देश में भले ही कोरोना टीके को लेकर उपलब्धि भरी गाथाएँ गायी और सुनायी जा रही हों, लेकिन हकीकत तो कुछ और ही है। लोगों में कोरोना टीका की विश्वसनीयता को लेकर डर और शंकाएँ बरकरार है। हाल यह है कि करीब 25 फीसदी लोग टीका लगवाने के लिए ही आगे आ रहे हैं। इतना ही नहीं, सरकारी कर्मचारियों से लेकर स्वास्थ्यकर्मी तक टीका लगवाले से बच रहे हैं। उनका मानना है कि जल्दबाज़ी में तैयार किया गया टीका कहीं उनको मुसीबत में न डाल दे। दरअसल टीका लगने की शुरुआत (16 जनवरी) के बाद से कुछ की मौतें भी हुई हैं और कुछ लोगों को एलर्जी सहित तामाम स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतें हुई हैं, जिससे लोगों में डर बैठ गया है। तहलका संवाददाता ने पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली में लोगों से कोरोना और वैक्सीन को लेकर बात की, तो उन्होंने कहा कि जब कोरोना के मामले कम हो रहे हैं और कोरोना तकरीबन खात्मे की ओर है, तो टीका क्यों लगवाएँ। पंजाब के रोपड़ ज़िले के निवासी जत्थेदार दर्शन सिंह का कहना है कि सरकार अपनी सियासत चमकाने के लिए टीकाकरण का आँकडा बनाने में लगी है; जबकि कोरोना वायरस के मामले कम हो रहे हैं। अब तकरीबन एक से दो फीसदी ही कोरोना के मामले बचे हैं, टीका लगवाकर क्यों जान जोखिम में डालें। उनका कहना है कि दिल्ली की सीमाओं पर दो महीने से किसान बैठे हैं; किसी को कोई कोरोना नहीं हुआ है। तो कोरोना को लेकर सरकार बे-वजह हौवा क्यों बना कर रही है? पंजाब के होशियारपुर निवासी सरदार इन्द्रजीत सहोता का कहना है कि कोरोना को लेकर जो डर बनाया गया था, वो डर चला गया है। अब टीका लगवाने का कोई मतलब नहीं है।
मध्य प्रदेश के सागर ज़िले के बुन्देलखण्ड मेडिकल कॉलेज (बीएमसी), जहाँ करीब 300 स्वास्थ्यकर्मी हैं, के स्वास्थ्य कर्मचारियों और डॉक्टरों तक ने टीका लगवाने से मना कर दिया था। डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों के टीका लगवाने से मना करने पर शासन-प्रशासन ने दबाब बनाया, तब यहाँ के डॉक्टरों को प्रेरणा समिति का गठन करना पड़ा। तब जाकर कुछ स्वास्थ्य कर्मचारियों व सभी ने लगवाने शुरू किये। यही हाल मध्य प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़ और दमोह ज़िले का है। यहाँ के कर्मचारियों ने पहले तो टीकाकरण के लिए रजिस्ट्रेशन करवा लिया। जब देश में टीके के नुकसान के मामले सामने आये, तो उन्होंने टीका न लगवाने का फैसला कर लिया। स्वास्थ्य कर्मचारियों को पहले एसएमएस और फोन करके भी बुलाया जा रहा है, तब भी वे नहीं जा रहे हैं। स्वास्थ्य का हवाला देकर बच रहे हैं; टीकाकरण की तारीख बढ़वा रहे हैं। जब यह हाल मध्य प्रदेश के स्वास्थ्यकर्मियों और डॉक्टरों का है, तो आम जनता में तो भय फैलना स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश के महोबा, बांदा, झाँसी और कानपुर के लोगों ने तहलका को बताया कि अजीब हालात हैं। एक ओर तो सरकार टीकाकरण को लेकर रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए तामाम कायदे-कानूनों को लागू कर रही है, वहीं रजिस्ट्रेशन होने के बावजूद टीका लगवाने से डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी तक कतरा रहे हैं। इसका मतलब टीके को लेकर अभी अविश्वास की स्थिति है। यही वजह है कि आम नागरिकों में तामाम तरह की अफवाहें, डर, और आशंकाएँ फैल रही हैं।
दिल्ली, जहाँ पर राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य सेवाएँ हैं; के कर्मचारियों बताते हैं कि कोरोना टीके को लेकर सरकार का कहना है कि जिसको टीका लगवाना है, वह लगवा सकता है और जिसको नहीं लगवाना है, वह न लगवाये। यानी की कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं है। वहीं सरकार टीकाकरण का रिकॉर्ड बनाने के लिए काम कर रही है और टीका लगवाने के लिए दबाव बना रही है। डीएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि दिल्ली में सरकारी और निजी अस्पतालों में टीके लग रहे हैं। लेकिन ज़्यादातर लोगों में टीके को लेकर आशंकाएँ हैं कि जल्दबाज़ी में लाया गया टीका कहीं किसी दिक्कत में न डाल दे। इसलिए स्वास्थ्य कर्मचारी हों या आम लोग, अभी पूरी तरह से टीके के नुकसान-फायदे पर नज़र रखे हुए हैं। लगता है पूर भरोसा होने पर लोग इसे लगवाने के लिए तैयार होंगे। डॉ. बंसल ने बताया कि जो कोरोना का भय था, पर अब नहीं रहा। इसके अलावा जिन लोगों को कोरोना हुआ था, वे स्वस्थ्य भी हो गये हैं। ऐसे में लोगों का मानना है कि अब टीकाकरण की क्या ज़रूरत? कुछ लोगों का मामना यह भी है कि जब वैक्सीन आ गयी है, तो दवा और कैप्सूल भी आ सकते हैं, तो दवा के सेवन से ही कोरोना को मात देंगे। उन्हें लगता है कि टीके की तुलना में दवा का रिएक्शन कम होगा।
दिल्ली में जिनका रजिस्ट्रेशन हुआ है, वे वैक्सीन लगवाने किसी कारणवश नहीं आ रहे हैं। तो ऐसे में बिना रजिस्ट्रेशन वालों को वैक्सीन लगाकर आँकड़ों को पूरा किया जा रहा है। मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य कर्मचारी राजेश प्रसाद का कहना है कि सरकार ने जो टीका बनवाया है, वो मानक समय से पहले तैयार हो गया है, जिससे लोगों में विश्वास का अभाव है। क्योंकि तमाम बीमारियों के टीकों को लेकर वर्षों से शोध ही चल रहा है, जिसमें एचआईवी भी शामिल है। ऐसे में कोरोना टीके को लेकर जो जल्दबाज़ी दिखायी गयी है, उसे लेकर आशंका है। एम्स के डॉक्टरों का कहना है कि जिस प्रकार कोरोना वायरस और उसके टीके को लेकर सियासत के नफा-नुकसान का खेल खेला जा रहा है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि मरीज़ों में भेदभाव और बीमारी का विभाजन नहीं हो सकता है। ऐसे में जिस तरीके से कई चरणों और उम्र को देखकर में टीकाकरण की बात की जा रही है, उससे कोरोना वायरस का निदान नहीं हो सकता। डॉक्टरों का कहना है कि जिन्हें कोरोना संक्रमण की शिकायत या आशंका है, उनको टीका लगना चाहिए, न कि रिकॉर्ड बनाने के लिए इसका उपयोग होना चाहिए। जाने-माने आयुर्वेदाचार्य डॉ. दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि कोरोना के कम होते मामले यह बताते हैं कि देश में लोगों ने अपने बल-बूते पर जागरूकता और सोशल डिस्टेंसिंग के माध्यम से कोरोना को काबू कर लिया है। इसलिए सरकार कोरोना टीके को लेकर भी जागरूकता पर बल दे। दिल्ली के कई डॉक्टरों का मानना है कि देश के नागरिकों की इम्युनिटी पॉवर अन्य देशों की तुलना में ठीक है। अब कोरोना वायरस खात्मे की ओर है। ऐसे हालात में अब टीकाकरण को लेकर ज़्यादा शोर-शराबा ठीक नहीं है। सरकार को अब उन मरीज़ों के इलाज पर भी ज़ोर देना चाहिए, जो कोरोना-काल में इलाज नहीं करवा पाये।
टीकाकरण में जातिवादी भेदभाव का आरोप
इधर कोरोना वायरस के टीकाकरण में जातिवादी भेदभाव का आरोप लग रहा है। आरोप यह है कि सबसे पहले निचले तबके (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति) के लोगों का टीकाकरण किया जा रहा है, ताकि अगर कोई शारीरिक या मानसिक नुकसान हो, तो वह निचले तबके के लोगों को हो। आरोप है कि उच्च वर्ग इस इंतज़ार में है कि सब ठीक रहा, तो वह टीका लगवाएगा।
एक वेबसाइट पर प्रकाशित अपने एक लेख में असिस्टेंट प्रो. प्रमोद रंजन ने लिखा है- ‘सभी जानते हैं कि टीका पहले लेने का खतरा उठाने के लिए जिन स्वच्छता कर्मियों को आगे किया जा रहा है, वे भारत में निम्न कही जाने वाली जातियों से आते हैं; जो सदियों से सामाजिक और आर्थिक दमन का शिकार रही हैं। भारत में कोविड-19 का पहला टीका अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में दिया गया। इसके लिए एम्स ने अपने सफाई कर्मचारी मनीष कुमार को चुना। मनीष की जाति का कहीं उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि मनीष दलित समुदाय से आते हैं। क्योंकि भारत में सफाई कर्मचारियों का लगभग शत्-प्रतिशत उन दलित और पिछड़ी जातियों से आता है, जिन्हें जाति-व्यवस्था के अनुसार गन्दे कामों को करने के लिए उपयुक्त माना गया है।’
प्रो. रंजन आगे लिखते हैं- ‘सच्चाई यह है कि भारत का उच्चवर्ग, जो सामान्य तौर पर सामाजिक रूप से उच्च और शिक्षा के क्षेत्र में भी आगे है, वह इंतज़ार करो और देखो की नीति पर चल रहा है। उसके लिए वैक्सीन की राजनीति एक ऐसा समुद्र मंथन है, जिसके बारे में वह अभी कुछ तय नहीं कर पा रहा है। इस मंथन से निकला कलश (टीका) अगर अमृत साबित होगा, तभी वह उसे ग्रहण करेगा; लेकिन उससे पहले उसे पीकर शूद्रों-अतिशूद्रों (मूल हिन्दू मिथक के अनुसार, असुरों-राक्षसों) को चखकर देखना होगा।’