कोरोना वायरस के संक्रमण का भय लोगों के मन में बहुत गहरे बैठ चुका है। इसके कई उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। हाल ही में सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो वायरल हुए, जिनमें हिन्दू मृतकों को अंतिम संस्कार में उनके निकट सम्बन्धी, पड़ोसी और परिचित शामिल नहीं हुए। इनमें कई शवों का अंतिम संस्कार मुस्लिम समुदाय के लोगों ने किया। इसके अलावा ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जहाँ लोगों ने कोरोना से हुई मौत के कारण शवों को दफ़नाने या उसके अंतिम संस्कार करने पर पाबंदी लगा दी। ऐसी अमानवीय घटनाएँ न केवल सामान्य लोगों के साथ आ रही हैं, बल्कि इलाज करते-करते कोरोना की चपेट में आये या काल के गाल में समा चुके डॉक्टरों के साथ भी घटित हुई हैं। चेन्नई में कोरोना से मरे एक डॉक्टर के साथ भी ऐसा ही हुआ, वहाँ के लोगों ने डॉक्टर को चर्च की सीमेट्री में नहीं दफ़नाने दिया। ये तो वे घटनाएँ हैं, जिनमें समाज ने बेरुख़ी दिखायी है। लेकिन अगर किसी के परिजन ही ऐसा बर्ताव करें, तो कैसा महसूस होगा? इंसानियत को तो दूर अपनेपन को भी धिक्कार भेजनी पड़ेगी।
मध्य प्रदेश के भोपाल में एक ऐसी घटना सामने आयी है। यहाँ कोरोना वायरस के संक्रमण से एक व्यक्ति की मौत के बाद न केवल उसके परिजनों ने शव लेने से इन्कार कर दिया, बल्कि उसके बेटे ने अपने पिता के शव का अंतिम संस्कार करने से भी मना कर दिया। परिजनों की बेरुख़ी देखकर वहाँ के तहसीलदार स्वेच्छा से अंतिम संस्कार के लिए आगे आये और उन्होंने शवदाह किया।
सूत्रों के मुताबिक, भोपाल के शुजालपुर के रहने वाले को अचानक लकवा मार गया। उसे भोपाल के चिरायु अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस शख़्स की कोरोना वायरस की जाँच की गयी, जो कि पॉजिटिव आयी। इसके बाद उसका कोरोना वायरस का इलाज चलने लगा। 20 अप्रैल उसकी मौत हो गयी। जब उसके परिजन अस्पताल पहुँचे, तो अस्पताल प्रशासन ने कहा कि वे शव को गाँव नहीं ले जा सकते, उन्हें भोपाल में ही पूरी सावधानी और सरकार की ओर से निर्धारित दिशा-निर्देशों के तहत अंतिम संस्कार करना होगा। इस पर परिजनों ने न केवल शव लेने से इन्कार कर दिया, बल्कि अंतिम संस्कार करने से भी मना कर दिया। प्रशासन ने उन्हें पूरी सुरक्षा का भरोसा दिलाया, बावजूद इसके मृतक के पुत्र ने मुखाग्नि देने तक से इन्कार कर दिया। इसके बाद तहसीलदार गुलाब सिंह बघेल स्वेच्छा से अंतिम संस्कार के लिए आगे आय और उन्होंने शव को मुखाग्नि दी। अब पूरे क्षेत्र में तहसीलदार साहब की इंसानियत के गुण गाये जा रहे हैं। मगर सवाल यह है कि क्या एक बीमारी के डर से समाज और यहाँ तक कि परिजनों की भी संवेदनाएँ मर गयी हैं? क्या ऐसे लोगों का अभाव होता जा रहा है, जो दूसरों के लिए अपनी जान तक पर खेल जाते हैं? क्या कुछ लोग अपनी जान को इतना क़ीमती समझते हैं कि जिसने उन्हें पैदा किया, पाला-पोसा, उसी को मरने के बाद लावारिश छोड़ने पर आमादा हैं? क्या ऐसे लोगों से हज़ार गुना अच्छे वे लोग नहीं हैं, जो दूसरों के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं, यहाँ तक कि जान गँवा भी चुके हैं?