यूं तो कलकत्ता की ज्य़ादातर इमारतें अपनी चारदीवारियों के भीतर कई इतिहास समेटे हुए है। खासकर मध्य कलकत्ता जहां ब्रिटिश कालीन कई इमारतें बरबस आपको अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। इसी इलाके में लेनिन सरणी जो पूर्व में धर्मतल्ला रोड से जानी जाती थी। उसी के सामने एक पतली सी गली इंडियन मिरर स्ट्रीट के नाम से जानी जाती है। वैसे तो कलकत्ता में दर्जनों पुरानी सड़कों व गलियों के नाम बदल गए हैं। लेकिन इंडियन मिरर स्ट्रीट इससे अछूता है। ठीक तिराहे पर दो मंजिला पुराना एक मकान है। आठ इंडियन मिरर स्ट्रीट पर खड़ा यह मकान जितना पुराना है, इतिहास उतना ही समृद्ध। कऱीब 150 साल पुराने इस मकान की तारीखी बातों से स्थानीय लोगों को कोई वास्ता नहीं,क्योंकि ज्यादातर लोगों को इस बारे में कोई मालूमात नहीं है। वैसे यह मकान दो शख्सियतों की वजह से जाना जाता है। एक समाजवादी चिंतक व राजनेता डॉ.राममनोहर लोहिया और दूसरा सिने जगत की मशहूर अभिनेत्री नरगिस। जिनका जन्म इसी मकान की ऊपरी मंजि़ल में हुआ था। नरगिस की मौसी मल्लिका जान यहां रहती थीं। बाद में उन्हीं के नाम पर यह इलाका जानबाजार के नाम से भी प्रचलित हुआ।
दूसरी शख्सियत का नाम है डॉ. राममनोहर लोहिया। भारतीय राजनीति में एक अलग किस्म की धातु का बना इंसान। वैसे तो कलकत्ता में सोशलिस्ट पार्टी का दफ़्तर डलहौजी के पास था। लेकिन डॉ.लोहिया के ख़ास रहे ठाकुर जमुना सिंह और दिनेश दासगुप्ता (दादा) के यहां रहने की वजह से लोहिया समकालीन समाजवादियों का यहां मज़मा लगता था। दिनेश दासगुप्ता का जन्म पांच नवंबर 1911 को चटगांव स्थित धौलाघाट में हुआ था। सोलह वर्ष की उम्र में वे क्रांतिकारी सूर्य सेन (मास्टर दा) की इंडियन रिपब्लिकन पार्टी में शामिल हो गए। अप्रैल 1930 के चटगांव शस्त्रागार अभियान में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया। चटगांव शस्त्रागार अभियान के बाद ब्रितानी सरकार के खिलाफ धौलाघाट में गुरिल्ला युद्ध में वे ब्रिटिश सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। 1932 में न्यायालय ने उन्हें दस वर्षों की सजा मुकर्रर कर प्रताडऩा के लिए मशहूर अंडमान सेल्यूलर जेल भेज दिया। जेल में कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार से क्षुब्ध होकर उन्होंने कई बार भूख हड़ताल की। 1938 में दिनेश दासगुप्ता और उनके साथियों को रिहाई मिली। उनके कई साथी बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए, लेकिन अंडमान बंदियों के बीच मार्क्सवादी साहित्य के वितरण और अपने कुछ साथियों के देश की आजादी की लडाई को महत्व न देने के कारण कम्युनिस्टों के प्रति उनके मन में संदेह उत्पन्न हो गया। बाद में वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होकर चटगांव जिले में संगठन को मजबूत बनाने में जुट गए। वर्ष 1940 में रामगढ़ (अब झारखंड) में पार्टी के अधिवेशन से लौटते वक्त उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। छह साल की सजा मिलने के बाद उन्हें क्रमश: हिजली (मेदनीपुर) भूटान के समीप बक्सा किले और ढाका जेल में रखा गया। कारावास की इस अवधि में भी उन्होंने जेल में भूख हडताले की। आजादी के एक वर्ष पूर्व 1946 में उन्हें रिहा कर दिया गया।
स्वतंत्रता के बाद दिनेश दासगुप्ता पश्चिम बंगाल कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड में शामिल हुए। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से जुडऩे के बाद उन्होंने कई अहम जिम्मेदारियां निभाई। बाद में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विघटन होने के बाद वे डॉ.राममनोहर लोहिया की अगुवाई में सोशलिस्ट पार्टी व संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर उनसे आग्रह किया गया कि वे राज्यपाल का पद स्वीकार करें। इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए उन्होंने कहा,मैं एक क्रांतिकारी हूं और मेरे जीवन का ध्येय सत्ता सुख नहीं है।
डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में वे सोशलिस्ट पार्टी में पूरी निष्ठा से जुड़े रहे। आज़ादी के बाद भी दिनेश दा को कई बार जेल जाना पड़ा। चाहे वह अंग्रेजी हटाओ आंदोलन हो या दाम बांधो आंदोलन। श्रमिक संघों का आंदोलन हो या फिर आदिवासियों का आंदोलन वे लगातार सक्रिय रहे। डॉ.राममनोहर लोहिया की रचनाओं को उन्होंने बांग्ला भाषा में अनुवाद कर बंगाली भद्रजनों को भारतीय समाजवाद से परिचित कराया।
बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध 1971 में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। मुक्ति योद्धाओं को प्रशिक्षित करने कई बार उन्होंने बांग्लादेश की गुप्त यात्राएं भी कीं। बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ने कई मौकों पर उनसे सलाह-मशविरा किया। बांग्लादेश बनने के बाद ढाका की एक जनसभा में शेख मुजीब ने मुक्ति मुक्ति में दिनेश दासगुप्ता के अविस्मरणीय योगदान की चर्चा की थी। आपातकाल 1975 में दिनेश दा भी गिरफ्तार किए गए। इमरजेंसी खत्म होने के बाद वह गैर बराबरी के शिकार आदिवासी समाज के बीच काम करते रहे। 23 अगस्त 2006 को उनका कलकत्ता में निधन हो गया। दिनेश दा अविवाहित थे और अपनी जिंदगी का अधिकांश समय वे इंडियन मिरर स्ट्रीट के इसी आठ नंबर बाड़ी (घर) में रहे। यहीं पर उनके हमउम्र और डॉ.लोहिया के खास रहे ठाकुर जमुना सिंह भी रहते थे।
जमुना बाबू वैसे तो विवाहित थे, लेकिन उनका परिवार कभी यहां नहीं रहा। वह मूलत: उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। परिवार में उनकी पत्नी और पांच बच्चे थे। लेकिन समाजवादी आंदोलन में इस कदर वह मुलव्विस थे कि परिवार के प्रति उनका ध्यान ही नहीं रहा। सत्तर के दशक में ठाकुर जमुना सिंह दूर के रिश्ते में अपने एक भतीजे रामकुबेर सिंह को कलकत्ता ले आए। जो आखिरी समय तक उनके साथ रहे और अब भी आठ इंडियन मिरर स्ट्रीट में उनका एक ऑफिस है। रामकुबेर सिंह बताते हैं, कलकत्ता आने पर डॉ. लोहिया तो खैर यहाँ आते ही थे। फिर यहीं से चंद फर्लांग की दूरी पर उनकी बैठकी होती थी। जहां वर्तमान में एस्प्लानेड मेट्रो स्टेशन है।
इस मकान और डॉ. लोहिया से जुड़ा एक ऐतिहासिक व रोचक किस्से के बारे में वह बताते हैं। ‘यूगोस्लाविया के उप राष्ट्रपति, राजमर्मज्ञ और कम्युनिस्ट लेखक-विचारक मॉलबिन डिलास डॉ.लोहिया के अच्छे मित्र थे। लोहिया से मिलने वह 1956 में कलकत्ता आए। विमान पट्टी पर उनके स्वागत में सरकारी अमले कई वाहनों सहित मौजूद थे। यह देखकर उन्होंने कहा, इस औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं,क्योंकि यह राजकीय यात्रा नहीं बल्कि उनकी निजी यात्रा है। उसके बाद डॉ. लोहिया के साथ इंडियन मिरर स्ट्रीट के इसी मकान में पहुंचे। तीन दिनों तक यहां रहे और उसके बाद लोहिया जी के बालसखा बालकृष्ण गुप्त जी के मकान मार्बल हाउस में रहे। सप्ताह भर लोहिया और डिलास के बीच समाजवाद और साम्यवाद पर चर्चा होती रही। यूगोस्लाविया लौटने के बाद उन्होंने ‘द न्यू क्लासÓ नामक किताब लिखी। दुनिया के कई भाषाओं में यह कि़ताब प्रकाशित हुई। काफ़ी विवादों में रही उनकी यह किताब। राष्ट्रपति मार्शल टीटो के कार्यकाल में उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
पचासी वर्षीय योगेंद्रपाल सिंह लोहिया अनुयायी व समाजवादी चिंतक व लेखक हैं। कई दशकों से वह कलकत्ता में हैं। इस मकान से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य के बारे में वह बताते हैं,मैनकाइंड और जन पत्रिकाओं के शुरूआती दो अंक यहीं से प्रकाशित हुए। बाद में इन दोनों पत्रिकाओं का प्रकाशन हैदराबाद के हिमायतनगर स्थित सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय कार्यालय से होने लगा। उनके मुताबिक 1971 में साप्ताहिक अख़बार चौरंगी वार्ता का प्रकाशन आठ इंडियन मिरर स्ट्रीट के इसी मकान से शुरू हुआ था। इस साप्ताहिक के संस्थापक संपादक डॉ.रमेश चंद्र सिंह थे। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध और जयप्रकाश छात्र आंदोलन की कई महत्वपूर्ण रिपोर्ट चौरंगी वार्ता ने साहसिक ढंग से प्रकाशित की।
आठ नंबर मकान के सामने साठ वर्षों से चाय की दुकान चलाने वाले श्यामल घोष की उम्र इस समय पचहत्तर साल है। पंद्रह वर्ष की उम्र से वह अपनी दुकान चला रहे हैं। डॉ.लोहिया से उनकी पहली मुलाकात 1963 में हुई थी। उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा से आए समाजवादी नेताओं के साथ वह कोई मीटिंग कर रहे थे। बैठक के दिन वे वहां चाय लेकर गए थे। श्यामल घोष बताते हैं, डॉ.लोहिया कॉफी पीना ज्य़ादा पसंद करते थे,लेकिन उनकी चाय की तारीफ भी खूब किया करते थे। कभी-कभी वे खुद कॉफी का डिब्बा लेकर उनके पास आते थे। रोजाना आमदनी और खर्चे के बारे में पूछते थे। उनकी मौत के बाद भी राजनारायण,कर्पूरी ठाकुर और रवि राय जैसे समाजवादी नेताओं का आना-जाना रहा। लेकिन 1983 में ठाकुर जमुना सिंह की मृत्यु के बाद तो इंडियन मिरर स्ट्रीट की रौनक ही खत्म हो गई। इसके बाद रवि राय जब भी कलकत्ता आते,ठीक सामने लेनिन सरणी स्थित ओडिशा सरकार के गेस्ट हाउस उत्कल भवन में ठहरते। लेकिन सुबह और शाम चाय पीने हमारे पास जरूर आते। क्या यह ऐतिहासिक मकान शत्रु संपत्ति घोषित है। इस बारे में रामकुबेर सिंह बताते हैं,गृह मंत्रालय इस भवन को एनिमी प्रॉपर्टी घोषित करने पर विचार कर रही है। दरअसल, यह मकान एक मुस्लिम परिवार का है। वाजिद खान, रउफ खान और मल्लिका जान तीन भाई-बहन हैं। बंटवारे के समय इनमें से कुछ लोग पूर्वी पाकिस्तान चले गए। नतीजतन इस आधार पर गृह मंत्रालय इसे शत्रु संपत्ति घोषित करना चाहती है।
(लेखक पत्रकार हैं और डॉ.लोहिया से जुड़े शोध कार्यों में संलग्न हैं)