समय रहते समस्या पर कोई बोला क्यों नहीं?
क्या राज्यों में और बढ़ेगा बिजली संकट?
कोरोना वायरस की दूसरी लहर के ख़त्म होने के बाद देश की अर्थ-व्यवस्था ने जो तेज़ी पकड़ी थी, उसे बिजली कटौती ने फिर धीमा कर दिया है। विभिन्न राज्यों से आ रही बिजली कटौती की ख़बरों से साफ़ है कि आने वाले कुछ दिन तक कोयले का यह संकट हल होने वाला नहीं है। फिर केंद्रीय कोयला मंत्री भले ही दावा करते रहें कि कोल इंडिया के पास 430 मिलियन टन कोयले का भण्डार है, जिससे 24 दिन की कोयले की माँग पूरी की जा सकती है। अगर ऐसा ही था, तो फिर 5 अक्टूबर को एक अंगे्रजी अख़बार को दिये साक्षात्कार में केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह ने कोयले की भारी कमी के कारण गिनाते हुए क्यों कहा कि हालात को सामान्य होने में क़रीब छ: महीने लग सकते हैं। हालात गम्भीर थे। सम्भवतया इसीलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 11 अक्टूबर को एक उच्च बैठक करके स्थिति का जायज़ा लिया और उससे निपटने की रणनीति तैयार की। देश में बिजली की कुल खपत की 70 फ़ीसदी आपूर्ति कोयला संयंत्रों से होती है।
बहरहाल सरकार के दावे जो भी हों, विभिन्न राज्यों से बिजली कटौती की ख़बरें लगातार आ रही हैं। सरकारें ही नहीं, ख़ुद बिजली वितरक कम्पनियाँ भी अपने ग्राहकों से बिजली कम इस्तेमाल करने का अनुरोध कर रही हैं। दिल्ली में बिजली की वितरक कम्पनी टाटा पॉवर ने 9 अक्टूबर को ही अपने ग्रहकों को एक सन्देश भेजकर अनुरोध किया कि कोयले की कमी को देखते हुए वे बिजली का इस्तेमाल किफ़ायत से करें।
इससे पहले राजस्थान सरकार ने भी बिजली अधिकारियों से जनता को बिजली के सावधानी पूर्वक इस्तेमाल के लिए जागरूक करने को कहा था। वहाँ के गाँवों में बिजली कटौती तो कई दिन पहले ही शुरू हो गयी थी। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु भी बिजली कटौती शुरू कर चुके हैं। कटौती करने वाले राज्यों की सूची आये दिन लम्बी होती जा रही है। बहुत-से राज्य दूसरे संयंत्रों से बिजली ख़रीद रहे हैं। लेकिन यह इतनी महँगी है कि ज़्यादा दिन उनके लिए सम्भव ही नहीं होगा। ऐसे में दिवाली पर भी इस बार कोयले की काली छाया कहीं कहीं दिख जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। महँगी दरों पर बिजली ख़रीदने का अर्थ है उसका भार उपभोक्ताओं पर आएगा। उन्हें बिजली महँगी दरों पर मिलेगी; आज नहीं, तो कल सही।
पॉवर कट का सीधा असर औद्योगिक उत्पादन पर भी पड़ेगा। इससे पटरी पर आती अर्थ-व्यवस्था फिर से प्रभावित होगी और पहले से ही सिर चढ़कर बोल रही महँगाई का ग्राफ और ऊपर चला जाएगा। किसानों को बिजली नहीं मिली, तो कृषि उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है। घर से काम करने वालों की परेशानी भी बढ़ेगी। हर किसी का रोज़मर्रा का जीवन प्रभावित होगा, सो अलग। यह समस्या इसलिए भी गम्भीर है कि अभी तक डीजल जनरेटर लगाकर पॉवर कट की कमी को पूरा लिया जाता था, पर अब प्रदूषण नियंत्रण के नियम उसकी छूट किसी को नहीं देते हैं।
सवाल है कि आख़िर कोयले का इतना घोर संकट अचानक कैसे खड़ा हो गया? ऊर्जा मंत्रालय के प्रेस बयान के अनुसार, कोयला उत्पादन क्षेत्रों में सितंबर महीने में भारी बारिश होने के कारण कोयला खदानों में पानी भर गया था, जिससे कोयले की निकासी नहीं हो सकी। इससे बिजली संयंत्रों तक कोयला नहीं पहुँचाया जा सका। दूसरा, कोरोना की दूसरी लहर के बाद देश के उद्योग, कम्पनियाँ, दफ़्तर और बाज़ार खुलने लगे, जिससे बिजली की माँग में एक साथ भारी वृद्धि हो गयी। विनिर्माता इकाइयाँ अपनी पूरी क्षमता से काम करने लगीं और बाक़ी क्षेत्र भी पहले की तरह बिजली का उपयोग करने लगे। इससे सन् 2019 के अगस्त महीने के मुक़ाबले 2021 में बिजली की माँग में क़रीब 20 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो गयी। बढ़ी हुई इस माँग को पूरा करने के लिए बिजली संयंत्रों ने अपनी पूरी क्षमता से बिजली का उत्पादन किया, जिससे कोयले की खपत ज़्यादा हुई। सामान्य हालात में संयंत्र अपनी क्षमता से 54 फ़ीसदी कम बिजली पैदा करते हैं। तीसरा कारण रहा कि अप्रैल से जून के बीच में सभी कोयला कम्पनियाँ कोयले का जो भण्डारण कर लेती हैं, वह नहीं किया गया। इसके पीछे का कारण सरकार की ओर से नहीं बताया गया है।
कोई पूछ सकता है कि हालात जब क़ाबू से इस हद तक बाहर हो चुके हैं, तो कोयले का आयात कर स्थिति से क्यों नहीं निपटा जा रहा? यह सम्भव नहीं। कारण, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले के दाम 13 साल की रिकॉर्ड-तोड़ ऊँचाई पर हैं। मार्च, 2021 में इंडोनेशिया से आ रहे कोयले की क़ीमत 60 डॉलर प्रति टन थी, जो सितंबर-अक्टूबर में बढ़कर 200 डॉलर प्रति टन हो गयी। ऐसे में भारतीय कोयला कम्पनियों ने अपना कोयला आयात रोक दिया है।
भारत वैसे तो कोयला उत्पादन में दुनिया के पहले पाँच देशों में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है, मगर कोयला आयातक देशों में भी वह दूसरे स्थान पर ही है। कारण, यहाँ बिजली उत्पादन और आम उपयोग में काम आने वाले ईंधन का मुख्य स्रोत कोयला ही है।
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले की क़ीमतों में इस बेतहाशा बढ़ोतरी का मुख्य कारण पैट्रोल और कच्चे तेल की क़ीमतों का लगातार बढ़ते जाना है, जिससे प्राकृतिक गैस की क़ीमतें भी आसमान छूने लगी हैं। दूसरा, कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के जलवायु परिवर्तन के समझौते के तहत बहुत-से देशों द्वारा कोयले का इस्तेमाल कम करने की नीयत से कोयला उत्पादन को लगातार घटाते जाना भी एक कारण है।
ज़ाहिर है इससे दुनिया में एक तरफ़ कोयले का उत्पादन कम हुआ, दूसरी तरफ प्राकृतिक गैस का उपयोग बढ़ा। पर अब जब गैस ही इतनी महँगी होती जा रही है, तो अमेरिका समेत यूरोप और एशिया के अधिकतर देश कोयले पर फिर से आने पर मजबूर हो गये हैं। दो-तीन रात अँधेरे में रहने के बाद चीन ने अपनी बंदरगाहों पर रोके गये आस्ट्रेलिया के कोयले से भरे जहाज़ों से माल उताराना शुरू कर दिया, तो इसलिए कि वह अपने यहाँ कोयला उत्पादन काफ़ी कम कर चुका था।
सर्दियों में यूरोप में कोयले की माँग के और बढऩे के आसार को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले के दामों में कमी आने के आसार नहीं लगते। यही कारण है कि भारत सरकार ने अपने यहाँ बिजली संयंत्रों को बन्द होने से बचाने के लिए निजी कोयला उत्पादक कम्पनियों को अपने रिजर्व भण्डार का 50 फ़ीसदी खुले बाज़ार में बेचने के आदेश दिये हैं। इसके लिए उसने कई नियमों में परिर्वतन किया है या फिर ढील दी है। इसके साथ कई उन खदानों में से भी कोयला निकालने का प्रयास किया जा रहा है, जिनसे उत्पादन बन्द कर दिया गया था। बिजली संयंत्रों से भी कहा गया है कि वो अपनी बन्धक खदानों में से उत्पादन को बढ़ाएँ, जिससे अपनी ज़रूरत को ख़ुद ही पूरा करने की स्थिति में आ सकें।
कुल मिलाकर कोयला मंत्रालय कोयले की कमी से निपटने के लिए हर सम्भव क़दम उठाने की कोशिश कर रहा है, जिससे जल्द-से-जल्द कोयले की इस कमी को पूरा कर बिजली संयंत्रों को बन्द होने से बचाया जा सके। सरकार नहीं चाहती कि गति पकड़ रही अर्थ-व्यवस्था को फिर कोई झटका लगे। पर कई संयंत्र तो बन्द हो चुके हैं। कुल 135 संयंत्रों में से क़रीब 100 के पास मात्र चार दिन का कायेला बचना एक बड़ा झटका और भविष्य के लिए डर तो दिखाता ही है, जिससे समय रहते निपटना ज़रूरी है।
सरकार का दावा है कि उसके पास ज़रूरत का पूरा कोयला है और अगले कुछ दिन में उसमें और बढ़ोतरी हो जाएगी। पर बड़ी मात्रा में आयात होने वाले कोयले की कमी और चुनौतियाँ तो फ़िलहाल बनी ही रहेंगी। ऐसे में बिजली की आपूर्ति सामान्य होने के दावों पर कितना यक़ीन किया जाए। दूसरे सवाल ये हैं कि अप्रैल से जून-जुलाई तक कोयले का भण्डारण क्यों नहीं हो सका? न अभी तक यह साफ़ हुआ है कि अगर कोयले की बिजलीघरों में इतनी अधिक कमी हो रही थी, तो किसी ने भी पहले यह चेतावनी क्यों नहीं दी? क्या राज्यों में बिजली संकट और बढ़ेगा? क्या कोल इंडिया को अपने मंत्रालय को यह सूचना नहीं देनी चाहिए थी? क्या बिजली निर्माता कम्पनियों को ऊर्जा मंत्रालय को आगाह नहीं करना चाहिए था? हो सकता है आने वाले दिनों में इस पर भी कुछ ख़ुलासे हों।