाह रुपये 333.33 मात्र।
भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार 2.68 करोड़ लोग शारीरिक अक्षम, दिव्यांग हैं। इनमें मात्र 10,20,065 को इंदिरा गाँधी नेशनल डिसेबिलिटी पेंशन स्कीम उपलब्ध है। सरकार ने 2016 में 21 तरह की शर्तों के तहत किसी व्यक्ति को दिव्यांग मानने का कानून पास किया था। इन शर्तों के तहत हर दिव्यांग / अपंग व्यक्ति होने की पात्रता सम्भव है। इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहैवियर एंड एलाइन साइंसेज के निदेशक डॉ. नीमेश देसाई का कहना है कि किसी विपदा, संघर्ष और महामारी का तगड़ा असर व्यक्ति के दिमाग पर पड़ता है। जम्मू-कश्मीर में अगस्त, 2019 के बाद दिमागी हालत के खराब होने की शिकायतें सबसे ज़्यादा बढ़ीं। अपने देश में इसके इलाज पर ज़्यादा ध्यान नहीं है। जबकि इस पर सबसे ज़्यादा ध्यान देना चाहिए, जिससे लोग खुद पर काबू रख सकें। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज, बंगलूरु ने 2018 में किये सर्वे में पाया गया कि भारत में लगभग 83 फीसदी लोगों की दिमागी हालत इलाज लायक है। इलाज मगर होता ही नहीं।
(लेखक नेशनल प्लेटफार्म फार द राइट्स ऑफ द डिसैब्लड के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)