82 साल के बिशेश्वर बोडो अपने गांव जाने के लिए व्याकुल हैं. गोसाईगांव तहसील में पड़ने वाला उनका गांव ओडलागुड़ी उस कोकराझार कस्बे से आधा घंटा दूर है जहां वे फिलहाल अपनी बेटी के साथ रह रहे हैं. कस्बे में लगे कर्फ्यू की वजह से गांव जाना तो दूर वे अपने घर से बाहर तक नहीं निकल सकते. यह कर्फ्यू उन भीषण दंगों की वजह से लगा है जिनमें आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अब तक 58 से भी ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है और दो लाख से भी ज्यादा लोगों को घर-बार छोड़कर राहत शिविरों की शरण लेनी पड़ी है. गैरआधिकारिक आंकड़े यह नुकसान कहीं ज्यादा बता रहे हैं. भर्राए गले के साथ बिशेश्वर कहते हैं, ‘टीवी पर खबर आ रही है कि मेरा गांव जल रहा है. पता नहीं मेरे आस-पड़ोस के लोगों का क्या हुआ होगा. गांव में मैं अकेला रहता था तो मेरी बेटी कुछ महीने पहले मुझे यहां ले आई. इसलिए मैं सुरक्षित हूं. पता नहीं कितने दिन और चलेगा यह खूनखराबा.’
बोडो, नेपाली, आदिवासी, बांग्लाभाषी हिंदू और मुसलिम समुदाय की मिली-जुली आबादी वाले निचले असम के इस इलाके में सामुदायिक हिंसा कोई नई बात नहीं. इसके कारण भी अनजाने नहीं हैं. लेकिन क्षुद्र स्वार्थों से भरी राजनीति के चलते अब तक इस समस्या के समाधान की कोई स्थायी उम्मीद नहीं जग सकी है. दरअसल मूल निवासी बनाम प्रवासी के नाम पर हो रहा टकराव पिछले कई दशक से इस हिंसा का बीज बनता रहा है. राज्य में जनसांख्यिकी का अनुपात बदल रहा है. जमीन और रोजगार की उपलब्धता घट रही है. इन मुद्दों पर होने वाली राजनीतिक रस्साकशी के चलते असम पर अधिकार का मुद्दा जब-तब गरमाता रहता है.
हालिया हिंसा की शुरुआत तब हुई जब 19 जुलाई को कोकराझार जिले में मुसलिम समुदाय के दो छात्र नेताओं पर अज्ञात लोगों ने गोली चलाई. जवाबी हमले में बोडो लिबरेशन टाइगर्स नामक संगठन के चार पूर्व सदस्य मारे गए. इसके बाद तो हिंसा का दायरा तेजी से फैला और एक के बाद एक कई जिलों के गांव इसकी चपेट में आते गए. असम की सबसे बड़ी जनजाति बोडो असम की कुल जनसंख्या का महज पांच फीसदी है. इसके मुकाबले बांग्लादेश से आए मुसलमानों की आबादी, जो इस इलाके में महज चार दशक पहले आई है, पूरे असम की जनसंख्या का 33 फीसदी हो गई है. इसकी वजह से सिर्फ बोडो ही नहीं बल्कि दूसरे जातीय गुटों का भी मुसलिम समुदाय के साथ टकराव बढ़ गया है.
उम्मीद की जा रही थी कि स्वायत्तता के बाद सब ठीक हो जाएगा, लेकिन बोडो समुदाय की बदहाल स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया
1952 में पहली बार बोडो और मुसलिम समुदाय का टकराव हुआ था. यही वह दौर था जब पहली बार मुसलिम आबादी इस इलाके में आ रही थी. 90 के दशक की शुरुआत में दोनों समूहों के बीच फिर सिलसिलेवार संघर्ष हुआ जिसके बाद मुसलिम आबादी को पीछे हटना पड़ा. तभी बोडो स्वायत्तता की बात पहली बार उठी. नतीजतन 1993 में बोडो स्वायत्त परिषद (बीएसी) बनी. बोडो समुदाय की मौजूदगी निचले असम के मैदानों में उत्तरी बंगाल से लगने वाले इलाकों तक है. यह इलाका कछारी, कोच, राजबोंघिस और आदिवासी लोगों का भी परंपरागत निवास रहा है. 1996 और 1998 में बोडो और आदिवासियों के बीच भी खूनी संघर्ष हो चुका है. इसमें 300 लोगों की जान चली गई थी.
अस्सी के दशक के आखिरी सालों में उपेंद्रनाथ ब्रह्म की अगुवाई में ऑल बोडो स्टूडेंट यूनियन (एबीएसयू) द्वारा शुरू किया गया पृथक बोडोलैंड आंदोलन बेहद हिंसक रहा था. मसले के हल के लिए बनी बोडो स्वायत्त परिषद से समुदाय का एक हिस्सा खुश नहीं था, इसलिए हजारों बोडो युवा पूर्ण आजादी के समर्थन में भूमिगत हो गए. नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीबीएफ) और बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) ने हथियार उठा लिए. बीएलटी 2003 में हिंसा की राह छोड़कर मुख्यधारा में आ गया जिसके बाद बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) का मार्ग प्रशस्त हुआ.
बागी बीएलटी राजनीतिक चोला ओढ़कर अब बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट हो गया था. बीटीसी की कमान इसके हाथ में थी और इस तरह इसके मुखिया हग्रामा मोहिलारी ने बोडो राजनीति पर एक तरह से कब्जा कर लिया था. लेकिन सत्ताधारी कांग्रेस से जुड़े होने के बावजूद वे बोडो समुदाय की जिंदगी में कोई खास फर्क नहीं ला सके. इसका नतीजा यह हुआ कि साल 2010 में एबीएसयू ने फिर अलग बोडोलैंड की मांग शुरू कर दी. एबीएसयू के फायरब्रांड अध्यक्ष प्रमोद बोरो कहते हैं, ‘बोडो जनता ने दो दो स्वायत्तशासी संस्थाएं देख लीं. दोनों बोडो जनता के अधिकारों की रक्षा कर पाने में नाकाम रही हैं. इस हिंसा में बोडो अपने ही घर में बेघर हो रहे हैं.’ एबीएसयू ने एक बार फिर से पृथक बोडोलैंड की मांग शुरू कर दी है, लेकिन आज हालात अस्सी के दशक के विपरीत हैं. संगठन का बड़ा हिस्सा सरकार के साथ बातचीत में लगा हुआ है. हालांकि उसका कहना है कि पृथक राज्य की मांग पर कोई समझौता नहीं होगा. बातचीत विरोधी गुट नेता रंजन दैमारी अब भी गुवाहाटी केंद्रीय जेल में हैं, लेकिन उनके समर्थक इस इलाके में फैले हुए हैं जो जब-तब हिंसा फैलाते रहते हैं.
पिछले कुछ समय के दौरान बीटीसी और इस पर कब्जा जमाए हग्रामा मोहिलारी की छवि लगातार धूमिल होती गई है. कोकराझार के रंजन बसुमतारी कहते हैं, ‘असम सरकार को बोडो इलाकों की कोई फिक्र नहीं. उन्होंने इसे हग्रामा के लिए छोड़ दिया था ताकि वे इसे मनमर्जी से लूट सकें. बोडो जनता की हालत सुधारने से ज्यादा हग्रामा को अपनी सत्ता की चिंता है. गोगोई ऐसे सहयोगी के साथ खुश हैं और हग्रामा भी कांग्रेस के ठेकेदार की तरह काम कर रहे हैं.’ 2003 में बीटीसी के गठन के बाद बोडो इलाकों में नाममात्र का विकास देखने को मिला है, जबकि इस दौरान हिंसा बढ़ी है. बीएलटी के पुराने नेता व्यापारी और ठेकेदार बन गए हैं जो अब हथियारों का इस्तेमाल अपने प्रतिद्वंद्वियों को खत्म करने के लिए करते हैं. ताकत हाथ में आने के बाद हग्रामा और उनके सहयोगियों में विचारधारा का क्षरण भी तेजी से हुआ है.
चाहे भूमिगत एनडीएफबी हो या हथियार डाल चुकी बीएलटी, दोनों के ज्यादातर कैडर के पास अवैध हथियार हैं. इनमें से कुछ तो फिरौती भी वसूलने लगे हैं. इससे बोडो इलाकों में जंगलराज जैसी स्थिति लगती है. कोकराझार राजकीय अस्पताल में भर्ती एक बोडो महिला बताती है, ‘आम बोडो यहां सुरक्षित नहीं है. हथियारबंद लोग खुलेआम घूमते हैं. इनमें सिर्फ बोडो विद्रोही ही नहीं हैं. इनकी आड़ में स्थानीय गुंडे-बदमाश भी गिरोह चला रहे हैं.’ जातीय संघर्ष की वजह से यह अराजकता और बढ़ी है. ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष अब्दुल रहमान अहमद कहते हैं, ‘पिछले तीन साल के दौरान गैरबोडो समुदायों के नेताओं पर लगातार हमले होते रहे हैं. इससे बीटीसी इलाके में रहने वाले गैर-बोडो समुदायों में भय व्याप्त है.’
पिछले छह महीने के दौरान बोडोलैंड में रहने वाला गैर-बोडो समुदाय अपने साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ मुखर हुआ था. इसके नतीजे में नॉन बोडो सुरक्षा समिति का गठन भी हुआ था. इसका काम था गैर-बोडो लोगों के साथ होने वाले अत्याचार का विरोध. मुसलिम नेताओं द्वारा गठित इस संगठन को कुछ बांग्लाभाषी हिंदुओं, नेपालियों और राजबोंघिस समुदाय का समर्थन प्राप्त था. ये बोडोलैंड का विरोध नहीं कर रहे थे लेकिन गैर बोडो समुदाय के लिए अधिकारों की मांग कर रहे थे.
गैर-बोडो संगठन के उभार के पीछे राजनीति की भूमिका भी देखी जा रही है. इस आशंका को मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी खारिज नहीं किया है. वे कहते हैं, ‘हमारे पास सुरक्षा बलों की कमी है. केंद्र ने अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजने का वादा किया है. एक हफ्ते के भीतर हालात काबू में आ जाएंगे लेकिन मैं इसके पीछे राजनीतिक षड्यंत्र से इनकार नहीं कर सकता. हमें इन हालात से निपटना है.’ लेकिन साफ है कि गोगोई सरकार ने 2008 में उदलगुड़ी में हुई हिंसा से कोई सीख नहीं ली है जिसमें 54 लोग मारे गए थे. इसकी जांच के लिए गठित जस्टिस पीसी फूकन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में असम पुलिस की बखिया उधेड़ते हुए उसकी खुफिया क्षमता पर सवाल खड़े किए थे. आयोग ने हिंसा भड़कने के लिए मुसलिम स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ असम को जिम्मेदार माना था जो इलाके में जबरन बंद थोपने की कोशिश कर रही थी. हमेशा की तरफ इस बार भी समय रहते स्थिति काबू में आ सकती थी. लेकिन पुलिस ने हालात को हाथ से निकलने का मौका दिया. अब सरकार और उसके गृह विभाग को जवाब खोजना पड़ रहा है.