झारखंड के कई नेताओं के मन में इस बात की कसक रहती है और वे अक्सर शिकायत भी करते रहते हैं कि पड़ोस का बिहार, बिहार की राजनीति, बिहार के नेता तो हमेशा चर्चा में रहते हैं, लेकिन झारखंड की राजनीति की थाह उस तरह से नहीं ली जाती. यहां की राजनीति पर तभी बात होती है, जब सत्ता का परिवर्तन होता है. वैसे उनकी बात एक बड़ी हद तक सही ही है. इस बार के लोकसभा चुनाव में भी झारखंड का कुछ-कुछ वैसा ही हाल है. बिहार की राजनीति में क्या हो रहा है, उसकी खबरें रोज मिर्च-मसाले के साथ आ रही हैं, लेकिन पड़ोस के झारखंड की राजनीति में क्या हो रहा है, इस पर न कहीं कोई ज्यादा चर्चा है न बात जबकि झारखंड में भी घटनाएं कोई कम नहीं घट रहीं.
14 संसदीय सीटों वाले झारखंड में राजनीतिक लड़ाई बिहार से कम दिलचस्प स्थिति में नहीं है. फिलहाल लगभग आधी सीटों पर भाजपा का कब्जा है. पार्टी अपने इस पुराने गढ़ को न सिर्फ बचाना चाहती है, बल्कि और मजबूत करना चाहती है इसलिए आरएसएस के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले की ऊर्जा यहां लगी हुई है और उनके दिशा-निर्देश में संघ परिवार की पूरी ताकत भी. यहां तीन सीटों को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है. इनमें एक जमशेदपुर की है, दूसरी हजारीबाग की और तीसरी राजधानी रांची की. जमशेदपुर वह सीट रही है जहां से भाजपा के सांसद राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा हुआ करते थे. लेकिन उनके द्वारा सीट खाली करने पर वहां डॉ अजय कुमार का कब्जा हो गया, जो पूर्व आईपीएस अधिकारी थे और बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा से चुनाव लड़कर विजयी हुए थे. भाजपा किसी भी तरह से यह सीट वापस चाहती है और इसके लिए मुंडा पर चुनाव लड़ने का दबाव भी था. लेकिन बताया जा रहा है कि राज्य में आगामी दिनों में विधानसभा चुनाव की संभावना को देखते हुए अर्जुन मुंडा किसी भी तरह राज्य की राजनीति से अलग होकर सांसद बनकर अपनी संभावनाओं के द्वार को बंद नहीं करना चाहते थे इसलिए वे वहां से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुए. मुंडा की जगह वहां भाजपा ने विद्युतवरण महतो को उम्मीदवार बनाया है जो हाल ही में झारखंड मुक्ति मोर्चा का दामन छोड़ भाजपा में शामिल हुए थे. इसे लेकर भाजपा में नाराजगी भी है लेकिन अर्जुन मुंडा की पसंद के उम्मीदवार होने की वजह से खुलेआम विरोध नहीं हो रहा. दूसरी महत्वपूर्ण सीट हजारीबाग है जहां से भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा चुनाव जीतते रहे हैं. इस बार उन्होंने अपने बेटे जयंत सिन्हा को उम्मीदवार बना दिया है. जयंत अपने पिता की विरासत संभालते हुए आसानी से जीत हासिल कर लेंगे, कहना मुश्किल है क्योंकि वहां उनका इस बार मुकाबला कांग्रेस के चर्चित व युवा विधायक सौरव नारायण सिंह से हो रहा है जो हजारीबाग के राजघराने से ताल्लुक रखते हैं. साथ ही जयंत की टक्कर भाजपा के ही पूर्व विधायक रहे लोकनाथ महतो से भी है. लोकनाथ इस चुनाव में आजसू पार्टी से चुनावी मैदान में हैं.
लेकिन सबसे दिलचस्प मुकाबला तो राजधानी रांची की सीट पर है. यहां लड़ाई बहुकोणीय है. भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार रामटहल चौधरी हैं, जो पूर्व में कई बार सांसद रह चुके हैं. भाजपा से ही टिकट की उम्मीद पूर्व आइपीएस अधिकारी अमिताभ चौधरी लगाये हुए थे. कुछ माह पहले जब नरेंद्र मोदी की सभा हुई थी तो उसकी तैयारी में नरेंद्र मोदी के पक्ष में उन्होंने अपने होर्डिंग-पोस्टर आदि भी लगाए थे, लेकिन ऐन वक्त पर भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो वे बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो का दामन थामकर चुनाव मैदान में उतरे हैं. कांग्रेस के वर्तमान सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय भी रांची से ही मैदान में हैं. हाल में कई वजहों से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है इसलिए बताया जाता है कि उनके नाम पर नैया पार होने की उम्मीद उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस को भी नहीं थी, लेकिन रांची संसदीय सीट से ही राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री और आजसू पार्टी के मुखिया सुदेश महतो के उतर जाने से सुबोध की मुश्किलें कुछ कम हुई हैं. माना जा रहा है कि महतो कुरमियों के नेता हैं और रांची संसदीय सीट के अंतर्गत आनेवाली दो विधानसभा सीटों पर उनकी पार्टी का कब्जा है, इसलिए वे जो भी वोट काटेंगे भाजपा के खाते से ही काटेंगे. यह भी कहा जा रहा है कि सुदेश खुद की जीत से ज्यादा भाजपा उम्मीदवार रामटहल की हार के लिए चुनाव लड़ रहे हैं. रांची और आसपास के इलाके में रामटहल की पहचान भी भाजपा नेता के साथ ही कुरमियों के नेता के तौर पर है और सुदेश हालिया वर्षों में उभर रहे कुरमियों के सबसे बड़े नेता हैं. सुदेश जानते हैं कि यदि रामटहल इस बार चुनाव हार जाते हैं तो संभवतः वे राजनीति से आउट हो जाएंगे और उसके बाद फिर उन्हें कुरमियों का सर्वमान्य व सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित होने में सहूलियत मिलेगी. कांग्रेस के लिए एक मुश्किल रांची से ही सटे मांडर विधानसभा के विधायक और राज्य के पूर्व मंत्री व चर्चित आदिवासी नेता बंधु तिर्की का तृणमुल कांग्रेस का उम्मीदवार बनकर मैदान में उतरना भी है. बंधु की पकड़ आदिवासी वोटों पर ठीक-ठाक मानी जाती है और उसमें भी विशेषकर ईसाई मतों पर उनकी गहरी पकड़ है इसलिए वे कांग्रेस का वोट भी काटेंगे, ऐसा माना जा रहा है. आम आदमी पार्टी ने यहां मुस्लिम उम्मीदवार उतारकर कांग्रेस के लिए एक और मुश्किल पैदा की है. इस तरह राजधानी रांची में कोई नहीं कह पा रहा कि ऊंट किस करवट बैठेगा.
इन सबके बीच झारखंड में सबसे कांटे की टक्कर इस बार झारखंड में संथाल परगना इलाके की प्रमुख सीट दुमका पर है. यहां से दो आदिवासी दिग्गज नेता आमने-सामने हैं. एक तरफ आदिवासियों के सबसे चर्चित नेता,झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख और राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन हैं तो दूसरी तरफ झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख व राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी. संथाल परगना आदिवासी बहुल इलाका है और झामुमो का गढ़ माना जाता है. बताया जा रहा है कि बाबूलाल मरांडी ने यहां से चुनाव लड़ने का फैसला कर एक तरह से जोखिम लिया है, लेकिन इसके पीछे उनका बड़ा मकसद भी है. हालिया दिनों में भाजपा ने भी तेजी से संथाल परगना में अपने आधार का विस्तार किया है. बाबूलाल जानते हैं कि अगर वे शिबू सोरेन को परास्त कर देंगे तो इसका संदेश पूरे राज्य में जाएगा और आदिवासियों के नये बड़े नेता के तौर पर उन्हें स्थापित होने में सहूलियत होगी. बाबूलाल मरांडी पहले भी शिबू पर जीत हासिल कर चुके हैं, लेकिन तब वे भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता हुआ करते थे.
लड़ाई और भी कई सीटों पर दिलचस्प है. राज्य में एक सीट ऐसी भी है, जहां भाकपा माले की स्थिति काफी अच्छी मानी जा रही है. कोडरमा सीट से भाकपा माले के प्रत्याशी राजकुमार यादव मैदान में हैं.राजकुमार कई बार यहां चुनाव लड़ चुके हैं और हमेशा मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहे हैं. इस बार उनकी स्थिति अच्छी होने से उनके पक्ष में संभावना की बात भी कही जा रही है.
झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्य में सरकार बनाने और बचाने के एवज में अधिकांश सीटें कांग्रेस को दे दी हैं इसलिए उसके पास अपने सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन की प्रतिष्ठा बचाने के अलावा बहुत कुछ बड़ा नहीं है. लेकिन कांग्रेस की परीक्षा इस राज्य में इसलिए होनी है, क्योंकि राज्य बनाने का श्रेय लेने के बाद से भाजपा उतार-चढ़ाव के बावजूद इस गढ़ में मजबूत स्थिति में रही है.
कुल मिलाकर इस चुनाव में खोने-पाने की मुख्य लड़ाई कांग्रेस और भाजपा ही लड़ रही है. बीच में इन दोनों पार्टियों के एकाधिकार और मजबूत वर्चस्व को तोड़ने के लिए झामुमो, आजसू, झाविमो समेत कई पार्टियां मजबूती से दस्तक दे रही हैं.